अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
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यस्य॑ क्रू॒रमभ॑जन्त दु॒ष्कृतो॒ऽस्वप्ने॑न सु॒कृतः॒ पुण्य॒मायुः॑। स्वर्मदसि पर॒मेण॑ ब॒न्धुना॑ त॒प्यमा॑नस्य॒ मन॒सोऽधि॑ जज्ञिषे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑। क्रू॒रम्। अभ॑जन्त। दुः॒ऽकृतः॑। अ॒स्वप्ने॑न। सु॒ऽकृतः॑। पुण्य॑म्। आयुः॑। स्वः᳡। म॒द॒सि॒। प॒र॒मेण॑। ब॒न्धुना॑। त॒प्यमा॑नस्य। मन॑सः। अधि॑। ज॒ज्ञि॒षे॒ ॥५६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य क्रूरमभजन्त दुष्कृतोऽस्वप्नेन सुकृतः पुण्यमायुः। स्वर्मदसि परमेण बन्धुना तप्यमानस्य मनसोऽधि जज्ञिषे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। क्रूरम्। अभजन्त। दुःऽकृतः। अस्वप्नेन। सुऽकृतः। पुण्यम्। आयुः। स्वः। मदसि। परमेण। बन्धुना। तप्यमानस्य। मनसः। अधि। जज्ञिषे ॥५६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
निद्रा त्याग का उपदेश।
पदार्थ
(दुष्कृतः) दुष्कर्मियों ने (यस्य) जिस [स्वप्न] के (क्रूरम्) क्रूर [निर्दय] कर्म को (अभजन्त) भोगा है, और (अस्वप्नेन) स्वप्नत्याग से (सुकृतः) सुकर्मियों ने (पुण्यम्) पवित्र (आयुः) जीवन [भोगा] है। [हे स्वप्न !] (स्वः) सुख में [वर्तमान] (परमेण) परम (बन्धुना) बन्धु [पुरुष] के साथ (मदसि) तू जड़ हो जाता है, और (तप्यमानस्य) सन्ताप को प्राप्त हुए [थके पुरुष] के (मनसः अधि) मन में से (जज्ञिषे) तू प्रकट हुआ है ॥५॥
भावार्थ
दुष्ट लोग स्वप्न वा आलस्य के कारण महाकष्ट उठाते हैं, और पुण्यात्मा उसके त्याग से आनन्द उठाते हैं। सर्वहितैषी पुरुषार्थी लोगों में उसका प्रभाव नहीं होता, वह पुरुषार्थहीन थके लोगों में प्रभाव जमाता है ॥५॥
टिप्पणी
५−(यस्य) (क्रूरम्) निर्दयं कर्म (अभजन्त) असेवन्त (दुष्कृतः) दुष्कर्माणः पापिनः (अस्वप्नेन) स्वप्नत्यागेन (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (पुण्यम्) पवित्रम् (आयुः) जीवनम्, अभजन्त इत्यनुवर्तते (स्वः) सुखे वर्तमानेन (मदसि) मद जाड्ये। जडो मूढो भवसि (परमेण) सर्वोत्कृष्टेन (बन्धुना) बान्धवेन (तप्यमानस्य) सन्तप्यमानस्य। श्रान्तस्य पुरुषस्य (मनसः) अन्तःकरणस्य (अधि) अधिकम् (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ ॥
भाषार्थ
(दुष्कृतः) दुष्कर्मी (यस्य) जिस दुःस्वप्न की (क्रूरम् अभजन्त) क्रूरता के भागी होते हैं; और हे स्वप्न! जब तू (स्वः) सुखस्वरूप (परमेण बन्धुना) परमबन्धु परमेश्वर के साथ बन्धुत्व को प्राप्त कर (मदसि) संतृप्त हो जाता है, तब (अस्वप्नेन) स्वप्नाभाव के कारण (सुकृतः) सुकर्मी जन (पुण्यम् आयुः अभजन्त) पुण्य अर्थात् पवित्र जीवन के भागी हो जाते हैं। और हे स्वप्न! तू (तप्यमानस्य) दुष्कर्मों के कारण सन्तप्त हो रहे मनुष्य के (मनसः अधि) मन से (जज्ञिषे) उत्पन्न होता रहता है, या हुआ है।
टिप्पणी
[क्रूरम्= रात्रि को स्वप्नावस्था में दुर्घटनाओं के स्वप्न लेते हुए डरना, रोना-चिल्लाना, घबरा जाना, और चिन्तित होना—यह दुःस्वप्नों की क्रूरता है। अस्वप्नेन=योगीजन निद्रावृत्ति और स्वप्नवृत्तियों तथा विचारों का निरोध कर परमेश्वर के ध्यान में जब लीन हो जाते हैं, तब उन की स्वप्नशक्तियां भी परमेश्वर में लीन होकर मानो संतृप्त होकर अभावरूप हो जाती हैं। तब योगी का जीवन पवित्र हो जाता है, परन्तु दुष्कर्मी लोग सांसारिक भोगों से संतप्त हुए स्वप्नों के शिकार बने रहते हैं। स्वः= अव्यय होने से तृतीयान्तरूप भी सम्भव है। मदसि=मद तृप्तियोगे।]
विषय
दुष्कृत को कर स्वप्न, सुकृत को पुण्यस्वप्न
पदार्थ
१. (दुष्कृत:) = दुष्कर्म [पापकर्म] करनेवाले लोग (यस्य) = जिस दुःस्वप्न के (क्रुरम् अभजन्त) = भयंकर अनिष्ट फल को प्राप्त करते हैं, इसके विपरीत (सुकृत:) = पुण्यकर्मा लोग (अस्वप्न) = स्वप्नों के अभाव के कारण (पुण्यम् आयुः) = पुण्य जीवन को प्राप्त करते हैं। २. हे स्वप्न! (तप्यमानस्य) = खूब तपस्या में प्रवृत्त मनुष्य के (मनसः अधिजज्ञिषे) = मन से जब तू प्रकट होता है, तब (परमेण बन्धुना) = उस परम बन्धु परमात्मा के साथ बातचीत में (स्व:मदसि) = ज्ञान के प्रकाश से आनन्द का अनुभव करता है, अर्थात् तपस्वी स्वप्न में प्रभु के साथ बात करता है और ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करता हुआ आनन्दित होता है।
