Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 40
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    46

    ई॒शा वा॒स्यमि॒दंꣳ सर्वं॒ यत्किञ्च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्।तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒शा। वा॒स्य᳖म्। इ॒दम्। स॒र्व॑म्। यत्। किम्। च॒। जग॑त्याम्। जग॑त् ॥ तेन॑। त्य॒क्तेन॑। भु॒ञ्जी॒थाः॒। मा। गृ॒धः॒। कस्य॑। स्वि॒त्। धन॑म् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशा वास्यमिदँ सर्वँयत्किञ्च जगत्याञ्जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ईशा। वास्यम्। इदम्। सर्वम्। यत्। किम्। च। जगत्याम्। जगत्॥ तेन। त्यक्तेन। भुञ्जीथाः। मा। गृधः। कस्य। स्वित्। धनम्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्याः परमात्मानं विज्ञाय किङ्कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! त्वं यदिदं सर्व जगत्यां जगदीशा वास्यमस्ति, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, किञ्च कस्य स्विद्धनं मा गृधः॥१॥

    पदार्थः

    (ईशा) ईश्वरेण सकलैश्वर्य्यसम्पन्नेन सर्वशक्तिमता परमात्मना (वास्यम्) आच्छादयितुं योग्यं सर्वतोऽभिव्याप्यम् (इदम्) प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तम् (सर्वम्) अखिलम् (यत्) (किम्) (च) (जगत्याम्) गम्यमानायां सृष्टौ (जगत्) यद्गच्छति तत् (तेन) (त्यक्तेन) वर्जितेन तच्चित्तरहितेन (भुञ्जीथाः) भोगमनुभवेः (मा) निषेधे (गृधः) अभिकांक्षीः (कस्य) (स्वित्) कस्यापि स्विदिति प्रश्ने वा (धनम्) वस्तुमात्रम्॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या ईश्वराद् बिभ्यत्ययमस्मान् सर्वदा सर्वतः पश्यति, जगदिदमीश्वरेण व्याप्तं सर्वत्रेश्वरोऽस्तीति व्यापकमन्तर्यामिणं निश्चित्य कदाचिदप्यन्यायाचरणेन कस्यापि किञ्चिदपि द्रव्यं ग्रहीतुं नेच्छेयुस्ते धार्मिका भूत्वाऽत्र परत्राभ्युदयनिःश्रेयसे फले प्राप्य सदाऽऽनन्देयुः॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (7)

    विषय

    अब चालीसवें अध्याय का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य ईश्वर को जानके क्या करें, इस विषय को कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य! तू (यत्) जो (इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवीपर्य्यन्त (सर्वम्) सब (जगत्याम्) प्राप्त होने योग्य सृष्टि में (जगत्) चरप्राणीमात्र (ईशा) संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान् परमात्मा से (वास्यम्) आच्छादन करने योग्य अर्थात् सब ओर से व्याप्त होने योग्य है (तेन) उस (त्यक्तेन) त्याग किये हुए जगत् से (भुञ्जीथाः) पदार्थों के भोगने का अनुभव कर (किंच) किन्तु (कस्य, स्वित्) किसी के भी (धनम्) वस्तुमात्र की (मा) मत (गृधः) अभिलाषा कर॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ईश्वर से डरते हैं कि यह हमको सदा सब ओर से देखता है, यह जगत् ईश्वर से व्याप्त और सर्वत्र ईश्वर विद्यमान है। इस प्रकार व्यापक अन्तर्यामी परमात्मा का निश्चय करके भी अन्याय के आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण नहीं किया चाहते, वे धर्मात्मा होकर इस लोक के सुख और परलोक में मुक्तिरूप सुख को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    त्याग पूर्वक जीवन

