अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - द्यावापृथिवी, विश्वे देवाः, मरुद्गणः, आपो देवाः
छन्दः - पराबृहती निचृत्प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
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इन्द्रे॑ण द॒त्तो वरु॑णेन शि॒ष्टो म॒रुद्भि॑रु॒ग्रः प्रहि॑तो नो॒ आग॑न्। ए॒ष वां॑ द्यावापृथिवी उ॒पस्थे॒ मा क्षु॑ध॒न्मा तृ॑षत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । द॒त्त: । वरु॑णेन । शि॒ष्ट: । म॒रुत्ऽभि॑: । उ॒ग्र: । प्रऽहि॑त: । न॒: । आ । अ॒ग॒न् । ए॒ष: । वा॒म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । उ॒पऽस्थे॑ । मा । क्षु॒ध॒त् । मा । तृ॒ष॒त् ॥२९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टो मरुद्भिरुग्रः प्रहितो नो आगन्। एष वां द्यावापृथिवी उपस्थे मा क्षुधन्मा तृषत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । दत्त: । वरुणेन । शिष्ट: । मरुत्ऽभि: । उग्र: । प्रऽहित: । न: । आ । अगन् । एष: । वाम् । द्यावापृथिवी इति । उपऽस्थे । मा । क्षुधत् । मा । तृषत् ॥२९.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य अपनी उन्नति करता रहे, इसका उपदेश।
पदार्थ
(एषः) यह [जीव] (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा करके (दत्तः) दिया हुआ, (वरुणेन) श्रेष्ठ गुणवाले पिता करके (शिष्टः) शिक्षा किया हुआ और (मरुद्भिः) शूरवीर महात्माओं करके (प्रहितः) भेजा हुआ, (उग्रः) तेजस्वी होकर, (नः) हम लोगों में (आ अगन्=अगमत्) आया है। (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) हे सूर्य और भूमि ! (वाम्) तुम दोनों की (उपस्थे) गोद में [यह जीव] (मा क्षुदत्) न भूखा रहे और (मा तृषत्) न पियासा मरे ॥४॥
भावार्थ
परमेश्वर ने अपनी न्यायव्यवस्था से इस जीव को मनुष्यजन्म दिया है, माता-पिता ने शिक्षा दी है, विद्वानों ने उत्तम विद्याओं का अभ्यास कराया है, इस प्रकार यह अध्ययनसमाप्ति पर समावर्त्तन करके संसार में प्रवेश करे और सूर्य पृथिवी आदि सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द भोगे ॥४॥
टिप्पणी
४–इन्द्रेण। परमैश्वर्यवता परमात्मना। दत्तः। दो दद्घोः। पा० ७।४।४६। इति दा दाने–क्त, दद् भावः। लब्धजीवनः। वरुणेन। वृञ्। उनन्। श्रेष्ठजनकेन। शिष्टः। शासु शासने–क्त। शास इदङ्हलोः। पा० ६।४।३४। इत्युपधाया इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति सस्य षः। शासितः। अनुज्ञातः। मरुद्भिः। अ० १।२०।१। शत्रुमारणशीलैः शूरैः। उग्रः। तेजस्वी। प्रहितः। हि गतौ–क्त। प्रेषितः। प्रेरितः। नः। अस्मान्। आ+अगन्। गमेर्लुङि। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मो नो धातोः। पा० ८।२।६४। इति नत्वम्। आगमत् एषः। प्राणी। वाम्। युवयोः। द्यावापृथिवी। हे द्यावापृथिव्यौ। तत्रस्थपदार्थाः–इत्यर्थः। उपस्थे। क्रोडे। मा क्षुदत्। क्षुत्पीडां मा प्राप्नोतु। मा तृषत्। तृषार्तो मा भवतु। क्षुद् बुभुक्षायाम्। ञितृषा पिसासायाम्। उभयोर्माङि लुङि पुषादित्वाद् अङ् ॥
विषय
सन्तान
पदार्थ
१. यह सन्तान (इन्द्रेण दत्तः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से दिया गया है। प्रभु की कृपा से सब सन्तान प्राप्त हुआ करते हैं। २. (वरुणेन शिष्टः) = [आचार्यो मृत्यु ओषधयः पयः] वरुण के द्वारा यह अनुशासन को प्राप्त कराया गया है। आचार्य ने इसे उत्तम अनुशासन में रखकर ज्ञान प्राप्त कराया है। ३. (मद्भिः उन:) = प्राणों से यह तेजस्वी बना है। इसप्रकार प्रहित:-[हि वृद्धौ, promote] वृद्धि को प्राप्त करता हुआ (वाम् उपस्थे) = आपकी गोद में (मा क्षुधत्) = मत भूखा रहे मा तृषत्-और न ही प्यासा रहे। यह ठीक खान-पान प्राप्त करता हुआ दीर्घजीवी हो।
