अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अश्विनीकुमारौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
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शि॒वाभि॑ष्टे॒ हृद॑यं तर्पयाम्यनमी॒वो मो॑दिषीष्ठाः सु॒वर्चाः॑। स॑वा॒सिनौ॑ पिबतां म॒न्थमे॒तम॒श्विनो॑ रू॒पं प॑रि॒धाय॑ मा॒याम् ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वाभि॑: । ते॒ । हृद॑यम् । त॒र्प॒या॒मि॒ । अ॒न॒मी॒व: । मो॒दि॒षी॒ष्ठा॒: । सु॒ऽवर्चा॑: । स॒ऽवा॒सिनौ॑ । पि॒ब॒ता॒म् । म॒न्थम् । ए॒तम् । अ॒श्विनो॑: । रू॒पम् । प॒रि॒ऽधाय॑ । मा॒याम् ॥२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवाभिष्टे हृदयं तर्पयाम्यनमीवो मोदिषीष्ठाः सुवर्चाः। सवासिनौ पिबतां मन्थमेतमश्विनो रूपं परिधाय मायाम् ॥
स्वर रहित पद पाठशिवाभि: । ते । हृदयम् । तर्पयामि । अनमीव: । मोदिषीष्ठा: । सुऽवर्चा: । सऽवासिनौ । पिबताम् । मन्थम् । एतम् । अश्विनो: । रूपम् । परिऽधाय । मायाम् ॥२९.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य अपनी उन्नति करता रहे, इसका उपदेश।
पदार्थ
[हे जीव !] (शिवाभिः) मङ्गल करनेवाली [विद्याओं वा शक्तियों] से (ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (तर्पयामि) मैं तृप्त करता हूँ, तू (अनमीवः) नीरोग और (सुवर्चाः) उत्तमकान्तिवाला होकर (मोदिषीष्ठाः) हर्ष प्राप्त कर। (सवासिनौ) मिलकर निवास करनेवाले दोनों [स्त्री-पुरुष] (अश्विनोः) माता-पिता के (रूपम्) स्वभाव और (मायाम्) बुद्धि को (परिधाय) सर्वथा धारण करके (एतम्) इस (मन्थम्) रस का (पिबताम्) पान करें ॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर कहता है कि हे मनुष्य ! तेरे आनन्द के लिये मैंने तुझे अनेक विद्याएँ और शक्तियाँ दी हैं, तुम दोनों स्त्री-पुरुषों ! माता-पितारूप से संसार का उपकार करके इस [मेरे दिये] आनन्दरस को भोगो ॥६॥
टिप्पणी
६–शिवाभिः। शिव–टाप्। अ० २।६।३। मङ्गलवतीभिर्विद्याभिः शक्तिभिर्वा। (शिवाभिष्टे) युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्तःपादम्। पा० ८।३।१०३। इति षत्वम्। ते। तव। हृदयम्। वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१००। इति हृञ्। कयन् दुक् च। हरति स्वीकरोति विषयानिति। मनः। तर्पयामि। सुखयामि। अनमीवः। इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति अम रोगे–वन्, ईडागमः। रोगरहितः। मोदिषीष्ठाः। मुद हर्षे। आशिषि लिङ्। मोदस्व। हृष्टो भव। सुवर्चाः। सु+वर्च–असुन्। सुतेजस्कः। सवासिनौ। व्रते। पा० ३।२।८०। इति वस निवासे–णिनि। समानस्य सभावः। पुमान् स्त्रिया। पा० ३।२।६७। इत्येकशेषः। समानम् एकत्र निवसन्तौ स्त्रीपुरुषौ। पिबताम्। पीतं कुरुताम्। मन्थम्। मन्थ गाहे–घञ् विलोडनम्। रसम्। एतम्। निर्दिष्टम्। वेदोक्तम्। अश्विनोः। अशूप्रुशिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ–क्वन्। अश्वो व्याप्तिः–इनि प्रत्ययः। एकशेषः पूर्ववत्। अश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके राजानौ पुण्यकृतावित्यैतिहासिकाः–निरु० १२।१। कार्येषु व्याप्तिमतोः, जननीजनकयोः। रूपम्। स्वभावम्। परिधाय। धृत्वा। मायाम्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। माङ् माने य, टाप्। बुद्धिम्। प्रज्ञाम्–निघ० ३।९ ॥
