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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः, सौप्रजाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    0

    आ॒शीर्ण॒ ऊर्ज॑मु॒त सौ॑प्रजा॒स्त्वं दक्षं॑ धत्तं॒ द्रवि॑णं॒ सचे॑तसौ। जयं॒ क्षेत्रा॑णि॒ सह॑सा॒यमि॑न्द्र कृण्वा॒नो अ॒न्यानध॑रान्त्स॒पत्ना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽशी: । न॒: । ऊर्ज॑म् । उ॒त । सौ॒प्र॒जा॒:ऽत्वम् । दक्ष॑म् । ध॒त्त॒म् । द्रवि॑णम् । सऽचे॑तसौ । जय॑म् । क्षेत्रा॑णि । सह॑सा । अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । कृ॒ण्वा॒न: । अ॒न्यान् । अध॑रान् । स॒ऽपत्ना॑न् ॥२९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशीर्ण ऊर्जमुत सौप्रजास्त्वं दक्षं धत्तं द्रविणं सचेतसौ। जयं क्षेत्राणि सहसायमिन्द्र कृण्वानो अन्यानधरान्त्सपत्नान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽशी: । न: । ऊर्जम् । उत । सौप्रजा:ऽत्वम् । दक्षम् । धत्तम् । द्रविणम् । सऽचेतसौ । जयम् । क्षेत्राणि । सहसा । अयम् । इन्द्र । कृण्वान: । अन्यान् । अधरान् । सऽपत्नान् ॥२९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य अपनी उन्नति करता रहे, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारे लिये (आशीः) आशीर्वाद [हो], (सचेतसौ) हे समान चित्तवाले [माता-पिता तुम दोनों] ! (ऊर्जम्) अन्न, (सौप्रजास्त्वम्=०–जस्त्वम्) उत्तम प्रजाएँ, (दक्षम्) बल, (उत) और (द्रविणम्) धन (धत्तम्) दान करो ॥ (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर (अयम्) यह [जीव] (सहसा) [आपके] बल से (जयम्) जय और (क्षेत्राणि) ऐश्वर्य के कारण खेतों को (कृण्वानः) करता हुआ और (अन्यान्) जीवित [वा भिन्न-भिन्न] (सपत्नान्) विपक्षियों को (अधरान्) नीचे [करता हुआ] [जीवाति=जीता रहे–मं० २ से] ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (जीवाति) जीता रहे, इस पद की अनुवृत्ति मं० २ से है। माता-पिता प्रयत्न करें कि उनके पुत्र-पुत्री सब सन्तान, बड़े अन्नवान्, बलवान् और धनवान् होकर, उत्तम गृहस्थी बनें और जितेन्द्रिय होकर अपने दोषों और शत्रुओं का नाश करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–आशीः। आङः शासु इच्छायाम्–क्विप्, उपधाया इत्त्वम्। आशीर्वादः। मङ्गलवचनम्। नः। अस्मभ्यम्+अस्तु। ऊर्जम्। ऊर्ज बलप्राणनयोः–क्विप्। ऊर्गित्यन्ननामोर्जयतीति सतः पक्वं सुप्रवृक्णमिति वा–निरु० ३।८। ऊर्जयति प्रबलति बलवन्तं प्राणवन्तं वा करोतीति सा ऊर्क्। अन्नम्। उत। अपि च। सौप्रजास्त्वम्। नित्यमसिच् प्रजामेधयोः। पा० ५।४।१२२। इति सु+प्रजा–असिच्। छान्दसौ वृद्धिदीर्घौ। सुप्रजस्त्वम्। शोभनसन्तानत्वम्। दक्षम्। दक्ष वृद्धौ–अच्। पुष्टिम्। दक्षः=बलम्। निघ० २।९। धत्तम्। युवां धारयतम्। स्थापयतम्। द्रविणम्। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २२।५०। इति द्रु गतौ–इनन्। धनम्। निघ० २।१०। सचेतसौ। समानमनसौ। मातापितरौ। क्षेत्राणि। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति क्षि क्षयैश्वर्यगतिनिवासेषु–त्रन्। क्षेत्रं क्षियतेर्निवासकर्मणः–निरु० १०।१४। ऐश्वर्याणि। भूमिप्रदेशान्। सहसा। बलेन तव दत्तेन। अयम्। निर्दिष्टः पुरुषः। इन्द्र। हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन्। कृण्वानः। कुर्वाणः। उत्पादयन्। अन्यान्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति अन जीवने–य। अनिति जीवतीति अन्यः। जीवितान्। भिन्नान्। अधरान्। न+धृङ्–अच्। अधोगतान्। नीचान्। सपत्नान्। अ० १।९।२। सहपतनशीलान्। शत्रून् ॥

