अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - वैराजपरा पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः, निचृत्पुरोदेवत्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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सर्पानु॑सर्प॒ पुन॑र्वो यन्तु या॒तवः॒ पुन॑र्हे॒तिः कि॑मीदिनः। यस्य॒ स्थ तम॑त्त॒ यो वः॒ प्राहै॒त्तम॑त्त॒ स्वा मां॒सान्य॑त्त ॥
स्वर सहित पद पाठसर्प॑ । अनु॑ऽसर्प । पुन॑: । व॒: । य॒न्तु॒ । या॒तव॑: । पुन॑: । हे॒ति: । कि॒मी॒दि॒न: । यस्य॑ । स्थ । तम् । अ॒त्त॒ । य: । व॒: । प्र॒ऽअहै॑त् । तम् । अ॒त्त॒ । स्वा । मां॒सानि॑ । अ॒त्त॒ ॥२४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्पानुसर्प पुनर्वो यन्तु यातवः पुनर्हेतिः किमीदिनः। यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैत्तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥
स्वर रहित पद पाठसर्प । अनुऽसर्प । पुन: । व: । यन्तु । यातव: । पुन: । हेति: । किमीदिन: । यस्य । स्थ । तम् । अत्त । य: । व: । प्रऽअहैत् । तम् । अत्त । स्वा । मांसानि । अत्त ॥२४.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
म० १–४ कुसंस्कारों के और ५–८ कुवासनाओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(सर्प) अरे साँप [क्रूरस्वभाव !] (अनुसर्प) अरे साँपों के साथी ! (किमीदिनः) अरे तुम लुतरे लोगों ! (वः) तुम्हारी (यातवः) पीड़ाएँ और (हेतिः) चोट (पुनः-पुनः) लौट-लौट कर (यन्तु) चली जावें..... मन्त्र १ ॥४॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान ॥४॥
टिप्पणी
४–सर्प–सृप्लृ गतौ पचाद्यच्। सर्पति इतस्ततो गच्छतीति सर्पः। हे हिंस्रजन्तुविशेष ! तद्वत् क्रूरस्वभाव पुरुष ! अनुसर्प। सर्पान् अनुसृत्य सह व्याप्य गच्छतीति अनुसर्पः। हे सर्पानुसारिन्। हिंस्रसहायक ॥
विषय
कुटिलता का अन्त
पदार्थ
१.हे (सर्प) = कुटिल चालवाले! (अनुसर्प) = हे कुटिल-पुरुष के अनुयायिन् ! [सर्पति कुटिलतां गच्छति, तमनुसर्पति]। (किमीदिन:) = हे लुटरो! (व:) = तुम्हारे (यातव:) = पीड़ा देनेवाले राक्षसी वृत्ति के लोग (पुनः यन्तु) = फिर से तुम्हें प्राप्त हों, (हेति: पुन:) = तुम्हारे अस्त्र-शस्त्र तुमपर ही पड़ें। २. (यस्य स्थ) = जिसके तुम हो (तम् अत्त) = उसे ही खाओ, (य:) = जो (वः) = तुम्हें (प्राहैत्) = भेजता है (तम् अत्त) = उसे नष्ट करो और (स्वा मांसानि अत्त) = अपने ही मांसों को खाओ।
भावार्थ
राष्ट्र में कुटिलवृत्ति के पुरुष न रहें।
भाषार्थ
[सर्पानुसर्प= म्रोक और अनुम्रोक का ही सर्पानुसर्प द्वारा पुनः कथन हुआ है। ये वे सेनाधिपति तथा तदनुरूप सेनानायक हैं, जोकि सर्प के सदृश सदा कुटिल गति अर्थात् चाल से आक्रमण करने में कुशल हैं। सर्प सदा कुटिल गति से गमन करता है, सीधी गति से नहीं। सर्प= सृप्लृ गतौ (भ्वादिः), गति अर्थात् कुटिल गति, शेष अर्थ पूर्ववत्।]
विषय
हिंसक स्त्री-पुरुषों के लिये दण्ड विधान।
भावार्थ
हे (शेवृधक) हे हिंसा के कार्य में सबसे आगे बढ़ने वाले घातक ! सर्पस्वभाव ! और हे (म्रोक) धन अपहरण करके छुप जाने वाले चोर ! और हे (अनुम्रोक) चोरों के पीछे उनके ही बुरे काम का अनुसरण करने वाले ! हे (सर्प) कुटिल मार्ग से चलने वाले पुरुष ! और हे (अनुसर्प) कुटिल पुरुष के साथी लोगो ! आप सब लोग (किमीदिनः) किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो। तुम लोग जब बुरा काम करते हो तो तुम लोगों के दिल ‘अब क्या होगा ? अब कैसे’, इत्यादि फिकिरों में धुक् २ किया करते हैं। पर यह याद रखना कि तुम्हारी ये सब (यातवः) पीड़ाएं जो तुम अन्य लोगों को देते हो (वः यन्तु) तुम्हें ही प्राप्त होंगी। (पुनः हेतिः) यह शस्त्रप्रहार भी तुमको प्राप्त होगा। अर्थात् पकड़े जाने पर तुम छोड़ नहीं दिये जाओगे, क्योंकि स्वभावतः (यस्य स्थ) जिसके तुम रहते हो (तम् अत्त) उसको खाजाते हो । (यः वः) जो तुम लोगों कों (प्राहैत्) प्रेरणा दे (तं अत्त) उसको खाजाते हो और फिर लाचार होकर (स्वा मांसानि अत्त) अपने में आप को भी नष्ट भ्रष्ट कर लेते हो ।