भावार्थ
[क] 'सन्तानों को हम प्रभु से दिया गया समझें', ऐसा होने पर हम उनके पालन को "प्रभु का कार्य करना समझेंगे', [ख] उत्तम आचार्यों से उनका शिक्षण हो, [ग] प्राणसाधना की प्रवृत्ति इनमें पैदा की जाए, [घ] इनका खान-पान ठीक हो, ऐसा होने पर ये अवश्य दीर्घजीवी बनेंगे।
भाषार्थ
(इन्द्रेण दत्तः) परमैश्वर्यवान् परमेद्वर की कृपा से दिया हुआ, (वरुणेन शिष्टः) वरुण नामक आचार्य द्वारा अनुशासित हुआ, (मरुद्भिः) प्रजाओं द्वारा (उग्र:) उद्गुर्ण बलशाली हुआ, तथा गुरुओं द्वारा (प्रहितः) प्रेषित हुआ, (न:) हम माता-पिता आदि के घर (आगन्) आया है। (द्यावापृथिवी) हे द्यौ और पृथिवी (वाम्) तुम दोनों की (उपस्थे) गोद में (एषः) यह (मा क्षुधत्) न क्षुधार्त हो, (मा तृषत्) न तृषार्त हो।
टिप्पणी
[यह सद्गृहस्थ परमेश्वर की कृपा से ब्रह्मचर्य के दीर्घकाल के पश्चात् जीवित हुआ हम सम्बन्धियों के घर वापिस आया है। वरुण है आचार्य (अथर्व० ११।५।१४, १५)। मरुद्भिः= मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा० १।९४, दयानन्द)। अर्थात् मानुष प्रजाजनों से भिक्षा प्राप्त कर बलशाली हुआ। माता-पिता आदि कहते हैं कि हे द्यो:-पृथिवी ! अब यह तुम दोनों की व्याप्त गोद में आया है, अतः पृथिवी अन्नप्रदान द्वारा और द्यौः वर्षा द्वारा शुद्ध जल देकर, तुम दोनों इसकी क्षुधा और तृषा का निवारण करते रहो। आगन् =गमेर्लुङि "मो नो धातोः” (अष्टा० ८।२।६४) इति नत्वम् (सायण:)।]
विषय
ब्रह्मचर्य और दीर्घ जीवन की प्रार्थना ।
भावार्थ
यह पुरुष (इन्द्रेण) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा से (दत्तः) नाना पदार्थ प्राप्त करके (वरुणेन) सबसे श्रेष्ठ आचार्यरूप परम गुरु से (शिष्टः) शिक्षित होकर, (मरुद्भिः) विद्वान् पुरुषों, देवों, प्राणों और प्रजाओं से (प्राहितः) योग्य कार्य में नियुक्त हुआ (नः) हमारे पास (आगन्) आवे । हे (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, माता और पिता जनो ! (वां) आप दोनों के (उपस्थे) गोद, रक्षा में रहकर वह कभी (मा क्षुधत्) भूखा न रहे और (मा तृषत्) और कभी प्यास से पीड़ित न हो ।
टिप्पणी
‘वरुणेन सृष्टो’, ‘द्यावापृथिवी परिददामि सा मा तृषत्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता वहवो देवताः। १ अनुष्टुप्। २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः। ४ पराबृहती निचृतप्रस्तारा पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Life and Progress
Meaning
Given as a gift by Indra, lord omnipotent, taught and trained by Varuna, judicious parents and eminent teachers, inspired and sent by Maruts, stormy powers of nature and humanity, this young man has now come to us, a mature and perfect citizen. O heaven and earth, pray take this young man under your loving care. Let him never feel short of food and drink for his body, mind and soul.
Translation
Granted by the resplendent Lord (Indra), guided by the venerable Lord (Varuna) and urgedby the vital forces, this fierce one (ugra) has come to us. O heaven and earth, may this man never suffer from the hunger and thirst in your bosom (in your shelter).
Translation
Let this brilliant child come to us being sent by his principal adept trained mentally and morally by his teacher and returned by the enlightened persons. Let he not starve, and let he not be overcome with thirst in the lap of the heaven and the earth.
