यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 5
प्र॒जाप॑तिः सम्भ्रि॒यमा॑णः स॒म्राट् सम्भृ॑तो वैश्वदे॒वः स॑ꣳस॒न्नो घ॒र्मः प्रवृ॑क्त॒स्तेज॒ऽउद्य॑तऽआश्वि॒नः पय॑स्यानी॒यमा॑ने पौ॒ष्णो वि॑ष्य॒न्दमा॑ने मारु॒तः क्लथ॑न्। मै॒त्रः शर॑सि सन्ता॒य्यमा॑ने वाय॒व्यो ह्रि॒यमा॑णऽआग्ने॒यो हू॒यमा॑नो॒ वाग्घु॒तः॥५॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। स॒म्भ्रि॒यमा॑ण॒ इति॑ सम्ऽभ्रि॒यमा॑णः। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। सम्भृ॑त॒ इति॒ सम्ऽभृ॑तः। वैश्व॒दे॒व इति॑ वैश्वऽदे॒वः। स॒ꣳस॒न्न इति॑ सम्ऽस॒न्नः। घ॒र्मः। प्रवृ॑क्त॒ इति प्रऽवृ॑क्तः। तेजः॑। उद्य॑त॒ इत्युत्ऽय॑तः। आ॒श्वि॒नः। प॑यसि। आ॒नी॒यमा॑न॒ इत्या॑ऽनी॒यमा॑ने। पौ॒ष्णः। वि॒ष्य॒न्दमा॑ने। वि॒स्य॒न्दमा॑न॒ इति॑ विऽस्य॒न्दमा॑ने। मा॒रु॒तः। क्लथ॑न् ॥ मै॒त्रः। शर॑सि। स॒न्ता॒य्यमा॑न॒ इति॑ सम्ऽता॒य्यमा॑ने। वा॒य॒व्यः᳖। ह्रि॒यमा॑णः। आ॒ग्ने॒यः। हू॒यमा॑नः। वाक्। हु॒तः ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिः सम्भ्रियमाणः सम्राट्सम्भृतो वैश्वदेवः सँसन्नो घर्मः प्रवृक्तस्तेजऽउद्यतऽआश्विनः पयस्यानीयमाने पौष्णो विष्पन्दमाने मारुतः क्लथन् । मैत्रः शरसि संताय्यमाने वायव्यो हि््रयमाण आग्नेयो हूयमानो वाग्घुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। सम्भ्रियमाण इति सम्ऽभ्रियमाणः। सम्राडिति सम्ऽराट्। सम्भृत इति सम्ऽभृतः। वैश्वदेव इति वैश्वऽदेवः। सꣳसन्न इति सम्ऽसन्नः। घर्मः। प्रवृक्त इति प्रऽवृक्तः। तेजः। उद्यत इत्युत्ऽयतः। आश्विनः। पयसि। आनीयमान इत्याऽनीयमाने। पौष्णः। विष्यन्दमाने। विस्यन्दमान इति विऽस्यन्दमाने। मारुतः। क्लथन्॥ मैत्रः। शरसि। सन्ताय्यमान इति सम्ऽताय्यमाने। वायव्यः। ह्रियमाणः। आग्नेयः। हूयमानः। वाक्। हुतः॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! येनेश्वरेण सम्भ्रियमाणः सम्राड् वैश्वदेवः संसन्नो घर्मस्तेजः प्रवृक्त उद्यत आश्विना आनीयमाने पयसि पौष्णो विस्यन्दमाने मारुतः क्लथन् मैत्रः सन्ताय्यमाने शरसि वायव्यो ह्रियमाण आग्नेयो हूयमानो वाग्घुतः प्रजापतिः सम्भृतोऽस्ति, तमेव परमात्मानं यूयमुपाध्वम्॥५॥
पदार्थः
