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यजुर्वेद अध्याय - 32
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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 5
    ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः देवता - परमेश्वरो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    4

    यस्मा॑ज्जा॒तं न पु॒रा किं च॒नैव य आ॑ब॒भूव॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ सः। षो॑ड॒शी॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्माज्जातन्न पुरा किञ्चनैव यऽआबभूव भुवनानि विश्वा । प्रजापतिः प्रजया सँरराणस्त्रीणि ज्योतीँषि सचते स ऐडशी ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात्। जातम्। न। पुरा। किम्। चन। एव। यः। आबभूवेत्याऽऽ बभूव। भुवनानि। विश्वा॥ प्रजाऽपतिरिति प्रजाऽपतिः। प्रजया सꣳरराण इति सम्ऽरराणः। त्रीणि। ज्योतीषि। सचते। सः। षोडशी॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यस्मात् पुरा किञ्चन न जातं, यस्सर्वत आबभूव यस्मिन् विश्वा भुवनानि वर्त्तन्ते, स एव षोडशी प्रजया सह संरराणः प्रजापतिस्त्रीणि ज्योतींषि सचते॥५॥

    पदार्थः

    (यस्मात्) परमेश्वरात् (जातम्) उत्पन्नम् (न) निषेधे (पुरा) पुरस्तात् (किम्) (चन) किञ्चिदपि (एव) (यः) (आबभूव) समन्ताद्भवति (भुवनानि) लोकजातानि सर्वाऽधिकरणानि (विश्वा) सर्वाणि (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकोऽधिष्ठाता (प्रजया) प्रजातया (सम्) (रराणः) सम्यक् रममाणः (त्रीणि) विद्युत्सूर्यचन्द्ररूपाणि (ज्योतींषि) तेजोमयानि प्रकाशकानि (सचते) समवैति (सः) (षोडशी) षोडश कला यस्मिन् सन्ति सः॥५॥

    भावार्थः

    यस्मादीश्वरोऽनादिर्वर्त्तते ततस्तस्मात् पूर्वं किमपि भवितुन्न शक्यम्। स एव सर्वासु प्रजासु व्याप्तो जीवानां कर्माणि पश्यन् संस्तदनुकूलफलं ददन्न्यायं करोति येन प्राणादीनि षोडश वस्तूनि सृष्टान्यतः स षोडशीत्युच्यते। प्राणः, श्रद्धाऽऽकाशं, वायुरग्निर्जलं, पृथिवीन्द्रियं, मनोऽन्नं, वीर्य्यं, तपो, मन्त्रः, कर्म, लोकाः, नाम च षोडश कलाः। प्रश्नोपनिषदि षष्ठे प्रश्ने वर्णिताः। एतत्सर्वं षोडशात्मकं जगत् परमात्मनि वर्त्तते तेनैव निर्मितं पाल्यते च॥५॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो सब ओर (आबभूव) अच्छे प्रकार से वर्त्तमान है, जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) वस्तुओं के आधार सब लोक वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कला वाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक् रमण करता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि) तेजोमय बिजुली, सूर्य्य, चन्द्रमा रूप प्रकाश ज्योतियों को (सचते) संयुक्त करता है॥५॥

    भावार्थ

    जिससे ईश्वर अनादि है, इस कारण उससे पहिले कुछ भी हो नहीं सकता, वही सब प्रजाओं में व्याप्त जीवों के कर्मों को देखता और उनके अनुकूल फल देता हुआ न्याय करता है, जिसने प्राण आदि सोलह वस्तुओं को बनाया है, इससे वह षोडशी कहाता है (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और नाम) ये षोडश कला प्रश्नोपनिषद् में हैं। यह सब षोडश वस्तुरूप जगत् परमात्मा में है, उसी ने बनाया और वही पालन करता है॥५॥

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    विषय

    सोलह कला

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव कह रहा है कि महाराजा! कृष्ण के तो सोलह हजार रानियाँ थींमुनिवरो! मानव ने इस रहस्य को समझा नहीं, कि वह सोलह हजार गोपियाँ जिनके साथ महाराजा कृष्ण विहार किया करते थे, वे क्या थीं? ऐसा कहा जाता है कि महाराजा! कृष्ण सोलह हजार वेद की ऋचाएँ जानते थे, और उनके साथ विनोद किया करते थेएकान्त स्थान में विराजमान हो करके वेद की विद्या को अच्छी प्रकार विचारा करते थेउन गोपिकाओं, ऋचाओं से बेटा! विनोद किया करते थे, जिससे उन्होंने संसार के ज्ञान विज्ञान को जानामुनिवरों! कहाँ तक यह वार्ता उच्चारण करें