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    मेरे आदि आचार्य जनों! जब हमें लोलुपता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसको त्याग सहित भोगना चाहिए, जब त्याग सहित द्रव्य को भोगा जाता हैं, वही द्रव्य मुनिवरों! मानव के लिए जीवन बन जाता हैं, और यदि उसको त्याग पूर्वक नही भोगा जाता, उसमें विडम्बना होती हैं, विलक्षणा होती हैं, मुनिवरों! देखो, वही द्रव्य, मानव के विनाश का मूल बन जाता हैं। इसीलिए विनाश के मूल में, न जाओ, हे यज्ञमान! तू अपनी महान कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आज तू अपने जीवन को मानसिक प्रक्रियाओं को ब्रह्मचर्यत्व को ले करके चल संसार में, तेरा जीवन वास्तव में पवित्र बनता चला जाएगा। मैं तो यह कहा करता हूँ, अभी अभी वेद का पाठ, एक वेदमन्त्र को उच्चारण करके आ रहा था कि हे यज्ञमान! तू आज महान बनना चाहता हैं, अपनी आयु को पान करना चाहता हैं, तो तू महान पुरूषों की शरण में जा, और अपने जीवन के विषय में, नाना प्रश्न कर इतने प्रश्न कर क्या तू, पुरोहित बना करके, हमें प्रश्न कर जिससे तेरा आत्मा प्रसन्न हो जाएं। मन प्रसन्न हो। उत्तर देने में इतने कुशल हों, क्या उनका हृदय और मन प्रसन्न हो जाएं, जिससे उनके जीवन में, एक मानवीयता के अङ्कुर छाते चले जाएं, यह है बेटा! आज का हमारा आदेश, मैं केवल महानन्द जी संकेतानुकूल कुछ उच्चारण कर रहा हूँ, हे यज्ञमान! तुम आयुष्मान बनो। मैं तो प्रभु से यह कहा करता हूँ ऐसे सुन्दर यज्ञमानो की अवस्था सहस्रों वर्षों की हो, जिससे देखो, सहस्रों की नही, तो सौ वर्ष की अवस्था हो, जिससे देखो, उनका जीवन सम्पन्न पूर्णत्व यज्ञमय कार्य करता रहे, परन्तु उनसे देखो, जीवन में सहस्रों वर्षों की अवस्था पान करते हुए, अपने जीवन को महान बनाते चले जाएं, यह है बेटा! आज का हमारा आदेश। हे यज्ञमान! तू आज वेद का ज्ञाता बन, जैसा पूर्वकाल में कहा है कि परमपिता परमात्मा ने संसार रूपी सुन्दर वेदी को बनाया है, सुन्दर यज्ञ रूपी यह संसार भी एक प्रकार का यज्ञ हैं, जिसमें कितने पदार्थ हैं, प्राण सञ्चार हो रहा है, जितनी वस्तुएं, इसमें अर्पित कर दोगे पृथ्वी में, तो उतना ही साधन आगे तुम्हें आता रहेगा, यह कितनी सुन्दर उस प्रभु की कृति हैं, कितनी सुन्दर कृति हैं, कौन इसमें रसस्वादन करता हैं? मानो प्राणों के द्वारा होता हैं, प्राणों में वह तत्त्व क्या मन के द्वारा, इस प्रकृति में वह तत्त्व है, मानो देखो, उन तत्त्वों से उनका स्वादन होता रहता है, क्रिया देने वाला, संचालन करने वाला, वह संचालन जो पवित्र क्रिया है, उसी को हमारे यहाँ कृति प्रभु की कहा करते हैं। वही प्रभु की उत्तम कृति हैं।