(प्रजापतिः) प्रजायाः पालको जीवः (सम्भ्रियमाणः) सम्यक् पोष्यमाणो भ्रियमाणो वा (सम्राट्) यः सम्यग्राजते सः (संभृतः) सम्यक् पोषितो धृतो वा (वैश्वदेवः) विश्वेषां देवानां दिव्यानां जीवानां पदार्थानां वा यः सम्बन्धी (संसन्नः) सम्यक् गच्छन् (घर्मः) (प्रवृक्तः) शरीरात् पृथक् भूतः (तेजः) (उद्यतः) ऊर्ध्वं गच्छन् (आश्विनः) आश्विनोः प्राणापानगत्योरयं सम्बन्धी (पयसि) उदके (आनीयमाने) समन्तात् प्राप्ते (पोष्णः) पूष्णः पृथिव्या अयं सम्बन्धी (विस्यन्दमाने) विशेषेण गम्यमाने (मारुतः) मनुष्यदेहानामयम् (क्लथन्) हिंसां कुर्वन् (मैत्रः) मित्रास्यायं सम्बन्धी (शरसि) तडागे (सन्ताय्यमाने) विस्तार्यमाणे पाल्यमाने वा (वायव्यः) वायौ भवः (ह्रियमाणः) यो ह्रियते सः (आग्नेयः) अग्निदेवताकः (हूयमानः) शब्द्यमानः (वाक्) यो वदति सः (हुतः) शब्दितः॥५॥
भावार्थः
यदायं जीवो देहं त्यक्त्वा सर्वेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु भ्रमन् यत्र कुत्र प्रविशन् यतस्ततो गच्छन् कर्मानुसारेणेश्वरव्यवस्थया जन्म प्राप्नोति, तदैव सुप्रसिद्धो भवति॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जिस ईश्वर ने (सम्भ्रियमाणः) सम्यक् पोषण वा धारण किया हुआ (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशमान (वैश्वदेवः) सब उत्तम जीव वा पदार्थों के सम्बन्धी (संसन्नः) सम्यक् प्राप्त होता हुआ (घर्मः) घाम रूप (तेजः) प्रकाश तथा (प्रवृक्तः) शरीर से पृथक् हुआ (उद्यतः) ऊपर चलता हुआ (आश्विनः) प्राण-अपान सम्बन्धी तेज (आनीयमाने) अच्छे प्रकार प्राप्त हुए (पयसि) जल में (पौष्णः) पृथिवी सम्बन्धी तेज (विस्यन्दमाने) विशेषकर प्राप्त हुए समय में (मारुतः) मनुष्यदेहसम्बन्धी तेज (क्लथन्) हिंसा करता हुआ (मैत्रः) मित्र प्राणसम्बन्धी तेज (सन्ताय्यमाने) विस्तार किये वा पालन किये (शरसि) तालाब में (वायव्यः) प्राणसम्बन्धी तेज (ह्रियमाणः) हरण किया हुआ (आग्नेयः) अग्निदेवतासम्बन्धी तेज (हूयमानः) बुलाया हुआ (वाक्) बोलनेवाला (हुतः) शब्द किया तेज और (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जीव (सम्भृतः) सम्यक् पोषण वा धारण किया है, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो॥५॥
भावार्थ
जब यह जीव शरीर छोड़ कर सब पृथिव्यादि पदार्थों में भ्रमण करता जहां-तहां प्रवेश करता और इधर-उधर जाता हुआ कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से जन्म पाता है, तब ही सुप्रसिद्ध होता है॥५॥
विषय
प्रजापति प्रभु और परमेश्वर के नाना गुण कर्म स्वभावानुसार नाना नाम ।
भावार्थ
