अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - यक्षविबर्हणम्,(पृथक्करणम्) चन्द्रमाः, आयुष्यम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्षविबर्हण
16
अ॒क्षीभ्यां॑ ते॒ नासि॑काभ्यां॒ कर्णा॑भ्यां॒ छुबु॑का॒दधि॑। यक्ष्मं॑ शीर्ष॒ण्यं॑ म॒स्तिष्का॑ज्जि॒ह्वाया॒ वि वृ॑हामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्षीभ्या॑म् । ते॒ । नासि॑काभ्याम् । कर्णा॑भ्याम् । छुबु॑कात् । अधि॑ । यक्ष्म॑म् । शी॒र्ष॒ण्य॑म् । म॒स्तिष्का॑त् । जि॒ह्वाया॑: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षीभ्याम् । ते । नासिकाभ्याम् । कर्णाभ्याम् । छुबुकात् । अधि । यक्ष्मम् । शीर्षण्यम् । मस्तिष्कात् । जिह्वाया: । वि । वृहामि । ते ॥३३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शारीरिक विषय में शरीररक्षा।
पदार्थ
[हे प्राणी] (ते) तेरी (अक्षीभ्याम्) दोनों आँखों से, (नासिकाभ्याम्) दोनों नथुनों से (कर्णाभ्याम्) दोनों कानों से, (छुबुकात्=चुबकात् अधि) ठोड़ी में से, (ते) तेरे (मस्तिष्कात्) भेजे से और (जिह्वायाः) जिह्वा से (शीर्षण्यम्) शिर में के (यक्ष्मम्) क्षयी [छयी] रोग को (वि वृहामि) मैं उखाड़े देता हूँ ॥१॥
भावार्थ
१–इस मन्त्र में शिर के अवयवों का वर्णन है। जैसे सद्वैद्य उत्तम औषधों से रोगों की निवृत्ति करता है, ऐसे ही मनुष्य अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों का विचारपूर्वक नाश करे ॥१॥ २–सायणभाष्य में (छुबुकात्) के स्थान में (चुबुकात्) है और ऋग्वेद में भी (छुबुकात्) पाठ है। ३–इस सूक्त के ७ मन्त्रों के स्थान में ऋग्वेद म० १० सू० १६३ में ६ मन्त्र हैं। मन्त्र ३ का पहिला आधा (हृदयात् ते परि....) और म० ४ का दूसरा आधा (यक्ष्मं कुक्षिभ्यां....) ऋग्वेद में नहीं हैं, शेष मन्त्र कुछ भेद से हैं। ऋग्वेद में इस सूक्त के ऋषिः विवृहा काश्यप हैं ॥
टिप्पणी
१–अक्षीभ्याम्। ई च द्विवचने। पा० ७।१।७७। इति अक्षि शब्दस्य ईकारादेशः। स चोदात्तः। चक्षुर्भ्याम्। ते। तव। नासिकाभ्याम्। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति णास शब्दे–ण्वुल्। टापि अत इत्त्वम्। घ्राणछिद्राभ्याम्। कर्णाभ्याम्। कॄवृजॄसि०। उ० ३।१०। इति कॄ विक्षेपे–नन्। कीर्यते विक्षिप्यते शब्दो वायुना यत्र। श्रवणाभ्याम्। छुबुकात्। वलेरूकः। उ० ४।४०। इति ओछुप स्पर्शे–उक प्रत्ययो बाहुलकात्, षस्य च वः। ओष्ठाधोभागात्। चिबुकात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुयायी। सर्वथा। यक्ष्मम्। अ० २।१०।५। राजरोगम्। क्षयरोगम्। शीर्षण्यम्। शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।१४२। इति शिरस्–यत्। ये च तद्धिते। पा० ६।१।६१। इति शिरसः शीर्षन् आदेशः। ये चाभावकर्मणोः। पा० ६।४।१६८। इति प्रकृतिभावः। शिरसि भवम्। मस्तिष्कात्। मस्त+इष गतौ–क, पृषोदरादित्वात् साधुः। मस्तं मस्तकम् इष्यति स्वाधारत्वेन प्राप्नोतीति। मस्तकभवघृताकारस्नेहम्। मस्तकस्नेहम्। जिह्वायाः। अ० १।१०।३। रसनायाः सकाशात्। वि+वृहामि–वृहू उद्यमने–उद्धरामि। पृथक्करोमि ॥
विषय
यक्ष्मनिबर्हण