विषय
जल व तक्र का प्रयोग
पदार्थ
१. गतमन्त्र की समाप्ति पर 'आप:' शब्द आया है। उन्हीं का संकेत करते हुए कहते हैं कि (शिवाभि:) = इन कल्याण करनेवाले जलों से (ते) = तेरे (हृदयम्) = हदय को (तर्पयामि) = तृप्त करता हूँ। ये तेरे लिए (हृद्य) = हृदय को शान्ति देनेवाले हों। इनके ठीक प्रयोग से (अनमीव:) = नीरोग होता हुआ तू (सवर्चा:) = उत्तम वर्चस्व तेजवाला बनकर (मोदिषीष्ठा:) = आनन्द का अनुभव कर । जल का समुचित प्रयोग वस्तुत: तृप्ति देनेवाला है, नीरोगता का साधन है, शक्तिशाली बनाता है और इसप्रकार आनन्दित करता है। २. घर में पति-पत्नी के लिए कहते हैं कि तुम दोनों सवासिनौ घर में मिलकर, प्रेम से रहनेवाले होकर (अश्विनो: रूपम्) = द्यावापृथिवी के रूप को (परिधाय) = धारण करके[ इमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ- श०४.१.५.१६, पति धुलोक के समान है तो पत्नी पृथिवीलोक के] (मायाम् परिधाय) = प्रज्ञा को प्राप्त करे (एतम्) = इस (मन्थम्) = मन्थन से उत्पन्न तक्र [छाछ] को पीओ। इस तक्र के प्रयोग से प्रायः सब रोग दग्ध हो जाते हैं [न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगा:]। शरीर में आँतों के अन्तिम प्रदेश में कुछ ऐसे कृमि हो जाते है जो इस तक से ही समाप्त होते हैं।
भावार्थ
जल व तक्र के प्रयोग से पति-पत्नी स्वस्थ बनते हैं। द्यावापृथिवी के समान मस्तिष्क में प्रकाशमय व शरीर में दृढ़ होते हैं।
भाषार्थ
हे सद्गृहस्थिन् ! (ते ) तेरे ( हृदय ) हृदय को (शिवाभिः) कल्याणकारी जलों द्वारा (तर्पयामि) मैं वैद्य (मन्त्र ७ ) तृप्त करता हूँ । (अनमीवः) रोगरहित, (सुवर्चाः) उत्तम तेजवाला हुआ (मोदिषीष्ठाः१) तू प्रमुदित हो। (सवासिनौ) तुम दोनों [पति-पत्नी ] सहवासी हुए (एतम् मन्थम्) इस मठे का (पिवताम्) पान किया करो, और (अश्विनो:) सूर्य-चन्द्र के (मायाम् रूपम्) मायारूप को (परिधाय) धारण कर। [विचरो।]
टिप्पणी
[जल-चिकित्सा द्वारा हृदय तृप्त रहता, रोगरहित और प्रमुदित होता है। हृदय के रोग न होने पर समग्र शरीर स्वस्थ रहता है, और तेज बढ़ता है। इसके लिए मठा पीते रहना चाहिए। यह दधि का मठा है। इससे पति-पत्नी का रूप सूर्य और चन्द्र के समान चमकता है। यह रूप मायारूप है, कृत्रिम है। पत्नी चन्द्र है और पति सूर्य है। चन्द्र निज चमक सूर्य से पाता है, और पत्नी पति से।] [१. मोदिषीष्ठाः= मुद हर्षे आशिषि लिङ् (सायण)।]
विषय