    महाराजा रघु का आता रहता है, महाराजा हरिश्चन्द्र का आता रहता है, महर्षि भारद्वाज जी का आता रहता है, हमारे यहाँ और भी महाराजा सगर इत्यादि हुए हैं। जिन्होंने अपने राष्ट्र को महान बनाने के लिए क्या क्या किया। क्योंकि बिना त्याग के यह समाज ऊँचा नहीं बनता। विना त्याग के यह पृथ्वी नहीं तपती, बिना त्याग तपस्या के ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी नहीं बनता। बिना त्याग तपस्या के यज्ञमान यज्ञशाला में यज्ञमान नहीं बनता। बिना त्याग के उद्गाता उद्गाता नहीं होता, ब्रह्मा ब्रह्मा नहीं रहता। यह जितना भी संसार का चक्र चल रहा है यह सब त्यागमय है। प्रत्येक आभा त्यागी जा रही है और त्यागपूर्वक यह ब्रह्माण्ड गति कर रहा है। ऐसे ही जब राष्ट्र में त्याग नहीं रहेगा तो राष्ट्र नहीं चलेगा। राष्ट्र में जब बुद्धिमान पुरोहित नहीं रहेंगे वह राजा ऊँचा नहीं होगा। राष्ट्र में तपने के लिए महाराजा रघु सर्व द्रव्य दान दे दिया। रज के पात्रों में भोजन कर रहे हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    पदार्थ = ( जगत्याम् ) = इस सृष्टि में  ( यत् किञ्च ) = जो कुछ भी  ( जगत् ) = चर अचर संसार है  ( इदम् सर्वम् ) = यह सब  ( ईशा ) = सर्वशक्तिमान् नियन्ता परमेश्वर से  ( वास्यम् ) = व्याप्त है ।  ( तेन त्यक्तेन ) = उन त्याग किये हुए अथवा  ( तेन ) = उस परमेश्वर से  ( त्यक्तेन ) = दिये हुए पदार्थ से  ( भुञ्जीथा: ) = भोग अनुभव कर ।  ( कस्य स्वित् ) = किसी के भी  ( धनम् ) = धन की  ( मा गृधः ) = इच्छा मत कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ = मनुष्यमात्र को चाहिए कि, सर्वत्र व्यापक परमात्मा को जानकर, अन्याय से किसी के धनादि पदार्थ की कभी इच्छा भी न करे । जो कुछ वस्तु परमेश्वर ने दे दी है उससे ही अपने शरीर की रक्षा करे । जो धर्मात्मा पुरुष, परमेश्वर को सर्वत्र व्यापक सर्वान्तर्यामी जानकर कभी पाप नहीं करते और सदा प्रभु के ध्यान और स्मरण में अपने समय को लगाते हैं, वे महापुरुष, इस लोक में सुखी और परलोक में मुक्ति सुख को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सब-कुछ उसी का

    शब्दार्थ

    (जगत्याम्) इस ब्रह्माण्ड में (यत् किं च) जो कुछ भी (जगत्) जगत् है, गतिशील है (इदं सर्वम्) यह सब (ईशा) सर्वव्यापक परमेश्वर से (वास्यम्) आच्छादित है, बसा हुआ है। (तेन) उस प्रभु के द्वारा (त्यक्तेन) प्रदत्त पदार्थों को त्याग-भाव से (भुञ्जीथा) भोग करो (मा गृधः) लालच मत करो (धनम् कस्य स्वित्) धन भला किसका है ?

