अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
ऋषिः - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
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स॒हस्र॑बाहुः॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्। स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वात्यति॑ष्ठद्दशाङ्गु॒लम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽबाहुः। पुरु॑षः। स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षः। स॒हस्र॑ऽपात्। सः। भूमि॑म्। वि॒श्वतः॑। वृ॒त्वा। अति॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। द॒श॒ऽअ॒ङ्गु॒लम् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रबाहुः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽबाहुः। पुरुषः। सहस्रऽअक्षः। सहस्रऽपात्। सः। भूमिम्। विश्वतः। वृत्वा। अति। अतिष्ठत्। दशऽअङ्गुलम् ॥६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(पुरुषः) पुरुष [अग्रगामी वा परिपूर्ण परमात्मा] (सहस्रबाहुः) सहस्रों भुजाओंवाला, (सहस्राक्षः) सहस्रों नेत्रोंवाला और (सहस्रपात्) सहस्रों पैरोंवाला है। (सः) वह (भूमिम्) भूमि को (विश्वतः) सब ओर से (वृत्वा) ढक कर (दशाङ्गुलम्) दस दिशाओं में व्याप्तिवाले [वा पाँच स्थूल भूत और पाँच सूक्ष्म भूत के अङ्गवाले] जगत् को (अति) लाँघकर (अतिष्ठत्) ठहरा है ॥१॥
भावार्थ
जिस परमात्मा में सहस्रों अर्थात् असंख्य भुजाओं, असंख्य नेत्रों और असंख्य पैरों का सामर्थ्य है अर्थात् जो अपनी सर्वव्यापकता से सब इन्द्रियों का काम करके अनेक रचना आदि कर्म करता है, वह जगदीश्वर भूमि से लेकर सकल ब्रह्माण्ड में बाहिर-भीतर व्यापक है, सब मनुष्य उस सच्चिदानन्द परमेश्वर की उपासना से आनन्द प्राप्त करें ॥१॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१। यजुर्वेद ३१।१। और सामवेद पू० ६।१३।३। और समस्त पुरुषसूक्त २२ मन्त्र यजुर्वेदपाठ के अनुसार महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सृष्टिविद्याविषय में व्याख्यात है ॥ यहाँ पर निम्नलिखित मन्त्र से मिलान करो-ऋक्० १०।८१।३ और यजुर्वेद १७।१९ ॥वि॒श्वत॑श्चक्षु॒रु॒त वि॒श्वतो॑ मुखो वि॒श्वतो॑ बाहुरु॒त॒ वि॒श्वत॑स्पात्।सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न् दे॒व एकः॑ ॥ (विश्वतश्चक्षुः) सब ओर नेत्रवाला (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर मुखवाला, (विश्वतोबाहुः) सब ओर भुजाओंवाला (उत) और (विश्वतस्पात्) सब ओर पैरावाला (एकः) अकेला (देवः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं रूप बल और पराक्रम से (पतत्रैः) गतिशील परमाणु आदि के साथ (द्यावाभूमी) सूर्य और भूमि [आदि लोकों] को (सम्) यथाविधि (जनयन्) उत्पन्न कर के (सम्) यथावत् (धमति) प्राप्त होता है ॥ १− (सहस्रबाहुः) सहस्राणि असंख्याता बाहवो भुजबलानि यस्मिन् सः (पुरुषः) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगतौ, पूरी आप्यायने, पूर्तौ, यद्वा पॄ पालनपूरणयोः−कुषन्। पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य। यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्। इत्यपि निगमो भवति-निरु० २।