ब्रह्मचर्य और दीर्घ जीवन की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे कुमार ! (ते) तेरे (हृदयं) हृदय को (शिवाभिः) कल्यणकारिणी शिक्षाओं से और शरीर को कल्याणकारी जलधाराओं से (तर्पयामि) तृप्त करता हूं। तू (अनमीवः) रोग से रहित और (सुवर्चाः) उत्तम ब्रह्मचर्य से प्राप्त तेज से सम्पन्न होकर (मोदिषीष्ठाः) अति प्रसन्न रह। हे माता पिताओं, वा वर बधुओं ! आप दोनों (अश्विनोः) आत्मवान् जितेन्द्रिय, पथ्यकारी, ज्ञानी स्त्री पुरुषों के (रूपं) स्वरूप (मायां) और शोभा को (परिधाय) धारण करके (सवासिनौ) एकही व्रत में निष्ठ होकर दोनों समान रूप के वस्त्र धारण करके या एकत्र रह कर (एतं) इस बलोत्पादक (मन्थम्) सत्तू के बने घोल या मठे को (पिबतां) पान करो। जिससे आप दोनों का बल बढ़े और स्वास्थ्य बना रहे । कुमार ब्रह्मचर्य पालन करें और मां बाप सदा पुष्टिकर अन्नों से का उपभोग कर व्रतनिष्ठ रहकर, एकसे वस्त्र पहन कर, समान रूप धर्म-कार्य किया करें ।
टिप्पणी
सवासिनौ समानं वस्त्रंवसानौ एकत्र वसन्तौ वा इति सायणः। आच्छादनार्थस्य निवासस्य वा वसतेर्व्रते णिनिः। व्रतं शास्त्रीयो नियमः। समानस्य च्छन्दसिं सभावः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता वहवो देवताः। १ अनुष्टुप्। २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः। ४ पराबृहती निचृतप्रस्तारा पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Life and Progress
Meaning
I gratify and fulfill your heart and soul with auspicious thoughts, ambitions and will. Healthy, happy and brilliant, enjoy life to the full. Both of you (bride and bride-groom) having taken the human form of Ashvins, complementary personalities joined in one, blest with perfect will and potential for mutual action, living together in the home, act and enjoy life to the full, drink the soma distilled to perfect taste and purity.
Translation
With beneficial preparations (Sivabhih). I shall satiate your heart. Let you live in joy, free from disease and full of lustre (suvarcas). Let both of you, living together, drink this churned up beverage and assume the form and the knowledge of twin divines (agvins).
Translation
O’ child, I fill your heart with the auspicious trainings. You enjoying health and shining with radiance, attain pleasure. O husband and wife; you both attaining the form and knowledge of teacher and preacher, living in one residence drink this mixture.
Translation
O Brahmchari, I fill thy heart with ennobling instructions. Free from disease, full of loveliness, ever remain happy. O husband and wife, assuming the role and perception of father and mother, enjoy the pleasure granted by Me! [1]
Footnote