टिप्पणी
यद्यपि यहां मन्त्रपाठ में यन्तु’,‘स्थ’,‘अत्त’ आदि प्रयोग हैं तो भी यहां अधीष्ट अर्थ में ‘लोट’ हैं। दुर्जनों का नाश करने के लिये वेदमन्त्र में उपदेश है कि हिंसाकारी, हिंसा के भावों के वर्धक, चोर, गुप्त, घोर, कुटिलाचारी पुरुषों को पकड़ कर उनको वैसी ही पीड़ाएं दी जावें जैसी उन्होंने दूसरों को दीं, वैसे ही शस्त्र से उनका नाश किया जावे जैसे शस्त्र से वे दूसरों का नाश करते हैं। उनसे ही उनके नेता को मरवावें और उनको ऐसे बेज़ार करें कि वे आपस में एक दूसरे के प्राण के प्यासे होकर एक दूसरे को खाजावें । तब वे आप से आप नष्ट होजाते हैं । ‘शेवृ’ (घ) ‘क शेवृध’, ‘सर्पान सर्प’ ‘ म्रोकान् म्रोक्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । शेरभकादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ पुर उष्णिहौ, ३, ४ पुरोदेवत्ये पङ्क्तिः । १-४ वैराजः । ५-८ पंचपदाः पथ्यापङ्क्ति । ५, ६ भुरिजौ । ६, ७ निचृतौ। ५ चतुष्पदा बृहती । ६-८ भुरिजः। अष्टर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
The Social Negatives
Meaning
O snake, O crooked movers in glittering garb, let you and your allied forces go back to yourselves. Let your arms and your biting onslaughts return on you. Consume and destroy whoever you work for. Bite and destroy whoever appoints you. Consume and destroy your own selves.
Translation
O reptile (sarpa),O crawler, may your follower (anusarpa) go back. May the weapon of the plunderer go back. May you eat him whose you are. May you eat him who has sent you here. May you eat your own flesh.
Translation
Let the disease germ of reptile family, the germ following it...
Translation
O crooked person, O friend of a crooked person, O mala-fide critics, may all your distressing deeds, and your weapon, fall back upon you, you eat him, who befriends you, eat him, who shows you the right path as a preacher. You eat the flesh of your own kith and kin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–सर्प–सृप्लृ गतौ पचाद्यच्। सर्पति इतस्ततो गच्छतीति सर्पः। हे हिंस्रजन्तुविशेष ! तद्वत् क्रूरस्वभाव पुरुष ! अनुसर्प। सर्पान् अनुसृत्य सह व्याप्य गच्छतीति अनुसर्पः। हे सर्पानुसारिन्। हिंस्रसहायक ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[সর্পানুসর্প=ম্রোক এবং অনুম্রোক এর সর্পানুসর্প দ্বারা পুনঃ বিবৃতি হয়েছে। এঁরা সেই সেনাধিপতি এবং তদনুরূপ সেনানায়ক, যারা সর্পের সদৃশ সদা কুটিল গতি অর্থাৎ চালে আক্রমণ করার ক্ষেত্রে কুশল। সর্প সদা কুটিল গতিতে গমন করে, সোজা গতিতে নয়। সর্প =সৃপ্ল্ গতৌ (ভ্বাদিঃ), গতি অর্থাৎ কুটিল গতি, শেষ অর্থ পূর্ববৎ ।]
मन्त्र विषय
ম০ ১–৪। কুসংস্কারাণাং ৫–৮ কুবাসনানাং চ নাশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(সর্প) সাপ [ক্রূরস্বভাবযুক্ত !] (অনুসর্প) সাপের সাথী ! (কিমীদিনঃ) লুণ্ঠনকারী ! (বঃ) তোমাদের (যাতবঃ) পীড়া ও (হেতিঃ) আঘাত (পুনঃ-পুনঃ) পুনঃ-পুনঃ (যন্তু) চলে যাক। তোমরা (যস্য) যার [সাথী] (স্থ) হও, (তম্) সেই [পুরুষকে] (অত্ত) ভক্ষণ করো, (যঃ) যে [পুরুষ] (বঃ) তোমাদের (প্রাহৈৎ=প্রাহৈষীৎ) প্রেরণ করেছে, (তম্) তাঁকে (অত্ত) ভক্ষণ করো, (স্বা=স্বানি) নিজের (মাংসানি) মাংস (অত্ত) ভক্ষণ করো ॥৪॥
भावार्थ
মন্ত্র ১ এর সমান ॥৪॥
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