( संर्भियमाणः ) प्रजाएं जब राजा को नाना ऐश्वर्यों से पुष्ट करती हैं तब वह (प्रजापतिः ) प्रजा का पालक होने से 'प्रजापति' है । (सम्भृताः सम्राट ) वह अच्छी प्रकार परिपुष्ट हो जाता है तब वह प्रजा में उत्तम रीति से सर्वत्र ऐश्वर्य से प्रकाशित होने से 'सम्राट् ' है । (संसन्नः वैश्वदेवः) अच्छी प्रकार राजसभा में विराज कर समस्त विद्वानों से आदर पाने के कारण 'वैश्वदेव' है । (प्रविक्तः धर्मः) ऊंचे आसन को प्राप्त होकर वह तेजस्वी होने से 'धर्म' है । (उद्यतः तेजः) उन्नत पद पर स्थिर होकर वह तेजस्वी एवं तीक्ष्ण स्वभाव होने से 'तेज' या सूर्य के समान है । ( पयसि आश्विनः ) जल द्वारा अभिषेक कर लेने पर स्त्री पुरुष अथवा राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों द्वारा अभिषित होने के कारण वह 'आश्विन' है | ( विस्यन्दमाने पौष्ण: ) विशेषरूप से वेग से गमन करते हुए वह राजा पृथिवी के हित के लिये प्रवृत्त होने के कारण 'पौष्ण' है । (क्लथन् मारुत्) जब वह शत्रुओं का नाश कर रहा होता है तब वह मारने वाले सैनिकों का स्वामी होने से 'मारुत' है । (शरसि संताय्यमाने मैत्रः) शत्रुनाशक सेनाबल के स्थान स्थान पर विस्तृत कर देने पर अथवा जलाशय, तड़ाग आदि कृषि के साधनों के फैला देने पर वह (मैत्रः) प्रजा के प्रति स्नेहवान् और प्रजा को भरण पोषण से रक्षा करने वाला होने से वह सूर्य के समान तेजस्वी राजा 'मित्र' है । (वायव्य : हियमाणः ) वेग से युद्धक्षेत्र में स्थादि साधनों से जाता हुआ वह 'वायु' के समान तीव्रगामी होकर शत्रु की जड़ों को हिला देने वाला होने से 'वायव्य ' है । (हूयमानः आग्नेयः) वह बराबर शत्रु के ऐश्वर्यों से उनके शरीर से मानो आहुति पाता हुआ, अनि के समान प्रचण्ड होने के कारण 'आग्नेय' है । (हुत: चाक् ) सब प्रजाओं द्वारा अपना राजा स्वीकार किया जाकर, सबको आज्ञा देने वाला होने से 'वाक्' स्वरूप है । वह सबको आज्ञा देता है । इस प्रकार ये १२ स्वरूप राजा के समझने चाहिये ।
टिप्पणी
५ – विष्कन्दयाव० इतं काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्महावीरः । कृतिः । निषादः ॥
विषय
उत्तम कर्म- श्रेष्ठ जन्म
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र में कौन व्यक्ति किस प्रकार का जन्म लेता है यह वर्णन है। सामान्यतः १२ भागों में बाँटकर यह बात यहाँ प्रस्तुत की गई है। १. (सम्भ्रियमाणः) = जिस व्यक्ति में 'माता-पिता अचार्य-अतिथि' आदि देवों ने अच्छाई को भरने को प्रयत्न किया-जो अच्छाइयों से भरा हुआ रहा वह (प्रजापतिः) = प्रजा का रक्षक-उत्तम सन्तानोंवाला, अर्थात् एक सद्गृहस्थ बनता है। २. (सम्भृतः) = जिसके अन्दर सब उत्तमताओं को भर दिया गया वह (सम्राट्) = सम्राट् बनता