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    विषय

    उत्तम जीवन

    पदार्थ

    १. प्रभु गृहस्थों से कहते हैं कि (सचेतसौ) = ज्ञान और स्मृतिवाले होते हुए तुम दोनों (नः आशी:) = हमारी इच्छा को-प्रभु-प्राप्ति की कामना को, (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (उत) = और (सौप्रजास्त्वम्) = उत्तम सन्तानों को, (दक्षम्) = उन्नति व कुशलता को तथा (द्रविणम्) = धन को (धत्तम्) = धारण करो। २. (अयम्) = यह गृहपति (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय बना रहकर (सहसा) = शत्रुओं का मर्षण कर देनेवाली शक्ति से (जयम्) = विजय को तथा (क्षेत्राणि) = विकास के योग्य शरीरों को [इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमत्यभिधीयते] (कृण्वान:) = करता हुआ। (अन्यान्) = अन्य (सपत्नान्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (अधरान् कृण्वान:) = पादाक्रान्त करता है। यह शरीर में किसी प्रकार के रोगों को नहीं आने देता।

    भावार्थ

    उत्तम जीवन का साधन यही है कि हम सचेत बने रहें, प्रभु का स्मरण रक्खें। 'शक्ति सुप्रजा, दक्षता व द्रविण' को सिद्ध करने के लिए यत्नशील हो। विजयी बनें। शरीरों को ठीक रक्खें। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को प्रबल न होने दें।

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    भाषार्थ

    (सचेतसौ) एकचित्त हुए तुम दोनों हे माता-पिता (न:) हमारे इस सद्गृहस्थी को (आशीः) आशीर्वाद, (ऊर्जम्) बल और प्राण से सम्पन्न अन्न, (उत) तथा (सौप्रजास्त्वम्) उत्तम प्रजा, (दक्षम् ) दक्षता (द्रविणम्) तथा धन (धत्तम्) प्रदान करो। (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर! (अयम्) यह सद्गृहस्थी (क्षेत्राणि) निज स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों पर, (सहसा) आसुर शत्रुपराभव द्वारा, (जयम् कृण्वानः) जय प्राप्त कर (अन्यान् सपत्नान्) अन्य शत्रुओं को (अधरान्) पराजित करें।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में आशीर्वाद तथा ऊर्ज आदि को प्राप्त कर और निज त्रिविध शरीरों पर विजय प्राप्त कर, आसुर भावों और कर्मों को पराजित करने की अभिलाषा प्रकट की है। ऊर्जम् =ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः), अर्थात् बल और प्राण देनेवाला अन्न। ब्रह्मचारी के गुरुवर्ग, सद्गृहस्थी में, (नः) द्वारा निज आत्मीयता प्रकट करते हैं। सौप्रजास्त्वम्= सुप्रजसो भावः सौप्रजास्त्वम् शोभनापत्यत्वम्, असिच् समासान्त: (अष्टा० ५।४।१२२) (सायण)।]

