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यजुर्वेद अध्याय - 38

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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 14
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - द्यावापृथिवी देवते छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    2

    इ॒षे पि॑न्वस्वो॒र्जे पि॑न्वस्व॒ ब्रह्म॑णे पिन्वस्व क्ष॒त्राय॑ पिन्वस्व॒ द्यावा॑पृथिवी॒भ्यां॑ पिन्वस्व।धर्मा॑सि सु॒धर्मामे॑न्य॒स्मे नृ॒म्णानि॑ धारय॒ ब्र॒ह्म॑ धारय क्ष॒त्रं धा॑रय॒ विशं॑ धारय॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒षे। पि॒न्व॒स्व॒। ऊ॒र्जे। पि॒न्व॒स्व॒। ब्रह्म॑णे। पि॒न्व॒स्व॒। क्ष॒त्राय॑। पि॒न्व॒स्व॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। पि॒न्व॒स्व॒ ॥ धर्म॑। अ॒सि॒। सु॒धर्मेति॑ सु॒ऽधर्म॑। अमे॑नि। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। नृ॒म्णानि॑। धा॒र॒य॒। ब्रह्म॑। धा॒र॒य॒। क्ष॒त्रम्। धा॒र॒य॒। विश॑म्। धा॒र॒य॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषे पिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व ब्रह्मणे पिन्वस्व क्षत्राय पिन्वस्व द्यावापृथिवीभ्याम्पिन्वस्व । धर्मासि सुधर्मामेन्यस्मे नृम्णानि धारय ब्रह्म धारय क्षत्रन्धारय विशन्धारय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इषे। पिन्वस्व। ऊर्जे। पिन्वस्व। ब्रह्मणे। पिन्वस्व। क्षत्राय। पिन्वस्व। द्यावापृथिवीभ्याम्। पिन्वस्व॥ धर्म। असि। सुधर्मेति सुऽधर्म। अमेनि। अस्मेऽइत्यस्मे। नृम्णानि। धारय। ब्रह्म। धारय। क्षत्रम्। धारय। विशम्। धारय॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे धर्म सुधर्म पुरुष वा स्त्रि वा! त्वममेन्यसि येनाऽस्मे नृम्णानि धारय, ब्रह्म धारय, क्षत्रं धारय, विशं धारय, तेनेषेपिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व, ब्रह्मणे पिन्वस्व, क्षत्राय पिन्वस्व, द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व॥१४॥

    पदार्थः

    (इषे) अन्नाद्याय (पिन्वस्व) सेवस्व (ऊर्जे) बलाद्याय (पिन्वस्व) (ब्रह्मणे) वेदविज्ञानाय परमेश्वराय वेदविदे ब्राह्मणाय वा (पिन्वस्व) (क्षत्राय) राज्याय (पिन्वस्व) (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमिसूर्य्याभ्याम् (पिन्वस्व) (धर्म) सत्यधारक (असि) (सुधर्म) शोभनो धर्मो यस्य तत्सम्बुद्धौ (अमेनि) अहिंसकः सन्। अत्र सुपां सुलुग् [अ॰७.१.३९] इति सुलोपः। (अस्मे) अस्मभ्यम् (नृम्णानि) धनानि (धारय) (ब्रह्म) वेदं ब्राह्मणं वा (धारय) (क्षत्रम्) राज्यं वा (धारय) (विशम्) प्रजाम् (धारय)॥१४॥