है। राष्ट्र में सबसे अधिक दीप्त होनेवाला व्यक्ति समझा जाता है। ३. (संसन्नः) = जो सभा आदि स्थलों में सम्यक्तया आसीन होता है, अर्थात् जिसका व्यवहार उस-उस स्थान में उत्तम होता है वह (वैश्वदेवः) = सब दिव्य गुणोंवाला होता है। ४. (प्रवृक्त:) = जो वासनाओं का अधिक-से-अधिक वर्जन करनेवाला बनता है वह (घर्म:) = [घर्म = सोम] सोम का (पुञ्ज) = वीर्यवान् बनता है। ५. (उद्यतः) = आलस्य से विहीन, सदा कर्मों में उद्यत व्यक्ति (तेज:) = तेजस्वी बनता है। ६. (पयसि आनीयमाने) = घर में सदा दूध के लाये जाने पर (आश्विनः) = पति-पत्नी दोनों ही प्राणापान सम्पन्न होते हैं, अर्थात् इनकी प्राणशक्ति ठीक बनी रहती है। ७. (विष्पन्दमाने) = [वि, स्पन्द] विशेषरूप से सदा क्रियाशील बने रहने पर (पौष्णः) = यह पूषा देवतावाला होता है, अर्थात् सदा पुष्ट शरीरवाला होता है। ८. (क्लथन्) = सब अशुभों की - अशुभ विचारों व भावनाओं की हिंसा करता हुआ (मारुतः) = मितरावी - बड़ा परिमित बोलनेवाला बनता है। अथवा 'मरुतः प्राणः 'प्राणशक्ति का पुञ्ज बनता है । ९. (शरसि सन्ताय्यमाने) = सतत काम-क्रोध, राग-द्वेष की हिंसा चलने पर [ताय सन्तान = फैलाना], अर्थात् राग-द्वेष से ऊपर उठने के सतत प्रयत्न होने पर (मैत्रः) = सबके साथ मित्रता की भावनावाला होता है। सबके साथ स्नेह से चलनेवाला होता है। जन्म से ही स्नेह की भावनावाला होता है। १०. (ह्रियमाण:) = जो प्रतिक्षण लोगों से अपने-अपने कार्यों को संवारने के लिए ले जाया जाता है, अर्थात् कभी कहीं और कभी कहीं भिन्न-भिन्न लोगों के कार्य में सहायता के लिए जाता है, वह (वायव्यः) = वायु तत्त्व की प्रधानतावाला होने से निरन्तर गतिशील और इस गतिशीलता से पवित्रता को पैदा करनेवाला होता है। ११. (हूयमानः) = जो दान आदि के द्वारा निरन्तर अपनी आहुति देता रहता है वह (आग्नेयः) = अग्नितत्त्व प्रधान जो प्रभु होता है। अग्नि के समान तेजस्वी व प्रकाशमय जीवनवाला बनता है। १२. (हुतः) = के प्रति अपना अर्पण करता है, जो लोगों के हित में अपनी पूर्ण आहुति दे देता है, वह (वाक्) = वेदवाणी का पुञ्ज, (सरस्वती) = ज्ञान की देवता का ही पुतला-सा बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उत्तम कर्म करनेवाले बनें, जिससे हमारा अगला जन्म उत्तम हो ।
मराठी (2)
भावार्थ
जेव्हा जीव शरीर सोडून पृथ्वी वगैरे वर भ्रमण करतो, इकडे-तिकडे सर्वत्र फिरतो आणि आपापल्या कर्मानुसार व ईश्वरी व्यवस्थेप्रमाणे जन्म घेतो तेव्हाच तो प्रकट होतो.