    भावार्थ

    मन्त्र में जीवनोपयोगी चार सुन्दर शिक्षाएँ हैं. १. यह सारा संसार ईश्वर से आच्छादित है। ईश्वर इसमें सर्वत्र बसा हुआ है । वह सारे संसार को थामे हुए है, इसे गति दे रहा है, प्रकाशित कर रहा है । २. ईश्वर ने इस जगत् को थामा हुआ है, अत: तू चिन्ता मत कर, ईश्वरविश्वासी बन । जो सारे संसार को खिलाता है वह तुझे भी देगा । तू पदार्थों का संग्रह मत कर । ईश्वर-प्रदत्त पदार्थों को त्यागभाव से भोग, संसार में लिप्त मत हो । ३. लालच मत करो, लोभी मत बनो, दूसरों का धन हड़प करने की योजनाएँ मत बनाओ । ४. यह धन किसका है ? यह धन किसी का नहीं है । यह न किसी के साथ आया है और न किसीके साथ जाएगा। जीवन में ये चार पाठ पढ़ लिये जाएँ तो मानव-जीवन सुख एवं शान्तिपूर्ण बन सकता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर व्यापक । उसके दिये के भोग करने और लोभ त्यागने का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( जगत्याम् ) इस सृष्टि में ( यत् किंच ) जो कुछ भी (जगत्) चर, प्राणी, जंगम संसार या गतिशील है (इदम्) वह (सर्वम् ) सब ( ईशा ) सर्वशक्तिमान् परमेश्वर से ( वास्यम् ) व्याप्त है । ( तेन त्यक्तेन) उस त्याग किये हुए, या ( तेन ) उस परमेश्वर से ( त्यक्तेन) दिए हुए पदार्थ से (भुञ्जीथाः) भोग सुख अनुभव कर । ( कस्य स्वित् ) किसी के भी ( धनम् ) धन लेने की (मा गृधः) चाह मत कर । अथवा ( धनं कस्य स्वित् ? ) धन किसका है ? किसी का भी नहीं । इसलिये (मा गृधः) लालच मत कर । 'ईशा' ईश्वरेण सकलैश्वर्यसम्पन्नेन सर्वशक्तिमता परमात्मना इति दया० । ईश ऐश्वर्ये । क्विप् । ईष्ट इतीट्। ईशिता परमेश्वरः । स हि सर्वजन्तूनामात्मा सन् ईष्टे इति मही० । 'इदं सर्वं " प्रकृत्यादिपूथिविपर्यन्तं । इति दया० । प्रत्यक्षतो दृश्यमानं सर्व इति मही० | 'जगत्यां ' गम्यमानायां मृष्टौ इति दया० । लोकत्रये इति मही ० । पृथिव्यामति उवटः । 'तेन त्यक्तेन' 'तेन वर्जितेन तच्चित्तर हितेन' इति दया० । तेनानेन सर्वेण त्यक्तेन त्यक्तस्वस्वामिभावसम्बन्धेन इत्युवटः । अथवा – ( त्यक्तेन तेन भुञ्जीथा: ) अपना स्वामित्व और चित्त से त्याग किये अर्थात् ममता या संग से रहित इस भोग्य पदार्थ से भोग अनुभव" कर । इति दया० । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:- तेन त्यागेन आत्मानं पालयेथा: इति शंकरः । इस त्याग से अपना पालन कर | राष्ट्रपक्ष में- इस ( जगत्याम् ) पृथ्वी पर जितना ( जगत् ) जंगमः पदार्थ, पशु पक्षी आदि और ( इदं सर्वम् ) यह सब जड़ पदार्थ ( ईशावास्यम् ) शक्तिमान्, ऐश्वर्यवान् राजा द्वारा अधिकार करने योग्य हैं । उससे छोड़े गये या प्रदान किये का तू प्रजावर्ग भोग कर और आपस में कोई भी एक दूसरे के धन की चाह मत कर, मत ललचा ।

    टिप्पणी

    १ – अथातो ज्ञानकाण्डम् |

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा । अनुष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु की सर्वव्यापकता