    आज तो हमारा केवल यही व्याख्यान प्रारम्भ हो रहा है, कि महाराजा! कृष्ण ने नेवले से कहा था, हे नेवले! यह जो हमारा ज्ञान है, आगे चलकर लुप्त हो जाएगा, कुछ काल आगे चलकर फिर अन्त हो जाएगाजिस काल में दोनों प्रकार का विज्ञान होता है, उस काल का वास्तव में उत्थान हो जाता हैबेटा! दो प्रकार का विज्ञान कौन सा है? आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान। जब यह दोनों विज्ञान साथ साथ चलते हैं, तो बेटा! वह युग महान कहा जाता हैउस काल में मानव का उत्थान होता है, उस काल में मानव सब वार्त्ताओं का जानने वाला होता है

    मुनिवरों! नेवले ने महाराजा कृष्ण से प्रश्न किया, हे महाराज! ऐसा सुना जाता है कि आप षोडश कलाओं के ज्ञाता हैंआप इन षोडश कलाओं को कैसे जानते हैं? उस समय, मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने षोडश कलाओं का वर्णन किया कि प्रत्येक मानव षोडश कलाओं का बना हुआ है, जो इन कलाओं को जान लेता है, वह सोलह कलाधारी हो जाता है

    देखो, मुनिवरों! मानव के हृदय में मानव के शरीर में बेटा! पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्म इन्द्रियाँ होती हैं, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार होते हैं और देखो, मधुवाता होता है इन सबको मिलाकर सोलह कलाएं होती हैंजो इन्हें जान लेता है, वह बेटा! महान योगी बन जाता हैमहाराजा कृष्ण प्रत्येक इन्द्रिय के विषय को अच्छी प्रकार जानते थेजानने के नाते उन्हें सोलह कलाधारी कहा जाता था

    मुनिवरों! आज हमें विचारना चाहिए, कि वेद की विद्या क्या है? वेद की विद्या से मानव का उत्थान कैसे होता है? महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव बड़े अन्धकार में चला जा रहा हैआज मानव का विकास उसी स्थान में होगा जब वेद का प्रसार होगा, वेद की विद्या मानव के समक्ष होगीआध्यात्मिक विद्या और भौतिक विद्या जब दोनों मानव के समक्ष होंगी, तो मानव का वास्तविक उत्थान हो जाएगाजिस काल में दोनों का प्रचार और ज्ञान होता है, उस काल को राम राज्य कहा जाता है

    कल महानन्द जी ने प्रश्न किया कि हमारे, आपके वाक्य मृत मण्डल में क्यों जाते हैं? यह क्या दशा है जो इस प्रकार आपत्ति काल भोगना पड़ा है? परन्तु आज भी हम इसका उत्तर न दे सके और व्याख्यान देते देते बहुत दूर चले गएहम उच्चारण कर रहे थे, कि मानव को अपने कार्यों में दृढ़ रहना चाहिएजो मानव जैसा करता है, वैसा ही भोगता हैबहुत पूर्व काल में हमने जो कर्म किए हैं, आज उन्हीं का फल भोगना पड़ रहा हैइसमें कुछ भी असत्य और न इसमें कोई भ्रान्ति है

    पूज्य महानन्द जीः आपके व्याख्यान तो यथार्थ होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहींपरन्तु भगवन्! आधुनिक काल में ऐसे व्यक्ति हैं, जो नाना प्रकार की विद्याओं को अच्छी प्रकार जानते नहीं और न वेदों का स्वाध्याय ही करते हैंउनके हृदय में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ, नाना प्रकार की अशुद्धियाँ रहती हैं इसलिए उनका निर्णय करना आपका कर्तव्य है

    पूज्यपाद गुरुदेवः महानन्द जी! जिसके द्वारा यथार्थता न हो, जो यथार्थ कार्यों को भी यथार्थ न मान रहा हो, बेटा! वह मानव कदापि नहीं मानेगावह तो अन्धकार में पहुँचा हुआ है।

