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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
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    सा॒यंसा॑यं गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः प्रा॒तःप्रा॑तः सौमन॒सस्य॑ दा॒ता। वसो॑र्वसोर्वसु॒दान॑ एधि व॒यं त्वेन्धा॑नास्त॒न्वं पुषेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒यम्ऽसा॑यम्। गृ॒हऽप॑तिः। नः॒। अ॒ग्निः। प्रा॒तःऽप्रा॑तः। सौ॒म॒न॒सस्य॑। दा॒ता। वसोः॑ऽवसोः। व॒सु॒ऽदानः॑। ए॒धि॒। व॒यम्। त्वा॒। इन्धा॑नाः। त॒न्व᳡म्। पु॒षे॒म॒ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातःप्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सायम्ऽसायम्। गृहऽपतिः। नः। अग्निः। प्रातःऽप्रातः। सौमनसस्य। दाता। वसोःऽवसोः। वसुऽदानः। एधि। वयम्। त्वा। इन्धानाः। तन्वम्। पुषेम ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सायंसायम्) सायं सायङ्काल में (नः) हमारे (गृहपतिः) घरों का रक्षक, और (प्रातःप्रातः) प्रातः प्रातःकाल में (सौमनसस्य) सुख का (दाता) देनेवाला (अग्निः) अग्नि [ज्ञानवान् परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष वा भौतिक अग्नि] तू (वसोर्वसोः) उत्तम-उत्तम प्रकार के (वसुदानः) धन का देनेवाला (एधि) हो, (त्वा) तुझको (इन्धानाः) प्रकाशित करते हुए (वयम्) हम लोग (तन्वम्) शरीर को (पुषेम) पुष्ट करें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना, विद्वानों के सत्सङ्ग और अग्निहोत्र के अनुष्ठान से स्वास्थ्य बढ़ाकर धनवृद्धि करनी चाहिये ॥३, ४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पञ्चमहायज्ञ विषय में व्याख्यात हैं। मन्त्र ३ का चौथा पाद आ चुका है-अ० ५।३।१ ॥ ३−(सायंसायम्) प्रतिसायङ्कालम् (गृहपतिः) गृहाणां रक्षकः (नः) अस्माकम् (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः पुरुषो वा भौतिकाग्निर्वा त्वम् (प्रातःप्रातः) सर्वदा प्रातःकाले (सौमनसस्य) आनन्दस्य (दाता) वसोर्वसोः उत्तमोत्तमप्रकारस्य (वसुदानः) धनस्य दाता (एधि) भव (वयम्) (त्वा) त्वाम् (इन्धानाः) प्रकाशयन्तः (तन्वम्) शरीरम् (पुषेम) पोषयेम। पुष्टं कुर्याम ॥

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    भाषार्थ

    (अग्निः) अग्रणी राजा (सायंसायम्) प्रत्येक सायंकाल (नः) हमारे (गृहपतिः) गृह आदि सम्पत्तियाँ की रक्षा करनेवाला हो। और (प्रातः-प्रातः) प्रत्येक प्रातःकाल (सौमनसस्य) मानसिक प्रसन्नता का (दाता) देनेवाला हो। हे अग्रणि! (वसोः वसोः) हर प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं के (वसुदानः) दाता (एधि) आप हूजिए। (वयम्) हम प्रजाजन (त्वा) आपको (इन्धानाः) समुज्ज्वल करते हुए, आपकी कीर्ति को बढ़ाते हुए (तन्वम्) आपकी तथा अपनी तनू को (पुषेम) परिपुष्ट करें।

    टिप्पणी

    [सायंसायम्= सायंकाल से लेकर प्रातःकाल तक। प्रातःप्रातः=प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक। यह मन्त्र सायंकाल के अग्निहोत्र और उपासना का भी सूचक है। परन्तु सूक्त के समन्वित अर्थ की दृष्टि से राजापरक अर्थ किया है। मन्त्रों के त्रिविध अर्थ हो सकते हैं— आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक। तन्वम्=राजा की तनू के सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र भी प्रकाश डालता है— पृ॒ष्टीर्मे॑ रा॒ष्ट्रमु॒दर॒मꣳसौ॑ ग्री॒वाश्च॒ श्रोणी॑। ऊ॒रूऽ अ॑र॒त्नी जानु॑नी॒ विशो॒ मेऽङ्गा॑नि स॒र्वतः॑॥ यजु० २०.८॥ हे प्रजाजनो! मेरा राष्ट्र मेरी पीठ के सदृश है; और पेट, स्कन्ध, कण्ठप्रदेश, कटिप्रदेश, जंघा, भुजाओं का मध्य प्रदेश, गोड़ के मध्य प्रदेश, तथा सब ओर के मेरे अङ्ग प्रजाजन हैं”। (यजुर्भाष्य, महर्षि दयानन्द) भावार्थ—जो अपने अङ्गों के तुल्य प्रजा को जाने, वही राजा सर्वदा बढ़ता रहता है (महर्षि दयानन्द)। अर्थात् राजा की तनू है—राष्ट्र और प्रजाजन।]