    पदार्थ

    (इदम् सर्वम्) = यह सब, (यत् किञ्च) = जो कुछ (जगत्यां) = जगत् जगती में ब्रह्माण्ड में (जगत्) = लोक हैं, वे सब के सब (ईश + आवास्यम्) = उस ईश [प्रभु] से समन्तात् बसने योग्य हैं। कण-कण में वह प्रभु समा रहे हैं। वे सर्वव्यापक हैं, इसीलिए वे आँखों से दिखते नहीं । मन्त्र का जगती शब्द ब्रह्माण्ड का वाचक है। इस ब्रह्माण्ड में पिण्ड, अर्थात् छोटे-छोटे जगत् तो अनन्त हैं। हमारे लिए उनकी संख्या को पूरा-पूरा जानना सम्भव नहीं । एक सौर लोक एक जगत् है, इस जगती में तो ऐसे सौर जगत् कितने ही हैं? यह जगती की विशालता उस प्रभु की महिमा का व्याख्यान कर रही है। तेन क्योंकि वे प्रभु सर्वव्यापक हैं, कण-कण में विद्यमान हैं, अतः हे जीव ! तू (त्यक्तेन) = त्यागभाव से (भुञ्जीथा:) = उपभोग करना, विषयोपभोग में न फँस जाना। प्रभु ने भोजन का निर्माण 'पालन' के लिए ही तो किया है। 'भुज पालनाभ्यवहारयो:'-पालन के लिए खाना ही भोजन है। आसक्तिपूर्वक मजा तो वही लेने लगता है जो प्रभु से दूर हो जाता है। (मा गृधः) = तूने इन विषयों का लालच न करना । लालच से मनुष्य अधिक खा जाता है। विषयों का सौन्दर्य व स्वाद हमें अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है और हम उन विषयों का शरीर धारण के लिए नहीं अपितु स्वाद के लिए उपभोग करने लगते हैं। इन विषयों की प्राप्ति के साधनभूत धन को जुटाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाता है। यही धन अन्ततः हमारे 'निधन' का कारण हो जाता है, परन्तु प्रश्न यह है कि 'हम लालच से ऊपर कैसे उठें ?' इस प्रश्न के उत्तर में वेद कहता है कि प्रतिदिन यह सोचो कि कस्य स्वित् धनम् = भला, धन किसका है? इसने आजतक किसका साथ दिया? यह तो शरीरधारण के लिए साधनमात्र है। यह हमारे जीवन का साध्य नहीं है ? ('कस्य स्विद् धनम्') = का विचार हमारी आँखें खोल देगा और हम लोभ से ऊपर उठ सकेंगे, तभी हमारा जीवन त्यागपूर्वक उपभोगवाला हविरूप [हु-दानादनयोः ] होगा। 'ईशावास्यम्' का अर्थ परमेश्वर से समान्तात् वसने योग्य तो है ही, उस प्रभु का निवास [वस निवासे] कण-कण में है। साथ ही 'वस आच्छादने' से इस शब्द को बनाएँ तो अर्थ होता है कि वे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड को आच्छादित किये हुए हैं। हमें भी उस प्रभु का वह अमृतमय आच्छादन प्राप्त है। ऐसी अवस्था में मृत्यु हमारे तक आ ही कैसे सकती है ? मेरा तो वह अमृत प्रभु ही उपस्तरण है, वही अपिधान है। उसमें आवृत मैं मृत्युगोचर कैसे हो सकता हूँ। एवं, यह प्रभुभक्त पूर्ण निर्भीकता को अनुभव करता है। उस प्रभु का सर्वत्र निवास उसे पापभीरु बनाता है तो उस प्रभु का सर्वतः आच्छादन उसे मृत्यु से भी न डरनेवाला वीर बनाता है, एवं ईशावास्यमिदं सर्वम्' का अनुभव करनेवाला भीरु भी है, वीर भी । पाप से डरता है तो मृत्यु से निडर भी है। 'ईश' शब्द मन्त्र का प्रथम शब्द है जो स्वामित्व का प्रतिपादन करता हुआ मन्त्र की अन्तिम भावना 'कस्यस्वित् धनम्' का पोषण कर रहा है। (धनम्) = धन (स्वित्) = निश्चय से (कस्य) = उस अनिर्वचनीय प्रभु का है। हे जीव ! तू क्यों गर्व कर रहा है ! धन का मालिक तू नहीं। ईश तो प्रभु हैं, तेरा क्या स्वामित्व ? प्रभुदर्शन से इसका तम विदीर्ण होकर वह 'दीर्घ [विदीर्ण] तमा' कहलाता है। प्रभु का निरन्तर ध्यान करने से यह 'दध्यङ' है और बाह्य विषयों में आसक्त न होकर अन्दर ध्यान करने से 'आथर्वण' है [अथ अर्वाङ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की सर्वव्यापकता का अनुभव करो, त्यागपूर्वक प्रकृति का उपभोग करो, लोलुपता से दूर रहो और सदा विचारो कि भला धन किसका है ?