विषय
पुनश्च, त्याचविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (संम्भ्रियमाणः) सम्यक धारण केलेला (सम्राट् ) प्रकाशमान आणि (वैश्वदेवः) सर्व उत्तम जीवात्म्यांना वा पदार्थाना (संसन्नः) सम्यकप्रकारे प्राप्त होणारा जो (घर्मः) धामरूप (तेजः) प्रकाश आहे (ईश्वराने दिलेला तेज वा उत्साह आहे, तुम्ही तो धारण करा) तसेच (प्रवक्तः) शरीरापासून वेगळा झालेला, आणि (उद्यतः) वरच्या दिशेला जाणारा (आत्मा) (आश्विनः) प्राण-अपानविषयक तेज धारण करतो. (अनीयमाने) आणलेल्या वा प्राप्त (पयसि) (सरोवर, नदी आदी) जलामधे (पौष्णः) पृथ्वी विषयक तेज धारण करतो. तो आत्मा (विस्यन्दमाने) विशेषत्वाने प्राप्त वेळ अथवा संधीमधे (मारूतः) मनुष्य विषयक तेज तसेच (क्लथन्) हिंसा करताना (हातून चुकून हिंसा घडतांना) (मैत्रः) मित्र प्राण विषयक तेज धारण करतो (मनुष्याला हिंसेपासून वाचवितो) (संताय्यमाने) बांधलेल्या वा सांभाळ केलेल्या (शरसि) सरोवरामधे (वायव्यः) वायूविषयक तेज धारण करतो (ह्रियमाण) हरण केलेला वा आणलेला (आग्नेय) अग्नीविषयक तेज तसेच (हूयमानः) बोलावलेला (वाक्) बोलणारा जो (हुतः) शब्दा आहे, त्याचे तेज धारण करतो. (प्रजापतिः) प्रजारक्षक जीवाला ज्या ज्या प्रकारचे विविध तेज (सम्भृता) धारण वा पोषित करतो, (जीवात्म्याला ते तेज देणारा जो परमात्मा, हे मनुष्यानो, तुम्ही त्या परमात्म्याची उपासना करा. ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - जेव्हा हा जीवात्मा शरीर सोडतो तेव्हा तो सर्व पृथ्वी आदी पदार्थात भ्रमण करीत असतो वा जिथे तिथे प्रवेश करीत असतो आणि इकडे तिकडे जात-येत शेवटी आपल्या कृतकर्माप्रमाणे आणि ईश्वरीय व्यवस्थेप्रमाणे पुढील जन्म पावतो, तेव्हाच तो पुन्हा शरीररूपाने व्यक्त होतो. ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Worship Him alone Who retains the soul called Prajapati, (the nourisher of men); the well protected soul called Samrat, (filled with lustre); the well received soul called Vaishvadeva (Connected with all material objects); the soul separated from the body, called Dharma, (full of brilliance); the soul progressing called Teja (light); she soul well received in water called Ashwin (connected with Pran and Apan); timely received soul called Paushan (the light connected with the Earth); the violent soul called Maruta (the light connected with mans body); the soul reared in water called Maitra (connected with friendly Pran); the attacking soul called vayavya (full of velocity Uke air); the soul invoked called Agneya (burning lustrous like fire), the soul recognised as head called vak (one that commands and gives orders).
Meaning
Jiva, the soul, nourishing and supporting life, is prajapati, guardian of life. Fully provided and prosperous, it is Samrat, brilliant and sovereign. Well- positioned in society, it is vaishhvadeva, a human divinity. High and distinguished it is gharma, yajnic fire. Risen to the heights, it is teja, splendour. Sanctified and initiated in water, it is ashvina, blessed with pranic energy. Abundant and generous, it is paushna, child of the sun. Destroyer of enemies, it is maruta, of the winds. Developing waters, it is maitra, generous and friendly. Moving tempestuously, it is of the air, flying and floating. Kindled and challenged, it is fiery. Invoked and invited, it is vak, voice of divinity.