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    विषय

    ब्रह्मचर्य और दीर्घ जीवन की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे माता और पिता ! आप दोनों (सचेतसौ) समान चित्त होकर (नः) हमारे (आशीः) आशीर्वाद (धत्तम्) प्रदान करो (उत) और (सौप्रजास्त्वं) उत्तम प्रजाओं के उत्पादक सामर्थ्य (दक्षं) बल और (द्रविणं) ऐश्वर्य को (धत्तं) धारण करो और (जयं) जय (क्षेत्राणि) और धन धान्य सम्पन्न खेतों को (धत्तं) प्राप्त करो। हे इन्द्र ! परमात्मन् ! (अयम्) यह कुमार, नव गृहपति (अन्यान्) अन्य (सपत्नान्) अपने शत्रुओं को (सहसा) बल से (अधरान्) नीचा (कृण्वानः) दिखाता हुआ (जयं) जय को और (क्षेत्राणि) धान्य सम्पन्न क्षेत्रों को भी प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    ‘आशीर्णे’ इति वेबरकामितः पाठः। ‘आशीर्मे’ इति तै० सं०। ‘इश दधातु द्रविणं सुवर्चसम्’ तै० सं० । मै० सं०. (प्र०) ‘उत्त सुप्रजस्त्वं’ इति पैप्प० सं०। ‘सं जयात क्षेत्राणि’ इति पैप्प० सं०। ‘सजयान्’ इति मै० सं०, तै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता वहवो देवताः। १ अनुष्टुप्। २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः। ४ पराबृहती निचृतप्रस्तारा पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Life and Progress

    Meaning

    O heaven, O earth, O father and mother, both of equal mind in unison, may your blessings shower on us. Bear and bring this man strength and energy, noble progeny, efficiency and expertise for success, wealth and excellence. O lord omnipotent, Indra, may he, winning fields of life’s battles, creating new fields of possibility and progress, subduing negativities and fighting adversaries, live a full hundred years of life and fulfilment as your dedicated child.

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    Translation

    May our Lord, pleased with our prayer, bestow on us vigour and good progeny, dexterity as well as riches. O resplendent one, may this sacrificer win the fields (ksetra) and victory, with his might, putting other rivals under his feet (i.e.,under his subjugation).

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    Translation

    O’ Ye father and mother; shower your blessings upon us, you being concordant in your thought and actions grant us splendor, strength, prosperity spirit of victory, fields for agriculture. O Almighty Lord; May this child live for hundred autumns setting intrepidly his rest of the foes under his feet.

