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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
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    प्रा॒तःप्रा॑तर्गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः सा॒यंसा॑यं सौमन॒सस्य॑ दा॒ता। वसो॑र्वसोर्वसु॒दान॑ ए॒धीन्धा॑नास्त्वा श॒तंहि॑मा ऋधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तःऽप्रा॑तः। गृ॒हऽप॑तिः। नः॒। अ॒ग्निः। सा॒यम्ऽसा॑यम्। सौ॒म॒न॒सस्य॑। दा॒ता। वसोः॑ऽवसोः। व॒सु॒ऽदानः॑। ए॒धि॒। इन्धा॑नाः। त्वा॒। श॒तम्ऽहि॑माः। ऋ॒धे॒म॒ ॥५५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतंहिमा ऋधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातःऽप्रातः। गृहऽपतिः। नः। अग्निः। सायम्ऽसायम्। सौमनसस्य। दाता। वसोःऽवसोः। वसुऽदानः। एधि। इन्धानाः। त्वा। शतम्ऽहिमाः। ऋधेम ॥५५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहस्थ धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रातःप्रातः) प्रातः प्रातःकाल में (नः) हमारे (गृहपतिः) घरों का रक्षक, और (सायंसायम्) सायं सायंकाल में (सौमनसस्य) सुख का (दाता) देनेवाला, (अग्निः) अग्नि [ज्ञानवान् परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष वा भौतिक अग्नि] तू (वसोर्वसोः) उत्तम-उत्तम प्रकार के (वसुदानः) धन का देनेवाला (एधि) हो, (त्वा) तुझको (इन्धानाः) प्रकाशित करते हुए (शतंहिमाः) सौ शीतल ऋतुओंवाले हम लोग (ऋधेम) बढ़ते रहें ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना, विद्वानों के सत्सङ्ग और अग्निहोत्र के अनुष्ठान से स्वास्थ्य बढ़ाकर धनवृद्धि करनी चाहिये ॥३, ४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पञ्चमहायज्ञ विषय में व्याख्यात हैं। मन्त्र ३ का चौथा पाद आ चुका है-अ० ५।३।१ ॥ ४−अस्यार्थः पूर्ववद् विज्ञेयः। विशेषस्तु व्याख्यायते (शतंहिमाः) शतं हिमानि शतं हेमन्तर्तवो येषां ते तथाभूताः (ऋधेम) ऋधु वृद्धौ। वर्धेमहि ॥

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    भाषार्थ

    (अग्निः) अग्रणी राजा (प्रातःप्रातः) प्रत्येक प्रातःकाल (नः) हमारे (गृहपतिः) घर आदि सम्पत्तियों का रक्षक हो। और (सायंसायम्) प्रत्येक सायंकाल (सौमनसस्य) मानसिक प्रसन्नता का (दाता) देनेवाला हो। हे अग्रणी राजन्! (वसोः वसोः) हर प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं के (वसुदानः) दाता (एधि) आप हूजिए। (त्वा) आपको (इन्धानाः) समुज्ज्वल करते हुए, आपकी कीर्ति को बढ़ाते हुए हम (शतं हिमाः) सौ हेमन्त-ऋतुओं तक (ऋधेम) बढ़ते रहें।

    टिप्पणी

    [प्रातःप्रातः, सायंसायम्= अर्थात् प्रति प्रातःकाल से प्रति सांयकाल तक हमारी सम्पत्तियाँ सुरक्षित रहें, और प्रति सायंकाल से प्रति प्रातःकाल तक हम प्रसन्नचित रहकर सौ वर्षों तक बढ़ते रहें। मन्त्र प्रातःकाल के अग्निहोत्र और उपासना का भी सूचक है।] [मन्त्र ३-४ के आधिदैविक तथा आध्यात्मिक अर्थ— (सायंसायम्) प्रतिदिन प्रातः-सायं श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त (गृहपतिः) यह गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक (अग्निः) भौतिक अग्नि, परमेश्वर (सौमनसस्य) आरोग्य आनन्द और (वसोर्वसोः) वसु अर्थात् धन का (दाता) देनेवाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) अर्थात् धनदाता प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित (एधि) रहिए। यहाँ भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने योग्य है। हे परमेश्वर! जैसे पूर्वोक्त प्रकार से (वयम्) हम (त्वा) आपको (इन्धानाः) प्रकाशित करते हुए (तन्वं पुषेम) अपने शरीर से पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी (इन्धानाः) प्रज्वलित करते हुए परिपुष्ट हों। (प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो०) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु इसमें इतना विशेष भी है कि—अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्यन्त अर्थात् सौ वर्षों तक धनादि पदार्थों से (ऋधेम) वृद्धि को प्राप्त हों। [ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पञ्चमहायज्ञ-विषय, महर्षि दयानन्द की व्याख्यानुसार।]

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    विषय

    'सायं-प्रातः' अग्निहोत्र से दीर्घजीवन

    पदार्थ

    १. (प्रातःप्रात:) = प्रत्येक प्रातःकाल में (गृहपतिः) = हमारे घरों का रक्षक यह (अग्नि:) = यज्ञाग्नि (सायंसायम्) = प्रत्येक सायंकाल में भी (सौमनसस्य दाता) = प्रसन्नमनस्कता को देनेवाला हो। २. (वसो:वसोः वसुदानः एधि) = निवास के लिए आवश्यक प्रत्येक वसु का देनेवाला हो। हे अग्ने! (त्वा) = तुझे (इन्धानाः) = हवियों से दीप्त करते हुए (शतहिमाः ऋधेम) = सौ वर्ष तक हम समृद्ध हों। यह अग्निहोत्र हमें नीरोगता, शक्तियों का पोषण व सौमनस को देता हुआ शतवर्ष की आयुष्य को प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    हम प्रात:-सायं अग्निहोत्र करते हुए सौमनस व वसुओं को प्राप्त करके शतवर्ष के आयुष्य को प्रास करें। प्रात:काल का अग्निहोत्र सायं तक सौमनस्य देता है -

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Wealth for life

    Meaning

    Every morning day by day, may Agni, leader, pioneer and ruler, be the protector of our home and country. Every evening day by day, may Agni give us peace, happiness and good cheer at heart. O Agni, come and be the generous giver of the best of wealth, honour and excellence, and may we, lighting and serving you with homage, grow and advance for a full hundred years of happy seasons.

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    Translation

    Each and every morning, may there be the house-holder’s fire for us; each and every evening may he be the bestower of happiness on us. May you be the bestower ot each and every wealth on us. Enkindling you, may we prosper through a hundred winters.

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    Translation

    At all consecutive mornings this fire is the master and protector of the house belonging to us and giver of delight and health to us every evening. Let this be the bestower of every kind of wealth and we enkindling this fire-in Yajna grow with prosperity till hundred autumns.

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    Translation

    Every morning, Agni is the Lord of our household. May He shower on us, harmony and peace, every evening. O Showerer of wealth, grant us wealth and riches of every kind. Worshipping, serving or enkindling, thee, may we live for hundred years.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पञ्चमहायज्ञ विषय में व्याख्यात हैं। मन्त्र ३ का चौथा पाद आ चुका है-अ० ५।३।१ ॥ ४−अस्यार्थः पूर्ववद् विज्ञेयः। विशेषस्तु व्याख्यायते (शतंहिमाः) शतं हिमानि शतं हेमन्तर्तवो येषां ते तथाभूताः (ऋधेम) ऋधु वृद्धौ। वर्धेमहि ॥

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