Translation
The self, being reared up, is Prajapati (Lord of crealures). (1) Fully nourished, it is Samrat, (shining bright). (2) When approached, it is Vaisvadeva (belonging to all the bounties of Nature). (3) Separated from the body, it is Gharma (the sacrifice). (4) Rising up, it is Tejas (light). (5) Being collected in water, it is Asvina (full of strength). (6) When water starts trickling, it is Pausna (nourishing). (7) When starting movements, it is Maruta (belonging to winds). (8) When nourished in the water-reservoir, it is Maitra (belonging to the friendly Lord). (9) When carried off, it is Vayavya (belonging to the air). (10) When being invoked, it is Agneya (belonging to the fire). (11) Having been invoked, it is Vak (speech). (12)
Notes
It is a tough job to explain this passage here. Accord ing to the ritualists, this passage enumerates various stages of Mahavira, the cauldron through out the ceremony. At each stage the cauldron belongs to a different deity, Prajapati etc. and the expiatory oblations should be offered to the deity, which presides at that stage, when the defect in the cauldron is noticed. To us, this does not sound convincing. Nor the interpretation offered by Dayananda in the context of Antyeşti appeals much to us. We are not in a position to offer any better interpretation. We have trans lated it literally as best as we could. There is no verb in this and in the next four formulas. Gharmaḥ, the sacrifice. Prvṛktaḥ, separated from the body. Udyataḥ, rising up. Asvina, full of strength; also belonging to Asvins. Visyandamane, when the water starts trickling. Pauṣnh, nourishing; also, belonging to Püşan. Klathan, starting movements. Sarasi, सरसि, in the water reservoir. According to Mahidhara, when milk is boiled, a creamy layer covers the sur face; that is called शरस् । Santāyyamāne,मध्यमाने, when it is being churned. Huyamanaḥ, being invoked; also, when being offered as an oblation. Hutaḥ, having been invoked or offered as an oblation.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে ঈশ্বর (সম্ভ্রিয়মানঃ) সম্যক্ পোষণ অথবা ধারণ কৃত (সম্রাট্) সম্যক্ প্রকাশমান (বৈশ্বদেবঃ) সব উত্তম জীব বা পদার্থ সমূহ সম্পর্কীয় (সংসন্নঃ) সম্যক্ প্রাপ্ত হইয়া (ঘর্মঃ) ঘামরূপ (তেজঃ) প্রকাশ তথা (প্রবৃক্তঃ) শরীর হইতে পৃথক্ হইয়া (উদ্যতঃ) উপরে চলিয়া (আশ্বিনঃ) প্রাণ-অপান সম্পর্কীয় তেজ (আনীয়মানে) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হইয়া (পয়সি) জলে (পৌষ্ণঃ) পৃথিবী সম্পর্কীয় তেজ (বিষ্যন্দমানে) বিশেষ করিয়া প্রাপ্ত হওয়া সময়ে (মারুতঃ) মনুষ্য দেহ সম্পর্কীয় তেজ (ক্লথন্) হিংসা করিয়া (মৈত্রঃ) মিত্র প্রাণ সম্পর্কীয় তেজ (সন্তায়্যমানে) বিস্তার বা পালনকৃত (শরসি) পুকুরে (বায়ব্যঃ) বায়ুসম্পর্কীয় তেজ (হ্রিয়মাণঃ) হবণ করিয়া (আগ্নেয়ঃ) অগ্নিদেবতা সম্পর্কীয় তেজ (হূয়মানঃ) শব্দমান্ (বাক্) বক্তা (হুতঃ) শব্দকৃত তেজ এবং (প্রজাপতিঃ) প্রজার রক্ষক জীব (সম্ভূতঃ) সম্যক্ পোষণ বা ধারণ করিয়াছেন সেই পরমাত্মার তোমরা উপাসনা কর ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যখন এই জীব শরীর ত্যাগ করিয়া সব পৃথিব্যাদি পদার্থে ভ্রমণ করে, যেখানে সেখানে প্রবেশ করে এবং ইতস্ততঃ গমন করিয়া কর্ম্মানুসারে ঈশ্বরের ব্যবস্থায় জন্ম লাভ করে, তখনই সুপ্রসিদ্ধ হয় ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্র॒জাপ॑তিঃ সংভ্রি॒য়মা॑ণঃ স॒ম্রাট্ সংভৃ॑তো বৈশ্বদে॒বঃ স॑ꣳস॒ন্নো ঘ॒র্মঃ প্রবৃ॑ক্ত॒স্তেজ॒ऽউদ্য॑তऽআশ্বি॒নঃ পয়॑স্যানী॒য়মা॑নে পৌ॒ষ্ণো বি॑ষ্য॒ন্দমা॑নে মারু॒তঃ ক্লথ॑ন্ । মৈ॒ত্রঃ শর॑সি সন্তা॒য়্যমা॑নে বায়॒ব্যো᳖ হ্রি॒য়মা॑ণऽআগ্নে॒য়ো হূ॒য়মা॑নো॒ বাগ্ঘু॒তঃ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্রজাপতিরিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । কৃতিশ্ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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