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (जगत्याम्) जगती में- जगतों के समूहरूप समष्टि सृष्टि मैं (यत् किम्-च) जो कुछ भी (इदं सर्व जगत्) यह सब जगत्-चलपरिणामयुक्त कार्य वस्तु प्रत्येक कार्य वस्तु है- जड़ जङ्गम वस्तु मात्र है । वह (ईशा वास्यम्) ईश्वर द्वारा वास अर्थात् निवास और आवास में अधिकरणीय अवश्य अधिकार करने योग्य अवश्य अधीन करने योग्य है-साधिकार वासित और आच्छादित है (तेन) तिस से- ऐसा होने पर इस हेतु (त्यक्तेन भुञ्जीथा:) हे नर हे मानव! तू त्याग से-वर्जन और निर्लेप भाव से उक्त जगत् को भोग अतः (मा गृधः) मत स्पृहा कर- मत ललचा। क्योंकि (धनं कस्य स्वित्) धन-भोग पदार्थ किसका है? सोच क्या किसी का है? अर्थात् किसी का न हुआ न है न होगा ॥१॥

    टिप्पणी

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

    विशेष

    ऋषिः- दीर्घतमाः (दीर्घ अन्धकार वाला-दीर्घ काल से अज्ञानान्धकार से युक्त तथा दीर्घ आकांक्षा करने वाला पुनः पुनः अमृतत्व का इच्छुक मुमुक्षु जन) अर्थात् जीवन की मृत्यु से छूट कर देवता- २–३, ५–१७ आत्मा (जडजङ्गमरूप विश्व का आत्मा विश्वात्मा परमात्मा) ४ ब्रह्म।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वर आपल्याला सगळीकडून पाहतो तो या जगात सर्वत्र व्याप्त आहे. विद्यमान आहे. अशा व्यापक अंतर्यामी परमेश्वराचा निश्चय करून जी माणसे अन्यायपूर्वक वागून कुणाचे द्रव्य घेऊ इच्छित नाहीत त्या धर्मात्म्यांनी इहलोक व परलोक मुक्तिरूपी सुख प्राप्त करून आनंदाने राहावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आता चाळीसाव्या अध्यायाचा आरंभ केला जात आहे, या मंत्रात सांगितले आहे की माणसाने ईश्‍वराला जाणून काय केले पाहिजे.

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्या, (तू हे सदा ध्यानात असू दे की) (इदम्) प्रकृतीपासून पृथ्वीपर्यंत (यत्) हे जे (सर्वम्) सर्व (जगत्पाम्) गमनशील सृष्टीमधे (जगत्) जंगम वा चर प्राणिमात्र आहेत, तसेच जे स्थावर-अचेतन पदार्थ आहेत) ते (ईशा) समस्त ऐश्‍वर्यवान सर्वशक्तिमान परमेश्‍वराने (वास्यम्) आच्छादित आहे, तो या सर्वांना व्यापून आहे. (तेन) त्याने त्याग केलेल्या या सृष्टीचा, (भुञ्जीथा) पदार्थांचा हे मानवा, तू उपभोग घे, पण (कस्य, स्वित्) कुणाच्याही (धनम्) कोणत्याही पदार्थांची (मा) (गृधः) अभिलाषा कर नकोस ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे मनुष्य कोणतेही कर्म करताना, परमेश्‍वर आम्हाला सदा निरंतर सर्वत्र पाहत आहे, असा विचार करून परमेश्‍वराची भीती बाळगतात, (ते धर्मात्मा होऊन इहलोकी परलोकी सुख वा मुक्तिसुख अनुभवतात) तसेच जे असाही विचार ठेवतात की हे जग ईश्‍वराद्वारे व्याप्त असून ईश्‍वर सर्वत्र विद्यमान आहे, अशाप्रकारे त्याला व्यापक, अंतर्यामी मानून जे लोक अन्याय-अत्याचाराने कुणाचेही काही द्रव्य हरण करीत नाही, ते धर्मात्मा होतात आणि इहलोकी व परलोकी सुख तसेच मोक्षसुख प्राप्त करून नेहमी आनंदमग्न असतात. ॥1॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man, all moving beings in the universe are enveloped by the Omnipotent God. Enjoy what God hath granted thee. Covet not the wealth of any man.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    All this that is, moving in the moving universe, is pervaded by the Ruling Lord of Existence. Therefore, live it as given by Him, enjoy it objectively in a spirit of detachment. Covet not anyone’s wealth. It belongs to none (except to the Lord).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All whatsoever exists in this universe, is pervaded by God supreme. Enjoy it, knowing full well that it will have to be renounced. Do not be greedy. To whom do the riches belong? (1)