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    Translation

    O one-minded father and mother, give us blessing, food, good progeny, wisdom and wealth. O God, may this Brahmchari, through self-help, gaining victory in diverse fields of activity, subdue till his foes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–आशीः। आङः शासु इच्छायाम्–क्विप्, उपधाया इत्त्वम्। आशीर्वादः। मङ्गलवचनम्। नः। अस्मभ्यम्+अस्तु। ऊर्जम्। ऊर्ज बलप्राणनयोः–क्विप्। ऊर्गित्यन्ननामोर्जयतीति सतः पक्वं सुप्रवृक्णमिति वा–निरु० ३।८। ऊर्जयति प्रबलति बलवन्तं प्राणवन्तं वा करोतीति सा ऊर्क्। अन्नम्। उत। अपि च। सौप्रजास्त्वम्। नित्यमसिच् प्रजामेधयोः। पा० ५।४।१२२। इति सु+प्रजा–असिच्। छान्दसौ वृद्धिदीर्घौ। सुप्रजस्त्वम्। शोभनसन्तानत्वम्। दक्षम्। दक्ष वृद्धौ–अच्। पुष्टिम्। दक्षः=बलम्। निघ० २।९। धत्तम्। युवां धारयतम्। स्थापयतम्। द्रविणम्। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २२।५०। इति द्रु गतौ–इनन्। धनम्। निघ० २।१०। सचेतसौ। समानमनसौ। मातापितरौ। क्षेत्राणि। दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। इति क्षि क्षयैश्वर्यगतिनिवासेषु–त्रन्। क्षेत्रं क्षियतेर्निवासकर्मणः–निरु० १०।१४। ऐश्वर्याणि। भूमिप्रदेशान्। सहसा। बलेन तव दत्तेन। अयम्। निर्दिष्टः पुरुषः। इन्द्र। हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन्। कृण्वानः। कुर्वाणः। उत्पादयन्। अन्यान्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। इति अन जीवने–य। अनिति जीवतीति अन्यः। जीवितान्। भिन्नान्। अधरान्। न+धृङ्–अच्। अधोगतान्। नीचान्। सपत्नान्। अ० १।९।२। सहपतनशीलान्। शत्रून् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (সচেতসৌ) একচিত্ত হয়ে তোমরা দুজন হে মাতা-পিতা ! (নঃ) আমাদের এই সদ্গৃহস্থীকে (আশীঃ) আশীর্বাদ, (ঊর্জম্) বল ও প্রাণসম্পন্ন অন্ন, (উত) এবং (সৌপ্রজাস্ত্বম্) উত্তম প্রজা, (দক্ষম্) দক্ষতা, (দ্রবিণম্) এবং ধন (ধত্তম্) প্রদান করো। (ইন্দ্র) হে পরমৈশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর ! (অয়ম্) এই সদ্গৃহস্থী যেন (ক্ষেত্রাণি) নিজ স্থূল, সূক্ষ্ম এবং কারণ শরীরে, (সহসা) আসুরিক শত্রুপরাজয় দ্বারা, (জয়ম্ কৃণ্বানঃ) বিজয় প্রাপ্ত করে (অন্যান্ সপত্নান) অন্য শত্রুদের (অধরান্) পরাজিত করে।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে আশীর্বাদ ও ঊর্জ/শক্তি, তেজ আদি প্রাপ্ত করে এবং নিজ বিবিধ শরীরে বিজয় প্রাপ্ত করে, আসুরিক-ভাব এবং কর্মকে পরাজিত করার অভিলাষা প্রকট করা হয়েছে। ঊর্জম্ = ঊর্জ বলপ্রাণনয়োঃ (চুরাদিঃ), অর্থাৎ বল ও প্রাণদায়ক অন্ন। ব্রহ্মচারীর গুরুবর্গ, সদ্গৃহস্থী, (নঃ) দ্বারা নিজ আত্মীয়তা প্রকট করে। সৌপ্রজাস্ত্বম্= সুপ্রজসো ভাবঃ সৌপ্রজাস্ত্বম্ শোভনাপত্যত্বম্, অসিচ্ সমাসান্তঃ (অষ্টা০ ৫।৪।১২২) (সায়ণ)।]

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    मन्त्र विषय

    মনুষ্যঃ স্বোন্নতিং কুর্যাদিত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের জন্য (আশীঃ) আশীর্বাদ [হোক], (সচেতসৌ) হে সমান চিত্ত-সম্পন্ন/সমমনস্ক/সদৃশমনা [মাতা-পিতা তোমরা দুজন] ! (ঊর্জম্) অন্ন, (সৌপ্রজাস্ত্বম্=০–জস্ত্বম্) উত্তম প্রজা, (দক্ষম্) বল, (উত)(দ্রবিণম্) ধন (ধত্তম্) দান করো ॥ (ইন্দ্র) হে পরম ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বর (অয়ম্) এই [জীব] (সহসা) [আপনার] বল দ্বারা (জয়ম্) জয় ও (ক্ষেত্রাণি) ঐশ্বর্যের কারণ কৃষিক্ষেত (কৃণ্বানঃ) সম্পাদন করে এবং (অন্যান্) জীবিত [বা ভিন্ন-ভিন্ন] (সপত্নান্) বিপক্ষদের (অধরান্) নীচু/অধোগামী [করে] [জীবাতি=জীবিত থাকুক–মং০ ২ থেকে] ॥৩॥

    भावार्थ

    এই মন্ত্রে (জীবাতি) জীবিত থাকুক, এই পদের অনুবৃত্তি মং০ ২ দ্বারা। মাতা-পিতা চেষ্টা করুক যাতে, তাঁর পুত্র-পুত্রী সকল সন্তান, অন্নবান্, বলবান্ ও ধনবান্ হয়ে, উত্তম গৃহস্থী হয় এবং জিতেন্দ্রিয় হয়ে নিজের দোষ এবং শত্রুদের নাশ করে॥৩॥

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