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    भावार्थ

    ( यस्मात् पुरा ) जिससे पहले (किञ्चन) कुछ भी ( न जातम् ) नहीं उत्पन्न हुआ और (यः) जो (विश्वा भुवनानि) समस्त लोकों, भुवनों को (आवभूव) व्याप्त हो रहा है । वह (प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर राजा और पिता के समान (प्रजया) अपनी समस्त उत्पन्न प्रजा सृष्टि के साथ (संरराणः) उसमें ही रमण करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि ) तीन ज्योति अग्नि, वित्, सूर्य या सत्, चित्, आनन्द इनको (सचते) प्राप्त है, इनमें व्यापक है, इन तीन रूपों से स्मरण किया जाता है और (सः) वह ( षोडशी ) चंन्द्र के समान, आह्लादक १६ कला अर्थात् शक्तियों से सम्पन्न है । प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रिय,मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोक, ये १६ अंश या कलाएं समष्टि रूप से परमात्मा में और व्यष्टि रूप से जीवात्मा में होने से वह षोडशी है । १६ राज्याङ्गों से युक्त राजा भी षोडशी है । वह भी प्रजा से ही रमण करता है । उसी में आनन्द प्रसन्न रहता है । 'प्रजापतिः स्व दुहितरं चकमे' इत्यादि अर्थवाद भी इसी बात को दर्शाते हैं । अध्यात्म में तीन तेज, आत्मा, इन्द्रिय और मन, समाज में ब्राह्मबल, क्षात्र-बल और अर्थ बल यही परमेश्वर के 'त्रिपाद्' या 'त्रीणिपदानि' है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमात्मा । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    तीन ज्योतियाँ: रमण करता हुआ षोडशी य

    पदार्थ

    १. (यस्मात्) = जिससे (पुरा) = पहले (किञ्चन एव) = कुछ भी (न जातम्) = नहीं हुआ, जो सबसे पहले से था। वे प्रभु अनादि है और सबके आदि है, अर्थात् सारे संसार का निर्माण कर रहे हैं। २. (यः) = जो (विश्वा भुवनानि) = सब लोकों को (आबभूव) = समन्तात् व्याप्त कर रहे हैं। प्रभु ने लोकों का निर्माण किया और उन सबके अन्दर व्याप्त होकर रहने लगा । ('तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्') = उसका सर्जन किया, उसमें प्रवेश किया। ३. प्रजापतिः = वे प्रभु सारी प्रजा के रक्षक हैं । ४. (सः षोडशी) = उस सोलह कला सम्पूर्ण प्रभु ने (प्रजया) = प्रजा के हेतु से, प्रजा के रक्षण के हेतु से (त्रीणि ज्योतींषि) = तीन ज्योतियों को (सचते) = धारण किया है। द्युलोक में सूर्य, अन्तरक्षिलोक में चन्द्र व विद्युत् तथा पृथिवीलोक पर अग्नि को प्रभु ने स्थापित किया है। प्रजा के रक्षण के लिए इन ज्योतियों की आवश्यकता स्वयं सिद्ध है। कितनी अद्भुत है यह सृष्टि ! इसके निर्माता प्रभु ' षोडशी' हैं, सोलह कला सम्पूर्ण हैं, वे पूर्ण हैं तभी तो उनकी बनायी यह सृष्टि भी पूर्ण हैं। 'पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ' =पूर्ण से पूर्ण ही उत्पन्न होता है। उस षोडशी प्रभु ने जीव में भी 'प्राण, श्रद्धा' आदि सोलह कलाओं को जन्म दिया है । ५. (संरराण:) = सम्यक् रमण-क्रीडा करते हुए प्रभु इस संसार का निर्माण करते हैं। संसार को प्रभु की क्रीडा के रूप में देखना ही ठीक रूप में देखना है। यही तत्त्वज्ञान है। इस तत्त्वज्ञानवाला व्यक्ति कष्टों से ऊपर उठ जाता है। खेल में लगी चोट क्रोध का कारण नहीं बनती। उस चोट के सहने में गौरव का अनुभव होता है। देव वही हैं जो प्रभु के साथ इस क्रीडा में सम्मिलित होते हैं 'दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । देव खेलते हैं। इससे वे खिझते नहीं। देव ही महादेव का सान्निध्य प्राप्त करते हैं। ये स्वयं उस ब्रह्म- जैसे बन जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-संसार को प्रभु की क्रीड़ा के रूप में देखना ही तत्त्वज्ञान है। प्रभु ने जिन तीन ज्योतियों को धारण किया है, उन्हीं को धारण करना कल्याण का मार्ग है।