    Notes

    īśa, is derived from √ ईश ऐश्वर्ये, ईशिता, परमेश्वरः, God Supreme; सर्वजंतूनां आत्मा; He is the soul of all the creatures; the inmost self; the only Absolute Reality. Īsā vāsyam, pervaded by Isa, the God Supreme. He is re siding in it. Jagat, everything that moves, including every living thing and the stars and the planets also. Idam sarvam, all this, the phenominal universe. Jagatyam, in this universe; in the three worlds : earth, mid space and heaven; in the whole imaginary cosmos. Tena tyaktena, knowing full well that it will have to be renounced; Or, after absolute renunciation of the world and all the vain desires connected with it. Bhuñjithaḥ, enjoy it; enjoy yourself; delight in the bliss of the Beatific Vision. Mã gṛdhaḥ, be not greedy; do not get attached too much to the possessions in this world. What you think is yours, is not so at all. The seeming existence of the world is to be covered by the all-embracing, all-absorbing and all-satisfying thought of the Supreme Deity. (Griffith). Kasya svit dhanam, to whom do the riches belong? To no one. Everyone has had to lose them, to quit them, and so you will have to. Do not be much engrossed with it.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    ॥ অথ চত্বারিংশাऽধ্যায়ারম্ভঃ ॥
    ওঁ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽ আ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    অথ মনুষ্যাঃ পরমাত্মানং বিজ্ঞায় কিঙ্কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    এখন চল্লিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । ইহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্য ঈশ্বরকে জানিয়া কী করিবে, এই বিষয় বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! তুমি (য়ৎ) যাহা (ইদম্) প্রকৃতি হইতে লইয়া পৃথিবী পর্য্যন্ত (সর্বম্) সকল (জগত্যাম্) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য সৃষ্টিতে (জগৎ) চরপ্রাণীমাত্র (ঈশা) সম্পূর্ণ ঐশ্বর্য্য দ্বারা যুক্ত সর্বশক্তিমান্ পরমাত্মা দ্বারা (বাস্যম্) আচ্ছাদন করিবার যোগ্য অর্থাৎ সব দিক দিয়া ব্যাপ্ত হওয়ার যোগ্য (তেন) সেই (ত্যক্তেন) ত্যাগ করা জগত হইতে (ভুঞ্জীথাঃ) পদার্থগুলিকে ভোগ করিবার অনুভব কর (কিঞ্চ) কিন্তু (কস্য, স্বিৎ) কাহারও (ধনম্) বস্তুমাত্রের (মা) না (গৃধঃ) অভিলাষা কর ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য ঈশ্বরকে ভয় করে যে, ইনি আমাদিগকে সব দিক দিয়া দেখেন, এই জগৎ ঈশ্বর দ্বারা ব্যাপ্ত এবং সর্বত্র ঈশ্বর বিদ্যমান, এই প্রকার ব্যাপক অন্তর্য্যামী পরমাত্মার নিশ্চয় করিয়া অন্যায়ের আচরণ দ্বারা কাহারও কোন দ্রব্য গ্রহণ করিতে চাহে না, তাহারা ধর্মাত্মা হইয়া এই লোকের সুখ এবং পরলোকের মুক্তিরূপ সুখকে প্রাপ্ত করিয়া সর্বদা আনন্দে থাকিবে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ঈ॒শা বা॒স্য᳖মি॒দংꣳ সর্বং॒ য়ৎকিঞ্চ॒ জগ॑ত্যাং॒ জগ॑ৎ ।
    তেন॑ ত্য॒ক্তেন॑ ভুঞ্জীথা॒ মা গৃ॑ধঃ॒ কস্য॑ স্বি॒দ্ধন॑ম্ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ঈশাবাস্যমিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    পদার্থ

