अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - वैराजपरा पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः, भुरिक्पुरउष्णिक्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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शेवृ॑धक॒ शेवृ॑ध॒ पुन॑र्वो यन्तु या॒तवः॒ पुन॑र्हे॒तिः कि॑मीदिनः। यस्य॒ स्थ तम॑त्त॒ यो वः॒ प्राहै॒त्तम॑त्त॒ स्वा मां॒सान्य॑त्त ॥
स्वर सहित पद पाठशेवृ॑धक । शेवृ॑ध । पुन॑: । व॒: । य॒न्तु॒ । या॒तव॑: । पुन॑: । हे॒ति: । कि॒मी॒दि॒न॒: । यस्य॑ । स्थ । तम् । अ॒त्त॒ । य: । व॒: । प्र॒ऽअहै॑त् । तम् । अ॒त्त॒ । स्वा । मां॒सानि॑ । अ॒त्त॒ ॥२४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शेवृधक शेवृध पुनर्वो यन्तु यातवः पुनर्हेतिः किमीदिनः। यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैत्तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥
स्वर रहित पद पाठशेवृधक । शेवृध । पुन: । व: । यन्तु । यातव: । पुन: । हेति: । किमीदिन: । यस्य । स्थ । तम् । अत्त । य: । व: । प्रऽअहैत् । तम् । अत्त । स्वा । मांसानि । अत्त ॥२४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
म० १–४ कुसंस्कारों के और ५–८ कुवासनाओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(शेवृधक) अरे वधकपन में बढ़नेवाले ! (शेवृध) अरे सुख के नाश करनेवाले [दुष्ट] ! और (किमीदिनः) अरे लुतरे लोगों ! (वः) तुम्हारी (यातवः) पीड़ाएँ और (हेतिः) (चोट).... मन्त्र १ ॥२॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान ॥२॥
टिप्पणी
२–शेवृधक। शसु वधे–ड। बहुलमन्यत्रापि। उ० २।३७। इति वृधु वृद्धौ वृध दीप्तौ–क्वुन्। शे शस्त्रे हनने वधे वा वर्धते दीप्यते वा स शेवृधकः। तत्सम्बुद्धौ। शेवृध। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति शेवृ सेवने–ऋन्। धक्क नाशने–ड प्रत्ययः। शेवं सुखनाम–निघं० ३।६। शेवृ शेवं सुखं धक्कयतीति शेवृधः। हे सुखनाशक। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
घातपात की वृत्ति का अन्त
पदार्थ
१. (शेवृधक) = [शस्+ड-श, तत्र वर्धते] हे घातपात की वृत्ति में बढ़नेवाले! (शेवृध) = घातपात से ही अपने को बढ़ाने की कामनावाले! (किमीदिनः) = हे लुटेरो! (व:) = तुम्हारे (यातवः) = अनुयायी लोग (पुनः) = फिर से तुमपर ही पड़ें। २. हे (यातवः) = राक्षसी वृत्ति के लोगो! (यस्य स्थ) = जिसके तुम हो (तम अत्त) = उसी को खाओ। (यः वः प्राहैत्) = जिसने तुम्हें भेजा है (तम् अत्त) = उसे खाओ, (स्वा मांसानि अत्त) = अपने ही मांस को खाओ। ३. इसप्रकार के समाज-विरोधी तत्त्व राज्य-प्रबन्ध की उत्तमता से, स्वयं ही एक-दूसरे के विरोध में होकर नष्ट हो जाएँ। इन्हें उत्तम प्रेरणाएँ, राजदण्ड का भय व राज्य-व्यवस्था की उत्तमता से उत्पन्न हुई-हुई विवशता परिवर्तित जीवनवाला कर दे।
भावार्थ
राज्य-व्यवस्था की उत्तमता से घातपात की वृत्ति से बढ़नेवाले लोग समाप्त हो जाएँ।
भाषार्थ
शयन करनेवाले राष्ट्र के आधार पर निजवृद्धि करनेवाले हे शत्रुराजन् ! (शेवृध) शयन करनेवाले राष्ट्र के आधार पर वृद्धिरूप हे शत्रुराजन् ! (व: यातवः) तुम्हारे यातनारूप सैनिक (पुनः) फिर (यन्तु) वापिस चले जायें, (हेतिः) अस्त्र (पुनः) फिर, (किमीदिन:) किम् इदानीम् क्या अब हो रहा है ऐसे प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवाले गुप्तचर वापिस चले जायें। (यस्य स्थ) जिसके तुम हो (तम् अत्त) उसे खाओ, (य: वः प्राहैत) जिसने तुम्हें प्रेषित किया है (तम् अत्त) उसे खाओ, (स्वा मांसानि अत्त) अपने मांसों को खाओ।