भावार्थ
दुष्कृत् को अशुभ स्वप्न पीड़ा पहुँचाता है और तपस्वी सुकृत् को प्रभु-दर्शन का स्वप्न प्रकाशमय जीवनवाला करता है।
इंग्लिश (4)
Subject
Svapna
Meaning
O Dream, born of the mind of shining and suffering dreamers, whose cruelty the man of evil suffers, and avoiding which the man of noble action enjoys freedom and virtue, you rejoice only with our Brother of the highest heaven in the state of contemplation.
Translation
Whose cruelty the evil-doers share: and persons of good actions enjoy a holy life free from bad dreams. With your closest kin, You revel in the world of bliss. You are born from the mind of a sufferer.
Translation
Neither Pitara, Vital breaths nor the organic entities of the body whose activity spreads out with in this body, know of sleep. Adityasah, the twelve months accompanied by Varuna the night establish the sleep in the soul which is innate and is observer of three phases : the awakening, sleep and sound sleep.
Translation
The evil-doers reap the cruel effect of this laziness. The virtuous attain long, virtuous life by alertness. O Idleness, thou shedest into oblivion, the happiness of the mind, undergoing all austerities, by thy great bondage, and thus overpowerest him.
Footnote
(a) The second line of this verse gives some definite clue to the coming on of sleep in the body. It is some physiological truth that is revealed here. It requires a thorough research by our doctors, Vaids and scientists. Vedic science is definite that nerves on the right side of the body have solar energy, while those on the left side have lunar one. It is by their combined force, that the Trita Aptya is generated inducing state of sleepiness in the brains. Even yogis are enabled to attain (heir smadhi by making these two forces combine in their Brahmrandhar.-(b) By‘Trita Aptya’, I think some combination of hydrogen atoms is meant. It has the effect of coolness, which in its turn is the inducer of sleep. Even the modern scientists have faced some sort of difficulty in the process of fusion of the hydrogen bomb. It requires very very high temperature to fuse two atoms of hydrogen into one, but as soon as the 3rd atom is combined and the 4th one is coming, the temperature falls down all of a sudden and the fusion process is retarded. So I think ‘Tritya Aptya’ may be some physical process of that sort, which may be an instrument of inducing the state of sleepiness. Let us search for it. Ft. Jaidev Vidyalankar and Pt. Khem Karan’s renderings have not appealed to me. Hence the above rendering. I would like to have some guidance from some scientists, vaid or doctor in the matter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यस्य) (क्रूरम्) निर्दयं कर्म (अभजन्त) असेवन्त (दुष्कृतः) दुष्कर्माणः पापिनः (अस्वप्नेन) स्वप्नत्यागेन (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (पुण्यम्) पवित्रम् (आयुः) जीवनम्, अभजन्त इत्यनुवर्तते (स्वः) सुखे वर्तमानेन (मदसि) मद जाड्ये। जडो मूढो भवसि (परमेण) सर्वोत्कृष्टेन (बन्धुना) बान्धवेन (तप्यमानस्य) सन्तप्यमानस्य। श्रान्तस्य पुरुषस्य (मनसः) अन्तःकरणस्य (अधि) अधिकम् (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ ॥
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