    भावार्थः

    ये स्त्रीपुरुषा अहिंसका धार्मिकाः सन्तः स्वयं धनानि विद्यां राज्यं प्रजां च धृत्वाऽन्यान् धारयेयुस्तेऽन्नबलविद्याराज्यानि प्राप्य भूमिसूर्य्यवद् दृष्टसुखा जायेरन्॥१४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (धर्म) सत्य के धारक (सुधर्म) सुन्दर धर्मयुक्त पुरुष वा स्त्री! तू (अमेनि) हिंसा धर्म से रहित (असि) है, जिससे (अस्मे) हमारे लिये (नृम्णानि) धनों को (धारय) धारण कर (ब्रह्म) वेद वा ब्राह्मण को (धारय) धारण कर (क्षत्रम्) वा राज्य को (धारय) धारण कर (विशम्) प्रजा को (धारय) धारण कर, उससे (इषे) अन्नादि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ऊर्जे) बल आदि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ब्रह्मणे) वेद विज्ञान परमेश्वर वा वेदज्ञ ब्राह्मण के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (क्षत्राय) राज्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर और (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमि और सूर्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर॥१४॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष अहिंसक धर्मात्मा हुए आप ही धन, विद्या, राज्य और प्रजा को धारण करें, वे अन्न, बल, विद्या और राज्य को पाकर भूमि और सूर्य के तुल्य प्रत्यक्ष सुखवाले होवें॥१४॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे सर्वसौख्यप्रदेश्वर ! हमको (इषे) उत्तमान्न के लिए (पिन्वस्व) पुष्ट कर, अन्न के अपचन के रोगों से बचा तथा विना अन्न के दुःखी हम लोग कभी न हों । हे महाबल! (ऊर्जे) अत्यन्त पराक्रम के लिए हमको (पिन्वस्व) पुष्ट कर । हे वेदोत्पादक! (ब्रह्मणे) सत्य वेदविद्या की प्राप्ति के लिए बुद्ध्यादि बल से हमको सदैव (पिन्वस्व) पुष्ट और बलयुक्त कर । हे महाराजाधिराज परब्रह्मन्! (क्षत्राय) अखण्ड चक्रवर्ती राज्य के लिए, शौर्य, धैर्य, नीति, विनय, पराक्रम और उत्तम गुणयुक्त बलादि से स्वकृपा से हम लोगों को यथावत् (पिन्वस्व) पुष्ट कर | अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों। हे स्वर्गपृथिवीश!(द्यावापृथिवीभ्याम्) स्वर्ग [परमोत्कृष्ट मोक्षसुख] पृथिवी [संसारसुख] इन दोनों के लिए हमको (पिन्वस्व) समर्थ कर । हे सुष्ठु धर्मशील ! तू (धर्म असि) धर्मकारी है तथा (सुधर्म) धर्मस्वरूप ही है। हम लोगों को भी अपनी कृपा से धर्मात्मा कर । (अमेनि) तुम निर्वैर हो, हमको भी निर्वैर कर तथा स्वकृपादृष्टि से (अस्मे) [अस्मभ्यम्] हमारे लिए (नृम्णानि) विद्या, पुरुषार्थ, हस्ती, अश्व, सुवर्ण, हीरादि रत्न, उत्कृष्ट राज्य, उत्तम पुरुष और प्रीत्यादि पदार्थों को (धारय) धारण कर, जिससे हम लोग किसी पदार्थ के विना दुःखी न हों । हे सर्वाधिपते!(ब्रह्म=धारय) ब्राह्मण=पूर्णविद्यादि सद्गुणयुक्त (क्षत्रं धारय) क्षत्रिय बुद्धि, विद्या तथा शौर्यादि गुणयुक्त (विशं धारय) वैश्य अनेक विद्योद्यम, बुद्धि, विद्या, धन और धान्यादि वस्तुयुक्त तथा (शूद्रादि) भी सेवादि गुणयुक्त हमारे राज्य में हों। ये सब स्वदेशभक्त उत्तम हों, इन सबका (धारय) धारण आप ही करो, जिससे हमारा अखण्ड ऐश्वर्य आपकी कृपा से सदा बना रहे ॥ ३१ ॥

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    विषय

    पृथ्वी स्त्री का समान वर्णन।

    भावार्थ

    हे तेजस्वी पुरुष ! तू (इषे) अन्न की वृद्धि के लिये प्रजावर्ग को (पिन्वस्व) पुष्ट कर । (ऊर्जे पिन्वस्व) बल पराक्रम के लिये पुष्ट कर। (ब्रह्मणे पिन्वस्य) ब्रह्म, वेद और वेदज्ञ ब्राह्मणों की वृद्धि के लिये पुष्ट कर। ( क्षत्राय पिन्वस्व ) क्षात्रबल और क्षत्रियों की वृद्धि के लिये पुष्ट कर (द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व) सूर्य, पृथिवी और उनके समान स्त्री और पुरुषों की वृद्धि के लिये भी पुष्ट कर । हे राजन् ! (धर्मा असि) समस्त राष्ट्र को धारण करने में समर्थ होने से तु 'धर्मा' है । ( सुधर्मा असि ) उत्तम रीति से धारण में शक्तिमान् होने से तूं 'सुधर्मा' है । तु (अमेनिः असि) हिंसारहित हो । (अस्मे) हमें (नृम्णानि ) मनुष्यों के हितकारी ऐश्वर्य (धारय) धारण करा । (ब्रह्म धारय) वेद और वेदज्ञ ब्राह्मण वर्ग को धारण कर ( क्षत्रम् ) वीर्य, वीर्यवान् वीर पुरुषों को धारण कर ।। (विशं धारय) वैश्य प्रजा को धारण कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्यावापृथिव्यौ । अतिशंक्वरी । पंचमः ॥