टिप्पणी
[शयन किया राष्ट्र शक्तिशाली है, अतः वह निश्चिन्त हुआ सुखपूर्वक शयन करनेवाला है। परन्तु ऐसे राष्ट्र पर सैनिक आदि ने आक्रमण किया है। उन सैनिकों को शक्तिशाली राष्ट्र ने परास्त कर फिर वापिस कर दिया है। अत: उनमें पारस्परिक विद्रोह भावना हो गई है और वे परस्पर युद्ध करके विनष्ट होते हैं, निज मांसों का ही अदन करने लगते हैं -- यह अभिप्राय मन्त्र में निहित है।]
विषय
हिंसक स्त्री-पुरुषों के लिये दण्ड विधान।
भावार्थ
हे (शेवृधक) हे हिंसा के कार्य में सबसे आगे बढ़ने वाले घातक ! सर्पस्वभाव ! और हे (म्रोक) धन अपहरण करके छुप जाने वाले चोर ! और हे (अनुम्रोक) चोरों के पीछे उनके ही बुरे काम का अनुसरण करने वाले ! हे (सर्प) कुटिल मार्ग से चलने वाले पुरुष ! और हे (अनुसर्प) कुटिल पुरुष के साथी लोगो ! आप सब लोग (किमीदिनः) किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो। तुम लोग जब बुरा काम करते हो तो तुम लोगों के दिल ‘अब क्या होगा ? अब कैसे’, इत्यादि फिकिरों में धुक् २ किया करते हैं। पर यह याद रखना कि तुम्हारी ये सब (यातवः) पीड़ाएं जो तुम अन्य लोगों को देते हो (वः यन्तु) तुम्हें ही प्राप्त होंगी। (पुनः हेतिः) यह शस्त्रप्रहार भी तुमको प्राप्त होगा। अर्थात् पकड़े जाने पर तुम छोड़ नहीं दिये जाओगे, क्योंकि स्वभावतः (यस्य स्थ) जिसके तुम रहते हो (तम् अत्त) उसको खाजाते हो । (यः वः) जो तुम लोगों कों (प्राहैत्) प्रेरणा दे (तं अत्त) उसको खाजाते हो और फिर लाचार होकर (स्वा मांसानि अत्त) अपने में आप को भी नष्ट भ्रष्ट कर लेते हो ।
टिप्पणी
यद्यपि यहां मन्त्रपाठ में यन्तु’,‘स्थ’,‘अत्त’ आदि प्रयोग हैं तो भी यहां अधीष्ट अर्थ में ‘लोट’ हैं। दुर्जनों का नाश करने के लिये वेदमन्त्र में उपदेश है कि हिंसाकारी, हिंसा के भावों के वर्धक, चोर, गुप्त, घोर, कुटिलाचारी पुरुषों को पकड़ कर उनको वैसी ही पीड़ाएं दी जावें जैसी उन्होंने दूसरों को दीं, वैसे ही शस्त्र से उनका नाश किया जावे जैसे शस्त्र से वे दूसरों का नाश करते हैं। उनसे ही उनके नेता को मरवावें और उनको ऐसे बेज़ार करें कि वे आपस में एक दूसरे के प्राण के प्यासे होकर एक दूसरे को खाजावें । तब वे आप से आप नष्ट होजाते हैं । ‘शेवृ’ (घ) ‘क शेवृध’, ‘सर्पान सर्प’ ‘ म्रोकान् म्रोक्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । शेरभकादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ पुर उष्णिहौ, ३, ४ पुरोदेवत्ये पङ्क्तिः । १-४ वैराजः । ५-८ पंचपदाः पथ्यापङ्क्ति । ५, ६ भुरिजौ । ६, ७ निचृतौ। ५ चतुष्पदा बृहती । ६-८ भुरिजः। अष्टर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
The Social Negatives
Meaning
O thievish violence, O crooked friends of violence, let you all and your allies go back to yourselves, to where you come from. Let your arms and onslaughts rebound on you. Consume and destroy whoever you work for. Consume and destroy whoever appoints you to destroy. Consume and destroy your own selves.