पदार्थ
१. यक्ष्म [रोग] से आक्रान्त पुरुष से ब्रह्मा [जानी वैद्य] कहता है कि (ते) = तैरे (अक्षीभ्याम्) = आँखों से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवहामि) = [उद्धरामि] पृथक् करता हूँ। इसीप्रकार (नासिकाभ्याम्) = घ्राणेन्द्रिय के अधिष्ठानभूत नासादि छिद्रों से (कर्णाभ्याम्) = श्रोत्रों से (छुबुकात् अधि) = ओष्ठ के अधर प्रदेश [ठोडी] से तेरे रोगों को पृथक् करता हूँ। २. (शीर्षण्यं यक्ष्मम्) = सिर में होनेवाले रोगों को दूर करता हूँ। (मस्तिष्कात्) = शिरःप्रदेश के अन्तर्भाग में स्थित मांसविशेष मस्तिष्क है-उससे और जिह्वाया:-रसना से तेरै रोग को उखाड़ फेंकता हूँ।
भावार्थ
आँख, नासिका, कान, ठोडी, सिर, मस्तिष्क व जिह्वा से रोग को दूर किया जाए।
भाषार्थ
(अक्षिभ्याम्) दोनों आँखों से, (ते) तेरे (नासिकाभ्याम्) दोनों नासिका छिद्रों से, (कर्णाभ्याम्) दोनों कानों से, (छुबुकात् अधि) ओष्ठ के अधः प्रदेश अर्थात् ठोड़ी से, (मस्तिष्कात्) मस्तिष्क से, (जिह्वायाः) जिह्वा से (ते) तेरे (शीर्षण्यम्, यक्ष्मम्) सिर में स्थित यक्ष्म को (विवृहामि) मैं निकालता हूँ। यह "शीर्षण्य" यक्ष्म है। विवृहामि = उद्धरामि, उन्मूलयामि, वृह उद्-यमने (तुदादिः)।
विषय
देह के अङ्गों से रोग नाश करने का उपदेश ।
भावार्थ
इस सूक्त में समस्त शरीर के भिन्न २ अंगों में बैठे रोगों की चिकित्सा का उपदेश करते हैं। हे पुरुष ! मैं वैद्य, आयुर्वेद का जानने हारा विद्वान् (ते) तेरे (अक्षीभ्यां) आंखों में से (नासिकाभ्यां) दोनों नासिकाओं में से और (छुबुकाद् अधि) ठोडी में से और (ते) तेरे (मस्तिष्कात्) शिर के भीतर भेजे अर्थात् मस्तिष्क भाग में से और (जिह्वायाः) जीभ में से और (शीर्षण्यं) शिर में बैठे (यक्ष्मं) रोग को (वि वृहामि) दूर करता हूं ।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘चुबुकादधि’ इति क्वाचित्कः पाठः। (द्वि०)‘कर्णाभ्यां नास्यादधि’, (च०) ‘ललाटाद् विवमेमसि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। यक्ष्मविवर्हणं चन्द्रमा वा देवता। आयुष्यं सूक्तम्। १, २ अनुष्टुभौ । ३ ककुम्मती। ४ चतुष्पदा भुरिग् उष्णिक्। ५ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ६ उष्णिग् गर्भा निचृदनुष्टुप्। ७ पथ्या पंङ्क्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Uprooting the Cancerous
Meaning
I remove and uproot the worst cancer and consumption from your eyes, nostrils, ears, chin, brain and tongue related to the head area.
Subject
Expulsion of Yaksmā - from all parts of the body
Translation
Out of your two eyes, out of your two nostrils, out of your two ears, out of your mouth, out of your brain, and out of your tongue, I pluck off your wasting disease of head.
Translation
I, the physician, root out O patient, consumption seated in your head and consumption from your eyes, from your nostrils, from your ears, from your chin, from your brain and from your organ of speech.