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    मन्त्रार्थ

    (किञ्च जातं यस्मात् पुरा न-एव) कुछ भी उत्पन्न वस्तु जिससे पूर्व नहीं (यः-विश्वा भुवनानि-आबभूव) जो सारे-लोक लोकान्तरों को छाया हुआ है (प्रजापतिः प्रजया संरराण: त्रीणि ज्योतींषि सचते) प्रजायमान उत्पन्न हुई वस्तुमात्र का पालक या स्वामी परमात्मा उत्पन्न सृष्टि के साथ संसक्त संयुक्त हुआ तीन ज्योतियों को समवेत होता है उनमें प्राप्त होता है (सः-षोडशी) वह विश्व के अङ्गभूत, प्रश्नोपनिषद् में कही प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु आदि सोलह कलाओं वाला है या छान्दोग्योपनिषद में कही पूर्व दिशा आदि कलाओं से युक्त चार पादों-की सोलह कलाओं वाला है ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वर अनादी असल्यामुळे त्याच्यापेक्षा प्रथम असे काहीच नसते. तोच सर्व लोकांमध्ये व्याप्त असून, जीवांचे कर्म पाहतो व त्यानुसार फळ देतो आणि न्याय करतो. प्राण इत्यादी सोळा वस्तू त्याने बनविलेल्या आहेत त्यामुळे त्याला षोडशी म्हणतात. (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायू, अग्नी, जल, पृथ्वी, इंद्रिये, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम) या सोळा कला प्रश्नोपनिषदामध्ये आहेत. हे षोडश वस्तूरूपी जग परमेश्वरामध्ये आहे व तोच त्यांचे पालन करतो.

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    विषय

    पुन्हा, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यस्मात्) ज्या परमेश्‍वरा (पुरा) पूर्वी (किम्, चन) काहीही (न, जातम्) उत्पन्न झाले नाही (तो नित्य असल्यामुळे त्याची उत्पत्ती शक्य नाही, आणि त्या नित्य सत्तेने उत्पत्ति केल्यानंतरच सृष्टीनिर्मिती झाली) (दः) तोच सर्व ठिकाणी (आबभूव) पूर्णतः विद्यमान आहे (विश्‍वा) त्याच्यामुळेच (सर्व) सर्व (भुवनानि) लोक-लोकांतर आपल्यातील पदार्थांचा आधार म्हणून विद्यमान आहेत. (सः व) तोच (षोडशी) सोळा कलायुक्त असून (प्रजया) प्रजा (म्हणजे सर्व चेतन-जड सृष्टी सह) (सम्, रवाण्) सम्यक् प्रकारे रमण करीत तो (प्रजापतिः) प्रजारक्षक परमात्मा (त्रीणि)तीन (ज्योतिंषि तेजोमय विद्युत, सूर्य चंद्ररूप प्रकाशमान ज्योतीना (सचते) सहयुक्त करतो (त्याच्या महिमेमुळेच सूर्य-चंद्र, विद्युत एकमेकाशी सहकार्य करीत कार्यरत आहेत) ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वर अनादि असल्यामुळे त्याच्याही आधी वा पूर्वी काही असू शकत नाही. तोच सर्व प्रजांमधे व्याप्त असून जीवांची कर्में पाहतो, त्यानुसार कर्मफळ देत न्याय करीत असतो. त्याने प्राण आदी सोळा वस्त्र निर्माण केल्यामुळे त्याला षोडशी म्हणतात. (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायू, अग्नी, जल, पृथ्वी, इंद्रियें, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक आणि नाम) या षोडश कलांचा उल्लेख प्रश्‍नोपनिषद्मधे आहे. या सर्व षोडश वस्तूमय परमात्म्यामधे आहेत. त्यानेच त्यांचे निर्माण केले आहे आणि तोच यांचे पालन करतो ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Before Whom, naught whatever sprang to being; Who with His presence aids all creatures. God, the guardian of His subjects, rejoicing in His offspring, maintains the three great Lustres. He is Shodashi.