    ঈশা বাস্যমিদꣳ সর্বং য়ৎ কিঞ্চ জগত্যাং জগৎ ।

    তেন ত্যক্তেন ভুঞ্জীথা মা গৃধঃ কস্য স্বিদ্ধনম্ ।।৮৪।।

    (যজু, ৪০।০১ )

    পদার্থঃ হে মানব ! (য়ৎ) যে (ইদম্) প্রকৃতি থেকে পৃথিবী পর্যন্ত (সর্বম্) সমস্ত (জগত্যাম্) চলমান সৃষ্টিতে (জগৎ) জড়-চেতন জগৎ রয়েছে, তা (ঈশা) ঈশ্বর অর্থাৎ সকল ঐশ্বর্যবান, সর্বশক্তিমান, পরমাত্মা দ্বারা (বাস্যম্) আচ্ছাদিত অর্থাৎ সকল দিক হতে পরিব্যাপ্ত। (তেন) এজন্য তা (ত্যক্তেন) ত্যাগপূর্বক অর্থাৎ জগৎ থেকে বাসনারূপ চিত্তকে সরিয়ে (ভুঞ্জিথা) ভোগ্য সামগ্রীর উপভোগ করো (কিং চ) এবং (কস্য স্বিৎ) অন্য কারো (ধনম্) ধন অর্থাৎ বস্তুমাত্রকে (মা) না (গৃধঃ) অভিলাষ কোরো

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ এই সমগ্র জগতে যা কিছু আছে, সকল কিছুতেই ঈশ্বর ব্যাপ্ত হয়ে আছেন। মনুষ্য মাত্রের উচিৎ ত্যাগের আদর্শ বজায় রেখে ঈশ্বর প্রদত্ত এই বিপুলা ধরণীর দান ভোগ করা। কখনোই যে অন্য কারো ধনে লোভ করা উচিৎ নয়, তা বিদ্বানমাত্রেই স্মরণে রাখা উচিৎ।

    এই মন্ত্রটিকে সনাতন বৈদিক ধর্মের সার বললেও অত্যুক্তি হয় না। জগতের সকল কিছুতেই তিনি ব্যাপ্ত, তাই কার ধনে তুমি লোভ করিবে? ত্যাগই প্রকৃত আদর্শ তা মাথায় রেখেই ভোগ করা উচিৎ।।৮৪।।

    এই মন্ত্রের মহিমা ব্যাখ্যায় মহাত্মা গান্ধী বলেছিলেন-

    যদি হিন্দুধর্মের সকল উপনিষদ্ এবং বাকি সকল শাস্ত্র পুড়ে ছাইও হয়ে যায় শুধু এই মন্ত্রটি বেঁচে থাকে তাহলেও হিন্দুধর্ম আজীবন বেঁচে থাকবে।”

     

    কবিগুরু এই মন্ত্র নিয়ে ধর্মপ্রবন্ধের "ততঃ কিম্" পর্বে বলেছেন-

    ঈশ্বরের দ্বারা এই জগতের সমস্ত যাহা-কিছু আচ্ছন্ন জানিবে এবং তাঁর দ্বারা যাহা প্রদত্ত, তিনি যাহা দিতেছেন, তাহাই ভোগ করিবে, অন্য কাহারও ধনে লোভ করিবে না।

    সংসারকে যদি ব্রহ্মের দ্বারা আচ্ছন্ন বলিয়া জানিতে পারি, তাহা হইলে সংসারের বিষ কাটিয়া যায়, তাহার সংকীর্ণতা দূর হইয়া তাহার বন্ধন আমাদিগকে আঁটিয়া ধরে না এবং সংসারের ভোগকে ঈশ্বরের দান বলিয়া গ্রহণ করিলে কাড়াকাড়ি-মারামারি থামিয়া যায়। সংসারযাত্রার এই মন্ত্র। ঈশ্বরকে সর্ব্বত্র দর্শন করিবে, ঈশ্বরের দত্ত আনন্দ-উপকরণ উপভোগ করিবে, লোভের দ্বারা পরকে পীড়িত করিবে না।”

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top