३। सर्वत्र परिपूर्णः परमेश्वरः (सहस्राक्षः) बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः०। पा० ५।४।११३। इति षच्। सहस्राण्यसंख्यातानि अक्षीणि नेत्रसामर्थ्यानि यस्य सः (सहस्रपात्) संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति पादस्य लोपो बहुव्रiहौ। सहस्राणि असंख्याताः पादाः पादसामर्थ्यानि यस्मिन् सः (भूमिम्) भूगोलम् (विश्वतः) सर्वतः। बाह्याभ्यन्तरतः (वृत्वा) आच्छाद्य। व्याप्य (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (अतिष्ठत्) स्थितवान् (दशाङ्गुलम्) वृञ्लुटितनिताडिभ्य उलच्, तण्डश्च। उ० ५।९। अगि गतौ वा अङ्ग पदे लक्षणे च−उलच्। दशसु दिक्षु अङ्गुलं व्यापनं यस्य तत् यद्वा पञ्चस्थूलपञ्चसूक्ष्मभूतानि दशाङ्गुलान्यङ्गानि यस्य तज्जगत् ॥
विषय
'सहस्रबाहु' पुरुष
पदार्थ
१. (पुरुष:) = इस ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले प्रभु (सहस्रबाहुः) = अनन्त भुजाओंवाले हैं - अपनी अनन्त भुजाओं से हम सबका रक्षण कर रहे हैं। (सहस्राक्षः) = अनन्त आँखोंवाले हैं- अपनी अनन्त आँखों से वे सभी को देख रहे हैं- प्रभु से कुछ छिपा नहीं है। (सहस्रपात्) = वे अनन्त पाँवोंवाले हैं। सर्वत्र गतिवाले हैं। २. (सः) = वे (भूमिम्) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] प्राणियों के निवास स्थानभूत लोकों को (विश्वतः) = सब ओर से (वृत्वा) = आवृत्त - आच्छादित करके (दशाङ्गुलम्) = इस दश अंगुलमात्र परिमाणवाले प्रभु के एकदेश में होनेवाले ब्रह्माण्ड को (अत्यतिष्ठत्) = लांघकर ठहरे हुए हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु की अनन्तता में दशांगुलमात्र ही है- यह प्रभु के एक देश में है।
भावार्थ
वे प्रभु अनन्त भुजाओं, आँखों व पाँवोंवाले हैं। उनमें सर्वत्र सब इन्द्रियों की शक्ति है। वे इस सारे ब्रह्माण्ड को आवृत्त करके इसे लाँघकर सर्वत्र विद्यमान है।
भाषार्थ
(पुरुषः)१ ब्रह्माण्ड पुरी में बसा हुआ परमेश्वर (सहस्रबाहुः) अनन्त बलवीर्य वाला, (सहस्राक्षः) सर्वद्रष्टा, तथा (सहस्रपात्) सर्वगत, सर्वाधार है। (सः) वह (भूमिम्) पृथिवी को (विश्वतः) सब ओर से (वृत्वा) घेर कर, (अति) और इसे अतिक्रमण करके (दशाङ्गुलम्) ५ स्थूलभूतों ५ सूक्ष्मभूतों वाले ब्रह्माण्ड में (अतिष्ठत्) स्थित हैं।
टिप्पणी
[बाहुः= बलम् “बहु बाह्वोर्बलम्” (अथर्व० १९.६०.१)। पात्=“पादयोः प्रतिष्ठा” (अथर्व० १९.६०.२) पादों का काम हैं=गति करना, और समग्र शरीर का आधार होना। दशाङ्गुलम्=१० अङ्गोंवाला ब्रह्माण्ड। ५ स्थूलभूत और ५ सूक्ष्मभूत ब्रह्माण्ड के १० अंग हैं। प्रथमार्ध मन्त्र का यह अर्थ भी है कि सब प्राणियों की हजारां बाहुएँ, हजारों नेत्र, हजारों पाद जिसके बीच में हैं, ऐसा सर्वत्र परिपूर्ण व्यापक जगदीश्वर है। पुरुषः=पूरयतेर्वा (निरु० २.१.३)।] [१. पुरुष=“पुरं यो वेद व्राह्मणो यस्याः पुरुष उच्यते" (अथर्व० १०.२.२८), में “पुर्+वस=उस=उष"=पुरुष।]
इंग्लिश (4)
Subject
Purusha, the Cosmic Seed
Meaning
Purusha, the cosmic soul of existence, is Divinity Personified, of infinite hands, infinite eyes and infinite feet. It pervades the universe wholly and entirely, and having pervaded and comprehended the universe of ten natural constituents, it transcends the universe.