Translation
Infused with life by God, taught by his preceptor, goaded into virtuous acts by the learned, this Brahmchari has come unto us. O Heaven and Earth, resting in your lap, may he never feel hungry or thirsty. [1]
Footnote
[1] Reference is made to a Brahmchari, who returns home after completing his studies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–इन्द्रेण। परमैश्वर्यवता परमात्मना। दत्तः। दो दद्घोः। पा० ७।४।४६। इति दा दाने–क्त, दद् भावः। लब्धजीवनः। वरुणेन। वृञ्। उनन्। श्रेष्ठजनकेन। शिष्टः। शासु शासने–क्त। शास इदङ्हलोः। पा० ६।४।३४। इत्युपधाया इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति सस्य षः। शासितः। अनुज्ञातः। मरुद्भिः। अ० १।२०।१। शत्रुमारणशीलैः शूरैः। उग्रः। तेजस्वी। प्रहितः। हि गतौ–क्त। प्रेषितः। प्रेरितः। नः। अस्मान्। आ+अगन्। गमेर्लुङि। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मो नो धातोः। पा० ८।२।६४। इति नत्वम्। आगमत् एषः। प्राणी। वाम्। युवयोः। द्यावापृथिवी। हे द्यावापृथिव्यौ। तत्रस्थपदार्थाः–इत्यर्थः। उपस्थे। क्रोडे। मा क्षुदत्। क्षुत्पीडां मा प्राप्नोतु। मा तृषत्। तृषार्तो मा भवतु। क्षुद् बुभुक्षायाम्। ञितृषा पिसासायाम्। उभयोर्माङि लुङि पुषादित्वाद् अङ् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইন্দ্রেণ দত্তঃ) পরমৈশ্বর্যবান্ পরমেশ্বরের কৃপায় প্রদত্ত, (বরুণেন শিষ্টঃ) বরুণ নামক আচার্য দ্বারা অনুশাসিত হয়ে, (মরুদ্ভিঃ) প্রজাদের দ্বারা (উগ্রঃ) উদ্গূর্ণ/প্রচন্ড বলশালী হয়ে, এবং গুরুদের দ্বারা (প্রহিতঃ) প্রেষিত/প্রেরিত হয়ে, (নঃ) আমাদের মাতা-পিতা আদির ঘরে (আগন্) এসেছে। (দ্যাবাপৃথিবী) হে দ্যৌ এবং পৃথিবী (বাম্) তোমাদের দুজনের (উপস্থে) কোলে (এষঃ) এই[ব্রহ্মচারী] (মা ক্ষুধা) না ক্ষুধার্ত হোক, (মা তৃষৎ) না তৃষ্ণার্ত হোক।
टिप्पणी
[এই সদ্গৃহস্থ পরমেশ্বরের কৃপায় ব্রহ্মচর্যের দীর্ঘকালের পর জীবিত আমাদের ঘরে ফিরে এসেছে। বরুণ হল আচার্য (অথর্ব০ ১১।৫।১৪, ১৫)। মরুদ্ভিঃ= মরুৎ, মনুষ্যজাতিঃ (উণা০ ১।৯৪, দয়ানন্দ)। অর্থাৎ মানুষ প্রজাদের থেকে ভিক্ষা প্রাপ্ত করে বলশালী হয়েছে। মাতা-পিতা বলে, হে দ্যৌঃ-পৃথিবী ! এখন এই [ব্রহ্মচারী] তোমাদের ব্যাপ্ত কোলে এসেছে, অতঃ পৃথিবী অন্নপ্রদান দ্বারা এবং দ্যৌঃ বর্ষা দ্বারা শুদ্ধ জল প্রদানের মাধ্যমে, তোমার এর[এই ব্রহ্মচারীর] ক্ষুধা ও তৃষ্ণার নিবারণ করতে থাকো। আগন্ = গমের্লুঙি "মো নো ধাতোঃ" (অষ্টা০ ৮ ২।৬৪) ইতি নত্বম্ (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ স্বোন্নতিং কুর্যাদিত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(এষঃ) এই [জীব] (ইন্দ্রেণ) পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা দ্বারা (দত্তঃ) প্রদত্ত, (বরুণেন) শ্রেষ্ঠ গুণবান পিতা দ্বারা (শিষ্টঃ) শিক্ষিত এবং (মরুদ্ভিঃ) বীর মহাত্মাদের দ্বারা (প্রহিতঃ) প্রেরিত, (উগ্রঃ) তেজস্বী হয়ে, (নঃ) আমাদের লোকেদের মাঝে (আ অগন্=অগমৎ) এসেছে/আগমন করেছে। (দ্যাবাপৃথিবী=০–ব্যৌ) হে সূর্য ও ভূমি ! (বাম্) তোমাদের উভয়ের (উপস্থে) কোলে [এই জীব] (মা ক্ষুদৎ) না ক্ষুধার্ত থাকুক এবং (মা তৃষৎ) না তৃষ্ণায় মৃত্যু হোক॥৪॥
भावार्थ
পরমেশ্বর নিজের ন্যায়ব্যবস্থা দ্বারা এই জীবকে মনুষ্য জন্ম দিয়েছেন, মাতা-পিতা শিক্ষা প্রদান করেছে, বিদ্বানগণ উত্তম বিদ্যার অভ্যাস করিয়েছে, এইভাবে সে অধ্যয়ন সমাপ্তিতে সমাবর্ত্তন করে সংসারে প্রবেশ করে এবং সূর্য পৃথিবী আদি সকল পদার্থ থেকে উপকার নিয়ে আনন্দ ভোগ করুক ॥৪॥
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