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    पदार्थ

    १. (इषे) = प्रेरणा के लिए (पिन्वस्व) = [To urge on] अपने को उत्साहित कर, अर्थात् तुझे प्रबल इच्छा हो कि मैं प्रभु प्रेरणा को सुननेवाला बनूँ। २. (ऊर्जे पिन्वस्व) = बल और प्राणशक्ति के लिए उत्साह को धारण कर । तुझमें यह भावना हो कि मैं प्रभु की प्रेरणा को सुनूँ और उस प्रेरणा को क्रियारूप में लाने के लिए शक्तिशाली होऊँ। मुझमें प्रेरणा के अनुसार कार्य करने का सामर्थ्य हो । ३. (ब्रह्मणे पिन्वस्व) = ज्ञान के लिए उत्साहित हो, ४. (क्षत्राय) = बल के लिए (पिन्वस्व) = उत्साहित हो। तेरी प्रार्थना का स्वरूप ही यह हो कि ('इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम्') मेरे ब्रह्म व क्षत्र दोनों ही फूलें-फलें, परन्तु इस संसार में केवल ज्ञान और बल जीवन यात्रा के संचालन के लिए पर्याप्त नहीं है, उसके लिए भौतिक वस्तुओं की भी उतनी ही आवश्यकता है, अतः कहते हैं कि ५. (द्यावापृथिवीभ्याम्) = द्युलोक से पृथिवीलोक तक इन भौतिक वस्तुओं के लिए भी (पिन्वस्व) = उत्साह धारण कर। यही भावना मन्त्र की समाप्ति पर 'विशं धारय' इन शब्दों से व्यक्त हो रही है। वस्तुतः संसार- यात्रा में धन का भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, परन्तु इस धन को अन्याय मार्ग से नहीं कमाना है, अतः कहते हैं कि ६. (धर्म असि) = हे जीव ! तू मूर्त्तिमान् धर्म है, धर्म ही नहीं (सुधर्म असि) = तू उत्तम धर्म है, अतः तूने सुपथ से ही धन कमाना है। (अमेनि असि) = तू अहिंसक है औरों की हिंसा करके कभी भी धनार्जन नहीं करता। इस प्रेरणा को सुनकर 'दीर्घतमा' मन्त्र का ऋषि जिसने अज्ञान का विद्रावण किया है, प्रभु से प्रार्थना करता है-७. (अस्मे) = हमारे लिए (नृम्णानि) = धनों को (धारय) = धारण कीजिए ८. (ब्रह्मधारय) = ज्ञान को धारण कीजिए ९. क्षत्रं धारय-बल को धारण कीजिए १०. और विशं धारय ' कृषिगोरक्षा व वाणिज्य' रूप वैश्यकर्म को भी धारण कीजिए, जिससे ज्ञान प्राप्त करके और शक्तिशाली बनकर हम न्याय मार्गों से ही धनार्जन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु प्रेरणा को सुनकर, उस प्रेरणा को क्रिया में परिणत करने की शक्तिवाले बनें, ज्ञान-बल व धन तीनों का अपने में सुन्दर समन्वय करके अपने जीवन को सुखी व सफल बनाएँ।

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    जे स्री-पुरुष अहिंसक व धर्मात्मा असतात ते स्वतः धन, विद्या, राज्य व प्रजा यांना धारण करतात. त्यांना अन्न, बळ, विद्या व राज्य प्राप्त होऊन भूमी व सूर्याप्रमाणे ते प्रत्यक्ष सुखकारक असतात.