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    विषय

    'सायं' अग्निहोत्र से शरीर-पुष्टि

    पदार्थ

    १. (सायंसायम्) = प्रत्येक सायंकाल (न: गृहपति:) = हमारे घरों का रक्षक यह (अग्नि:) = यज्ञ का अग्नि (प्रात:प्रात:) = प्रत्येक प्रात:काल में भी (सौमनसस्य दाता) = प्रसन्नमनस्कता [सुख] देनेवाला हो। प्रात:-सायं अग्निहोत्र करते हुए आरोग्यतापूर्ण जीवनवाले हम आनन्द का अनुभव करें। २. हे आग्ने । तू (वसो:) = निवास के साधनभूत सब वसुओं [धनों] का (वसुदान: एधि) = धनदाता हो। (वयम्) = हम (त्वा इन्धाना:) = तुझे प्रात:-सार्य दीत करते हुए (तन्वं पुषेम) = अपने शरीरों का पोषण करें। यह यज्ञाग्नि हमारे शरीरों की शक्तियों का विस्तार करनेवाली हो।

    भावार्थ

    सायं-प्रात: हवियों से दीस किया गया यज्ञाग्नि हमें प्रसन्नमनस्कता प्राप्त कराता है। सब वसुओं को देता हुआ यह हमारे शरीरों का पोषण करता है। सायंकाल का अग्निहोत्र प्रात:काल तक सौमनस्य का देनेवाला है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Wealth for life

    Meaning

    Every evening day bt day, may Agni, leader, pioneer and ruler of humanity, be the protector of our home and country. Every morning day by day, may Agni give us peace, happiness and good cheer at heart. O generous Agni, come and be the generous giver of the best of wealth, honour and excellence, and may we, lighting and serving you with homage, grow in body and mind with food, energy and yajnic generosity.

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    Translation

    Each and every evening, may there be the house-holder's fire for us; each and every morning, may he be the bestower of happiness. May you be the bestower of each and every wealth on us. Enkindled you, may we nourish our progeny (tanvam).

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    Translation

    At all succeeding evenings this fire is the master and protector of house belonging to us and at each morning it is the giver of delight and health (to us). Let this be the bestower of every kind of wealth and we enkindling this fire in the Yajna strengthen our body.

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    Translation

    God, the learned man, or the sacrificial fire is the protector of our homes every evening. He is the giver of peace of mind and feeling of harmony every morning. O the Giver of wealth and riches of all sorts, may you shower all these on us. Worshipping, serving or enkindling thee, we may keep our bodies well-nourished and well-fed.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पञ्चमहायज्ञ विषय में व्याख्यात हैं। मन्त्र ३ का चौथा पाद आ चुका है-अ० ५।३।१ ॥ ३−(सायंसायम्) प्रतिसायङ्कालम् (गृहपतिः) गृहाणां रक्षकः (नः) अस्माकम् (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः पुरुषो वा भौतिकाग्निर्वा त्वम् (प्रातःप्रातः) सर्वदा प्रातःकाले (सौमनसस्य) आनन्दस्य (दाता) वसोर्वसोः उत्तमोत्तमप्रकारस्य (वसुदानः) धनस्य दाता (एधि) भव (वयम्) (त्वा) त्वाम् (इन्धानाः) प्रकाशयन्तः (तन्वम्) शरीरम् (पुषेम) पोषयेम। पुष्टं कुर्याम ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    সায়ং সায়ং গৃহপতির্তো অগ্নিঃ প্রাতঃ প্রাতঃ সৌমনসস্য দাতা।

    বসোর্বসোর্বসুদান এধিবয়ংত্বেন্ধানাস্তন্বং পুষেম্।।৩৭।।

    (অথর্ববেদ ১৯।৫৫।৩)

    পদার্থঃ (সায়ং সায়ং প্রাতঃ প্রাতঃ) প্রতি সায়ং এবং প্রতি প্রাতঃ কালে (ন গৃহপতি) আমাদের গৃহের রক্ষক তুমি (অগ্নিঃ) হে তেজস্বী ঈশ্বর! (বসোঃ বসোঃ) তুমি উত্তম সব (বসুদানঃ) ঐশ্বর্যের দানকারী এবং (সৌমনসস্য দাতা) সুখের দাতা (এধি) হও। (ত্বা) তোমাকে (ইন্ধানাঃ) স্তুতি করে (বয়ং তন্বং পুষেম্) আমাদের শরীর ও মনকে পুষ্ট করি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ প্রতি প্রাতে ও প্রতি সন্ধ্যায় প্রতিদিন তুমিই আমাদের রক্ষক। হে পরমাত্মা! তুমি উত্তম সকল ঐশ্বর্যের দাতা, সুখের প্রদাতা, তোমার স্তুতিতে আমাদের দেহ ও মন পবিত্র হয়।।৩৭।।

     

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