Translation
O slayer in hiding, O slaughterer in hiding (Sevrdhaka), may your followers go back. May the weapon of the plunderer go back. May you eat him whose companion you are. May you eat him who has sent you here. May you eat your own flesh (svà māňsān).
Translation
Let the disease germ killing patient, germ giving acute pain......
Translation
O master of violence, O destroyer of peace, O mala-fide critics, may all your distressing deeds, and your weapon, fall back upon you; You eat him, who befriends you. You eat him, who shows you the right path, as a preacher. You eat the flesh of your own kith and kin!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२–शेवृधक। शसु वधे–ड। बहुलमन्यत्रापि। उ० २।३७। इति वृधु वृद्धौ वृध दीप्तौ–क्वुन्। शे शस्त्रे हनने वधे वा वर्धते दीप्यते वा स शेवृधकः। तत्सम्बुद्धौ। शेवृध। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति शेवृ सेवने–ऋन्। धक्क नाशने–ड प्रत्ययः। शेवं सुखनाम–निघं० ३।६। शेवृ शेवं सुखं धक्कयतीति शेवृधः। हे सुखनाशक। अन्यत् पूर्ववत् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(শেবৃধক) শায়িত রাষ্ট্রের প্রতি নিজ বুদ্ধির প্রেরক হে শত্রুরাজন্ ! (শেবৃধ) শায়িত রাষ্ট্রের প্রতি নিজ বুদ্ধিরূপ হে শত্রুরাজন্ ! (বঃ যাতবঃ) তোমার যাতনারূপ সৈনিক (পুনঃ) পুনরায় (যন্ত) ফিরে যাক, (হেতিঃ) অস্ত্র (পুনঃ) পুনরায়, (কিমীদিনঃ) কিম্ ইদানীম্ এখন কি হচ্ছে এমন প্রশ্নপূর্বক ভেদ গ্রহণকারী গুপ্তচর ফিরে যাক। (যস্য স্থ) যার তুমি হও (তম্ অত্ত) তাঁকে ভক্ষণ/গ্রাস/নাশ করো, (যঃ বঃ প্রাহৈৎ) যে তোমাকে প্রেরিত করেছে (তম্ অত্ত) তাঁকে ভক্ষণ/গ্রাস/নাশ করো, (স্বা মাংসানি অত্ত) নিজের মাংস ভক্ষণ/গ্রাস/নাশ করো।
टिप्पणी
[শায়িত রাষ্ট্র হল শক্তিশালী, অতঃ তা নিশ্চিন্তে শয়ন করে। কিন্তু এমন রাষ্ট্রে সৈনিকরা আক্রমণ করেছে। সেই সৈনিকদের শক্তিশালী রাষ্ট্র পরাস্ত করে আবার ফিরিয়ে দিয়েছে। অতঃ তাঁদের মধ্যে পারস্পরিক বিদ্রোহ ভাবনা হয়ে গেছে এবং তাঁরা পরস্পর যুদ্ধ করে বিনষ্ট হয়, নিজ মাংসের নাশ করে– এই অভিপ্রায় মন্ত্রে নিহিত রয়েছে।]
मन्त्र विषय
ম০ ১–৪। কুসংস্কারাণাং ৫–৮ কুবাসনানাং চ নাশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(শেবৃধক) বধকর্মে উৎসুক ! (শেবৃধ) সুখ বিনাশকারী [দুষ্ট] ! ও (কিমীদিনঃ) লুণ্ঠনকারী ! (বঃ) তোমাদের (যাতবঃ) পীড়া/যাতনা ও (হেতিঃ) আঘাত (পুনঃ-পুনঃ) পুনঃ-পুনঃ (যন্তু) চলে যাক। তোমরা (যস্য) যার [সাথী] (স্থ) হও, (তম্) সেই [পুরুষকে] (অত্ত) ভক্ষণ করো, (যঃ) যে [পুরুষ] (বঃ) তোমাদের (প্রাহৈৎ=প্রাহৈষীৎ) প্রেরণ করেছে, (তম্) তাঁকে (অত্ত) ভক্ষণ করো, (স্বা=স্বানি) নিজের (মাংসানি) মাংস (অত্ত) ভক্ষণ করো ॥২॥
भावार्थ
মন্ত্র ১ এর সমান ॥২॥
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