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    विषय

    पुन्हा, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (धर्म) सत्याचे धारक (सत्यवादी) (सुधर्म) सद्धर्माचे पालक महोदय, अथवा हे महिला महोदया, तुम्ही (अमेनि) हिंसा धर्मरहित, अहिंसकवृत्तीचे (असि) आहातः) आपण (अस्मे) आच्यासाठी (नृम्णानि) धन-संपदा (धारय) धारण करा वा द्या. (ब्रह्म) वेदाला अथवा ब्रह्मणाला (धारय) धारण करा (त्यांचे रक्षण करा) (क्षत्रम्) क्षत्रियाला राजयला (धारय) धारण करा (त्याचे पालन, रक्षण करा) (विशम्) प्रजेला (धारय) धारण (पालन) कर (इषे) अन्न आदी करिता (पिन्वस्व) यत्न करून त्याचे सेवन कर. (ऊर्जे) शक्तीसाठी (पिन्वस्व) यत्न करून त्याचे सेवन कर. (ब्रह्मणे) वेदज्ञान, परमेश्‍वर अथवा वेदज्ञ ब्राह्मणासाठी (पिन्वस्व) यत्नकर व संतुष्ट हो. (क्षत्राय) राज्यप्राप्तीसाठी (पिन्वस्व) यत्न कर व सेवन कर. (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमी व सूर्यासाठी (पिन्वस्व) (त्यांच्यापासून लाभ घेण्याचे) यत्न कर (आणि संतुष्ट हो) ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जा स्त्री-पुरुष वा पती-पत्नी स्वतः अहिंसक, धार्मिक वृत्ती अनुसरुन धन, विद्या, राज्य आणि प्रजा (संतान) यांचे (अर्जन, पालन व रक्षण करतात, ) धारण करतात, ते अन्न-धान्य, बल, विद्या आणि राज्य यांना प्राप्त करून सर्वाना तद्वत सुखी करतात की जसे सूर्य आणि भूमी सर्वांसाठी सुखकर आहेत. ॥14॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे सर्व सुख देणारया ईश्वरा! (इषे) आम्हाला उत्तम अन्न देऊन आमचे पोषण कर, अपचन अथवा अजीर्ण या रोगांपासून तू आम्हाला वाचव. अन्नावाचून आम्ही दुःखी होता कामा नये, हे महाबली! (ऊर्जे) आम्ही अत्यंत पराक्रमी बनावे म्हणून आम्हाला पुष्ट कर. (ब्रह्मणे) हे वेदांची उत्पत्ती करणाऱ्या! ईश्वरा सत्य वेद विद्येसाठी बुद्धीचे बळ दे. हे महाराजाधिराजा! परमब्रम्हा! (क्षत्राय) एकछत्री चक्रवर्ती राज्य स्थापन करण्यासाठी शौर्य, धैर्य, नीती, विनय, पराक्रम आणि बळ इत्यादी गुणांचे संवर्धन व्हावे अशा रीतीने आम्हाला पुष्ट कर. अन्य देशांच्या राजांनी आम्हाला कधीही पराधीन करता कामा नये. हे स्वर्ग ब पृथ्वीच्या ईश्वरा! (द्यावापृथिवीभ्याम्) स्वर्ग [परम उत्कृष्ट मोक्षसुख] पृथ्वी [संसारसुख] या दोहोंसाठी आम्हाला सामर्थ्य दे. हे धर्मशीलयुक्त ईश्वरा तू धार्मिक व धर्मस्वरूप आहेस. आम्हाला ही कृपा करून धर्मात्मा बनव. (अमेनि) तू निवैर आहेस. आम्हालाही निवैर कर. (नृम्णानि) तुझ्या कृपेने आम्हाला विद्या, पुरुषार्थ, हत्ती, घोडे, सोने, हिरे इत्यादी रत्ने, उत्कृष्ट राज्य व उत्तम पुरुष आणि प्रेम मिळू दे. त्यांच्या विना आम्ही दुःखी होता कामा नये. हे सर्वाधिपते! आमच्या राज्यात ब्राह्मण [संपूर्ण विद्या व सदगुणयुक्त] क्षत्रिय [बुद्धि, विद्या शौर्यानी युक्त] “विश” अनेक विद्यायुक्त उद्योग, बुद्धि, विद्या, धन, ब धान्य इत्यादींनी युक्त लोक व सेवा करणारे शूद्र असावेत. या सर्वांचे धारण तू कर व ज्यामूळे आमचे अखंडित ऐश्वर्य नेहमी टिकावे अशी कृपा कर.॥३१॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O husband or wife, the recipient of truth, religious minded, thou art free from violence, hence establish wealth for us, learn the Veda, acquire sovereignty, and preserve the subjects. Hence enjoy overflow for food, enjoy overflow for vedic knowledge and God, enjoy overflow for energy, enjoy overflow for vedic knowledge and God, enjoy overflow for political power, enjoy overflow for Heaven and Earth.