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    Meaning

    The glorious lord is He, nothing whatever was born before Him, none of all those worlds of the universe which came into existence later. Father and sustainer, abiding and rejoicing with His creation, lord of sixteen powers of perfection, He pervades and feeds the three lights of the earth, sky and heaven, i. e. , fire, electric energy and sunlight. Note: - Sixteen seems to be the number of kalas (qualities, attributes, virtues and faculties) which comprise the model of perfection from different points of view. From Prashnopanishad, 6, 4, for example, we learn that ‘sixteen kalas’ means the sixteen creative powers of the Purusha, sixteen evolutionary stages of the created universe, and sixteen virtues, qualities and faculties of both cosmic and individual existence. These kalas are : Prana or energy and the Hiranyagarbha or the universally fertilized golden seed of the universe, shraddha or faith, akasha or space, vayu or wind energy, agni or fire and light, apah or waters, prithivi or earth, indriya or faculties of perception and volition, mana or mind, anna or food, virya or vitality of generation, tapa or discipline of inviolable austerity, mantra or knowledge or the art of living, karma or action, loka or world regions of the universe, and nama or individuality and identity. In Atharva-veda, 13, 4, 47-54, the divine virtues are described as: Shachipati or omnipotent, vibhu or infinite, prabhu or lord of all, ambha or cool as water, ama or energiser, mahasaha or constant, aruna rajata raja or brilliant, lovely and glorious, uru prithu or vast, subhu or grand, bhuva or omniscient, pratho vara or highest and best, vyacho loka or omnipresent, bhavad- vasu or lord of universal honour, idadvasu or lord of universal wealth, samyatvasu or perfectly self- controlled, and ayat-vasu or ever lustrous and honourable. Reference may be made to Satyarth Prakash, chapter I, in which Swami Dayanand has listed 108 attributive names of Ishvara. ‘Sixteen’ refers to an ideal conceptual model.

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    Translation

    Prior to whom nothing whatsoever is born and who is manifest in all the worlds; that Creator, having sixteen refinements (i. e. perfect in every respect), takes pleasure in His offerings and bears three lights. (1)

    Notes

    Ābabhuva, संभावयामास, created. Also, is manifest in. Sodasi, षोडशकलासम्पन्न:, having sixteen refinements. षोडशकलात्मकलिङ्गशरीरोपहितः (Mahidhara). Trini jyotimşi, three lights, Agni, Surya and Candramā (the moon).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়স্মাৎ) যে পরমেশ্বর হইতে (পুরা) পূর্বে (কিম্, চন) কিছুও (ন, জাতম্) উৎপন্ন হয় নাই । (য়ঃ) যিনি সব দিক (আবভূব) উত্তম প্রকারে বর্ত্তমান, যাহাতে (বিশ্বা) সকল (ভুবনানি) বস্তুগুলির আধার সমস্ত লোক-লোকান্তর বর্ত্তমান (সঃ, এব) তিনিই (ষোডশী) ষোল কলাযুক্ত (প্রজয়া) প্রজা সহ (সম্, ররাণঃ) সম্যক্ রমণ করিয়া (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক অধিষ্ঠাতা (ত্রীণি) তিন (জ্যোতীংষি) তেজোময় বিদ্যুৎ, সূর্য্য, চন্দ্র রূপ প্রকাশ জ্যোতিগুলিকে (সচতে) সংযুক্ত করে ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–ঈশ্বর অনাদি এই কারণে তাহার পূর্বে কিছুও হইতে পারে না, তিনিই সকল প্রজাদিগের মধ্যে ব্যাপ্ত জীবের কর্ম্মকে লক্ষ্য করেন এবং তদনুযায়ী ফল প্রদান করিয়া ন্যায় করেন, যিনি প্রাণাদি ষোল বস্তুগুলির নির্মাণ করিয়াছেন, এই জন্য তিনি ষোডশী নামে অভিহিত (প্রাণ, শ্রদ্ধা, আকাশ, বায়ু, অগ্নি, জল, পৃথিবী, ইন্দ্রিয়, মন, অন্ন, বীর্য্য, তপ, মন্ত্র, কর্ম, লোক-লোকান্তর ও নাম) এইগুলি ষোডশ কলা প্রশ্নোপনিষদে আছে । এই সমস্ত ষোডশ বস্তুরূপ জগৎ পরমাত্মায় আছে, তিনিই রচনা করিয়াছেন এবং তিনিই পালন করেন ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্মা॑জ্জা॒তং ন পু॒রা কিং চ॒নৈব য় আ॑ব॒ভূব॒ ভুব॑নানি॒ বিশ্বা॑ ।
    প্র॒জাপ॑তিঃ প্র॒জয়া॑ সꣳররা॒ণস্ত্রীণি॒ জ্যোতী॑ᳬंষি সচতে॒ স ষো॑ড॒শী ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্মাদিত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । পরমেশ্বরো দেবতা । ভুরিক্ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃস্বরঃ ॥

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