[1] "I" and "Me "refer to God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६–शिवाभिः। शिव–टाप्। अ० २।६।३। मङ्गलवतीभिर्विद्याभिः शक्तिभिर्वा। (शिवाभिष्टे) युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्तःपादम्। पा० ८।३।१०३। इति षत्वम्। ते। तव। हृदयम्। वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१००। इति हृञ्। कयन् दुक् च। हरति स्वीकरोति विषयानिति। मनः। तर्पयामि। सुखयामि। अनमीवः। इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति अम रोगे–वन्, ईडागमः। रोगरहितः। मोदिषीष्ठाः। मुद हर्षे। आशिषि लिङ्। मोदस्व। हृष्टो भव। सुवर्चाः। सु+वर्च–असुन्। सुतेजस्कः। सवासिनौ। व्रते। पा० ३।२।८०। इति वस निवासे–णिनि। समानस्य सभावः। पुमान् स्त्रिया। पा० ३।२।६७। इत्येकशेषः। समानम् एकत्र निवसन्तौ स्त्रीपुरुषौ। पिबताम्। पीतं कुरुताम्। मन्थम्। मन्थ गाहे–घञ् विलोडनम्। रसम्। एतम्। निर्दिष्टम्। वेदोक्तम्। अश्विनोः। अशूप्रुशिलटि०। उ० १।१५१। अशू व्याप्तौ–क्वन्। अश्वो व्याप्तिः–इनि प्रत्ययः। एकशेषः पूर्ववत्। अश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके राजानौ पुण्यकृतावित्यैतिहासिकाः–निरु० १२।१। कार्येषु व्याप्तिमतोः, जननीजनकयोः। रूपम्। स्वभावम्। परिधाय। धृत्वा। मायाम्। माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। माङ् माने य, टाप्। बुद्धिम्। प्रज्ञाम्–निघ० ३।९ ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
হে সদ্গৃহস্থী ! (তে) তোমার (হৃদয়ম্) হৃদয় কে (শিবাভিঃ) কল্যাণকারী জল দ্বারা (তর্পয়ামি) আমি বৈদ্য (মন্ত্র ৭) তৃপ্ত করি। (অনমীবঃ) রোগরহিত, (সুবর্চাঃ) উত্তম তেজস্বী হয়ে (মোদিষীষ্ঠাঃ ১) তুমি প্রমুদিত/আনন্দিত/প্রসন্ন/হর্ষিত হও। (সবাসিনৌ) তোমরা দুজন [পতি-পত্নী] সহবাসী (এতম্ মন্থম্) এই মন্থের/মাঠা-এর (পিবতাম্) পান করো, এবং (অশ্বিনোঃ) সূর্য-চন্দ্রের (মায়াম্ রূপম্) মায়ারূপকে (পরিধান) ধারণ করো [বিচরণ করো।]
टिप्पणी
[জল-চিকিৎসা দ্বারা হৃদয় তপ্ত থাকে, রোগরহিত এবং প্রমুদিত হয়। হৃদয়ের রোগ না হলে সমগ্র শরীর সুস্থ থাকে, এবং তেজ বৃদ্ধি হয়। এর জন্য ঘোল/মাখন খেতে হয়। ইহা দধির ঘোল। এতে পতি-পত্নীর রূপ সূর্য এবং চন্দ্রের সমান চমকিত/দীপ্ত হয়। এই রূপ মায়ারূপ, কৃত্রিম। পত্নী হল চন্দ্র এবং পতি হল সূর্য। চন্দ্র নিজ চমক/দীপ্তি সূর্য থেকে পায়, এবং পত্নী পতির থেকে।] [১. মোদিষীষ্ঠাঃ=মুদ হর্ষে আশিষি লিঙ্ (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ স্বোন্নতিং কুর্যাদিত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
[হে জীব !] (শিবাভিঃ) মঙ্গলকারী [বিদ্যা বা শক্তি] দ্বারা (তে) তোমার (হৃদয়ম্) হৃদয়কে (তর্পয়ামি) আমি তৃপ্ত করি, তুমি (অনমীবঃ) নীরোগ ও (সুবর্চাঃ) উত্তমকান্তিমান হয়ে (মোদিষীষ্ঠাঃ) হর্ষ প্রাপ্ত করো। (সবাসিনৌ) সহাবস্থানকারি দুজন [স্ত্রী-পুরুষ] (অশ্বিনোঃ) মাতা-পিতার (রূপম্) স্বভাব এবং (মায়াম্) বুদ্ধিকে (পরিধায়) সর্বদা ধারণ করে (এতম্) এই (মন্থম্) রসের (পিবতাম্) পান করুক ॥৬॥
भावार्थ
পরমেশ্বর বলেন যে, হে মনুষ্য ! তোমার আনন্দের জন্য আমি তোমাকে অনেক বিদ্যা ও শক্তি প্রদান করেছি, তোমরা দুজন স্ত্রী-পুরুষ ! মাতা-পিতারূপ দ্বারা সংসারের উপকার করে এই [আমার প্রদত্ত] আনন্দরস ভোগ করো ॥৬॥
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