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    Meaning

    Man of yajnic power, grow for the growth of food. Grow for the growth of energy. Grow for the growth and expansion of divine knowledge. Grow for the strength and protection of the social system. Grow for the growth and protection of the earth and the environment. You are Dharma, the sustainer. You are Sudharma, noble ruler and sustainer. You are the man of love and non-violence. Hold and bring the wealths of life for us. Sustain and support research, education and the Brahmana. Support and strengthen organisation, governance and the Kshatriya. Govern, support and promote the economic system and the Vaishya producer of wealth.

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    Purport

    Bestower of health and happiness O God ! Provide us excellent food for the nourishment of our bodies. Kindly save us from the diseases caused by indigestion. We should never suffer from lack of food. O the Possessor of great Might! Nourish us for mighty valour. O the revealer of the Vedas! For attaining true Vedic knowledge make us stout and strong with the power of intellect etc. O the King of the kings! The Supreme Spirit! For acquiring an unbroken, uniterrupted entirely sovereign imperial sway instil in us by Your grace valour, perseverance, political wisdom, modesty, prowess, and physical strength of excellent qualities. The king of another country should never rule over us and we should never be enslaved by foreigners. O the ruler of the heaven and the earth ! Make us able to acquire both the th the supreme bliss of final emancipation and worldly pleasures. O Exceedingly Virtuous ! You are performer of righteous acts, nay You are Absolute Righteous by Your very nature. By Your grace enable us also to be righteous. You are free from enmity, make us also free from ill-will, hatred. hatred. By Your grace, bestow upon us wisdom, diligence, horses, gold, jems like diamond, excellent kingdom, good men. Be kind so that we may love each other. Moreover we should never suffer due to lack of anything. O the Lord of all ! In our country the Brāhmaṇās [Intellectuals] should be posseessors of good virtues like complete learning. May our warriors and administrators should be endowed with wisdom-fore-sight knowledge and other virtues like valour etc. May our businessmen, industrialists and peasants be possessed of knowledge of various sciences and industry and also be equipped with wisdom, wealth and cereals. Our labourers should have the qualities of serving the country-men. All the aforesaid patriots should be excellent in virtues and be patriots. Bestow all these things on us, so that by your grace our might, power, wealth, greatness, divine qualities may ever continue prospering uninterrupted. 

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    Translation

    O sacrifice, may you flourish for food. (1) May you flourish for vigour. (2) May you flourish for intellectual power. (3) May you flourish for princely power. (4) May you flourish for the heaven and earth. (5) O pious one, you are the piety itself. (6) May you grant us riches unblemished with violence. Sustain our intellectuals; sustain our warrior-administrators; sustain our wealth-producers. (7)

    Notes

    Pinvasva, पुष्टो भव , may flourish. Dharma, piety incarnate. Sudharmā, pious one. Nṛmṇāni, धनानि, riches. Ameni, unblemished with vio lence. From √ मीङ् हिंसायाम्, to injure. Brahma, Kşatrain, Višam, intellectual power, ruling power, wealth-producing power. (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) ।