Subject
Purusa
Translation
Thousand-armed is Purusa (cosmic man), having a thousand eyes and a thousand feet. Surrounding the earth (i.e., the universe) on all the sides, He exceeds it by ten fingerbreaths. (Yv. XXXI.1. Vari.; Rv. X.90)
Translation
[N.B.:—The Punish here in this hymn appears as the nucleus force of cosmic order, body and the society. The problems of universe, body and society are solved here through the spirutuo-materialistic interpretation of the history of world, not through only materialistic inter pretation which is half-truth of this Philosophy. The Purusha has been here designated as the individual soul of body and organs which is the social animal and the universal soul (God) of matter and universe and Creator of the cosmic order. So here matter, soul and God have been taken as eternal separate entities.] Purusha, the All-pervading God has the arms of the man of world. He hath the eyes of all of the creatures of the world and he has the feet of all of the world. He pervading the earth from all sides permeates the world made of ten elements and beyond.
Translation
The All-pervading God has the power of a thousand arms, a thousand eyes, a thousand feet, penetrating the earth from all sides, he extends even beyond the ten quarters or the universe consisting of ten elements.
Footnote
Thousand: innumerable Deshangulum—the world, made up of 10 parts, 5 gross, sky (आकाश), air (वायु), fire (अग्नि), water (जल), earth (पृथिवी); 5 subtle elements, speech (शब्द), touch (स्पर्श), sight (रूप), taste (रस), smell (गंध). It may also mean 10 quarters 4 main, 4 intervening, above and below. It may mean heart, the souls, abode in the body. Griffith translates it as a space often fingers, which is inappropriate in view of the infinite immensity of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१। यजुर्वेद ३१।१। और सामवेद पू० ६।१३।३। और समस्त पुरुषसूक्त २२ मन्त्र यजुर्वेदपाठ के अनुसार महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सृष्टिविद्याविषय में व्याख्यात है ॥ यहाँ पर निम्नलिखित मन्त्र से मिलान करो-ऋक्० १०।८१।३ और यजुर्वेद १७।१९ ॥वि॒श्वत॑श्चक्षु॒रु॒त वि॒श्वतो॑ मुखो वि॒श्वतो॑ बाहुरु॒त॒ वि॒श्वत॑स्पात्।सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न् दे॒व एकः॑ ॥ (विश्वतश्चक्षुः) सब ओर नेत्रवाला (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर मुखवाला, (विश्वतोबाहुः) सब ओर भुजाओंवाला (उत) और (विश्वतस्पात्) सब ओर पैरावाला (एकः) अकेला (देवः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं रूप बल और पराक्रम से (पतत्रैः) गतिशील परमाणु आदि के साथ (द्यावाभूमी) सूर्य और भूमि [आदि लोकों] को (सम्) यथाविधि (जनयन्) उत्पन्न कर के (सम्) यथावत् (धमति) प्राप्त होता है ॥ १− (सहस्रबाहुः) सहस्राणि असंख्याता बाहवो भुजबलानि यस्मिन् सः (पुरुषः) पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगतौ, पूरी आप्यायने, पूर्तौ, यद्वा पॄ पालनपूरणयोः−कुषन्। पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य। यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्। इत्यपि निगमो भवति-निरु० २।३। सर्वत्र परिपूर्णः परमेश्वरः (सहस्राक्षः) बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः०। पा० ५।४।११३। इति षच्। सहस्राण्यसंख्यातानि अक्षीणि नेत्रसामर्थ्यानि यस्य सः (सहस्रपात्) संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति पादस्य लोपो बहुव्रiहौ। सहस्राणि असंख्याताः पादाः पादसामर्थ्यानि यस्मिन् सः (भूमिम्) भूगोलम् (विश्वतः) सर्वतः। बाह्याभ्यन्तरतः (वृत्वा) आच्छाद्य। व्याप्य (अति) अतीत्य। उल्लङ्घ्य (अतिष्ठत्) स्थितवान् (दशाङ्गुलम्) वृञ्लुटितनिताडिभ्य उलच्, तण्डश्च। उ० ५।९। अगि गतौ वा अङ्ग पदे लक्षणे च−उलच्। दशसु दिक्षु अङ्गुलं व्यापनं यस्य तत् यद्वा पञ्चस्थूलपञ्चसूक्ष्मभूतानि दशाङ्गुलान्यङ्गानि यस्य तज्जगत् ॥
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