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ধর্ম) সত্যের ধারক (সুধর্ম) সুন্দর ধর্মযুক্ত পুরুষ বা স্ত্রী ! তোমরা (অমেনি) হিংসা ধর্ম হইতে রহিত (অসি) আছো যদ্দ্বারা (অস্মে) আমাদের জন্য (নৃম্ণানি) ধনসমূহকে (ধারয়) ধারণ কর (ব্রহ্ম) বেদ বা ব্রাহ্মণকে (ধারয়) ধারণ কর (ক্ষত্রম্) ক্ষত্রিয় বা রাজ্যকে (ধারয়) ধারণ কর (বিশম্) প্রজাকে (ধারয়) ধারণ কর, তদ্দ্বারা (ইষে) অন্নাদি হেতু (পিন্বস্ব) সেবন কর (ঊর্জে) বলাদির জন্য (পিন্বস্ব) সেবন কর (ক্ষত্রায়) রাজ্য হেতু (পিন্বস্ব) সেবন কর এবং (দ্যাবাপৃথিবীভ্যাম্) ভূমিও সূর্য্যের জন্য (পিন্বস্ব) সেবন কর ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব স্ত্রী-পুরুষ অহিংসক ধর্মাত্মা হইয়া স্বয়ংই ধন, বিদ্যা, রাজ্য ও প্রজাকে ধারণ করিবে তাহারা অন্ন, বল, বিদ্যা ও রাজ্যকে প্রাপ্ত হইয়া ভূমিও সূর্য্য তুল্য প্রত্যক্ষ সুখযুক্ত হইবে ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒ষে পি॑ন্বস্বো॒র্জে পি॑ন্বস্ব॒ ব্রহ্ম॑ণে পিন্বস্ব ক্ষ॒ত্রায়॑ পিন্বস্ব॒ দ্যাবা॑পৃথিবী॒ভ্যাং॑ পিন্বস্ব । ধর্মা॑সি সু॒ধর্মামে॑ন্য॒স্মে নৃ॒ম্ণানি॑ ধারয়॒ ব্র॒হ্ম॑ ধারয় ক্ষ॒ত্রং ধা॑রয়॒ বিশং॑ ধারয় ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইষে পিন্বস্বেত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । দ্যাবাপৃথিবী দেবতে । অতিশক্বরী ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे सर्वसौख्यप्रदेश्वर ! हामीलाई इषे = उत्तम अन्नका लागी पिन्वस्व = पुष्ट गर, अन्न को अपचन सम्बन्धि रोग हरु बाट बचाऊ तथा हामीहरु अन्न को अभाव ले कहिल्यै दुःखी नहीं । हे महाबल! ऊर्जे=अत्यन्त पराक्रम का लागी हामीलाई पिन्वस्व= पुष्ट गर । हे वेदोत्पादक ! ब्रह्मणे = सत्य वेद विद्या लाई प्राप्त गर्नका लागी बुद्धि आदि बल द्वारा हामीलाई सदैव पिन्वस्व = पुष्ट र बलयुक्त गर। हे महाराजाधिराज परब्रह्मन् ! क्षत्राय = अखण्ड चक्रवर्ती राज्य का लागी, शौर्य, धैर्य, नीति, विनय, पराक्रम र उत्तम गुण युक्त बल आदि बाट स्वकृपा ले हामीहरुलाई यथावत् पिन्वस्व = पुष्ट गर । अन्य देशवासी राजा हाम्रो देश मा कहिल्यै न हुन् । तथा हामीहरु कहिल्यै पराधीन न हौं । हे स्वर्गपृथिवीश ! द्यावापृथिवीभ्याम् = स्वर्ग [परमोत्कृष्ट मोक्ष सुख ] पृथिवी [ संसार सुख] ई दुवै का लागी हामीलाई पिन्वस्व = समर्थ गर । हे सुष्ठु धर्मशील ! तिमी धर्म असि=धर्मकारी हौ तथा सुधर्म = धर्मस्वरूप हौ । हामीहरुलाई पनि आफ्नो कृपा ले धर्मात्मा बनाऊ । अमेनि= तिमी निर्वैर हौं, हामीलाई पनि निर्वैर बनाऊ र स्वकृपा दृष्टि ले अस्मे = [अस्मभ्यम् ] हाम्रा लागी नृम्णानि = विद्या, पुरुषार्थ, हात्ती, घोडा, सुवर्ण, हीरादिरत्न, उत्कृष्ट राज्य, उत्तम पुरुष र प्रीत्यादि पदार्थ हरु लाई धारय धारण गराऊ, जसले हामीहरु कुनै पदार्थ को अभाव मा दुःखी नहौं । हे सर्वाधि पते ! ब्रह्म-धारय = ब्राह्मण = पूर्णविद्यादि सद्गुण युक्त हुन्, क्षत्रं धारय= क्षत्रिय - बुद्धि, विद्यादि तथा शौर्यादि गुणयुक्त हुन्, विशं धारय - वैश्य - अनेक विद्या मा-उद्यम, बुद्धि, धन, एवं धान्यादि वस्तुयुक्त हुन् । तथा 'शूद्रादि' पनि सेवादि गुण हरु ले युक्त हाम्रो राज्य मा हुन् । ई सबै उत्तम स्वदेश भक्त हुन्, इनिहरु सबैलाई धारय- तपाईं नै धारण गर्नु होस्, जसले हाम्रो अखण्ड ऐश्वर्य तपाईंको कृपा ले सदा वर्तमान रहोस् ॥३१॥

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