Translation
O patient, from both thine eyes, from both nostrils from both thine ears, and from thy chin, forth thy brain and tongue. I root consumption seated in thy head! [1]
Footnote
[1] "I" refers to a skilled physician, who is expert in curing consumption, see Rigveda, Mandal 10, Sukta 163.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१–अक्षीभ्याम्। ई च द्विवचने। पा० ७।१।७७। इति अक्षि शब्दस्य ईकारादेशः। स चोदात्तः। चक्षुर्भ्याम्। ते। तव। नासिकाभ्याम्। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति णास शब्दे–ण्वुल्। टापि अत इत्त्वम्। घ्राणछिद्राभ्याम्। कर्णाभ्याम्। कॄवृजॄसि०। उ० ३।१०। इति कॄ विक्षेपे–नन्। कीर्यते विक्षिप्यते शब्दो वायुना यत्र। श्रवणाभ्याम्। छुबुकात्। वलेरूकः। उ० ४।४०। इति ओछुप स्पर्शे–उक प्रत्ययो बाहुलकात्, षस्य च वः। ओष्ठाधोभागात्। चिबुकात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुयायी। सर्वथा। यक्ष्मम्। अ० २।१०।५। राजरोगम्। क्षयरोगम्। शीर्षण्यम्। शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।१४२। इति शिरस्–यत्। ये च तद्धिते। पा० ६।१।६१। इति शिरसः शीर्षन् आदेशः। ये चाभावकर्मणोः। पा० ६।४।१६८। इति प्रकृतिभावः। शिरसि भवम्। मस्तिष्कात्। मस्त+इष गतौ–क, पृषोदरादित्वात् साधुः। मस्तं मस्तकम् इष्यति स्वाधारत्वेन प्राप्नोतीति। मस्तकभवघृताकारस्नेहम्। मस्तकस्नेहम्। जिह्वायाः। अ० १।१०।३। रसनायाः सकाशात्। वि+वृहामि–वृहू उद्यमने–उद्धरामि। पृथक्करोमि ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অক্ষীভ্যাম্) দুই চোখ থেকে, (তে) তোমার (নাসিকাভ্যাম্) দুই নাসিকা ছিদ্র থেকে, (কর্ণাভ্যাম্) দুই কান থেকে, (ছুবুকাৎ অধি) ওষ্ঠের অধঃ প্রদেশ অর্থাৎ চিবুক থেকে, (মস্তিষ্কাৎ) মস্তিষ্ক থেকে, (জিহ্বায়াঃ) জিহ্বা থেকে (তে) তোমার (শীর্ষণ্যম্, যক্ষ্মম্) মাথায় স্থিত যক্ষ্মাকে (বিবৃহামি) আমি নিষ্কাশিত করি। ইহা হল "শীর্ষণ্য" যক্ষ্মা। বিবৃহামি = উদ্ধরামি, উন্মূলয়ামি, বৃহূ উদ্-যমনে (তুদাদিঃ)।]
मन्त्र विषय
শারীরিকবিষয়ে শরীররক্ষা
भाषार्थ
[হে প্রাণী] (তে) তোমার (অক্ষীভ্যাম্) দুই চোখ থেকে, (নাসিকাভ্যাম্) দুই নাসারন্ধ্র থেকে (কর্ণাভ্যাম্) দুই কান থেকে, (ছুবুকাৎ=চুবকাৎ অধি) চিবুক থেকে, (তে) তোমার (মস্তিষ্কাৎ) মস্তিষ্ক থেকে এবং (জিহ্বায়াঃ) জিহ্বা থেকে (শীর্ষণ্যম্) মস্তকের (যক্ষ্মম্) ক্ষয়ী [যক্ষ্মা] রোগকে (বি বৃহামি) আমি পৃথক/উৎপাটিত করি ॥১॥
भावार्थ
১–এই মন্ত্রে মস্তকের অবয়বের বর্ণনা হয়েছে। যেমন সদ্বৈদ্য উত্তম ঔষধ দ্বারা রোগের নিবৃত্তি করে, এভাবেই মনুষ্য নিজের আত্মিক ও শারীরিক দোষের বিচারপূর্বক নাশ করুক ॥১॥ ২–সায়ণভাষ্যে (ছুবুকাৎ) এর স্থানে (চুবুকাৎ) আছে এবং ঋগ্বেদেও (ছুবুকাৎ) পাঠ আছে। ৩–এই সূক্তের ৭ মন্ত্রের স্থান ঋগ্বেদ ম০ ১০ সূ০ ১৬৩ এ ৬ মন্ত্র আছে। মন্ত্র ৩ এর প্রথমার্ধ (হৃদয়াৎ তে পরি....) এবং ম০ ৪ এর দ্বিতীয়ার্ধ (যক্ষ্মং কুক্ষিভ্যাং....) ঋগ্বেদে নেই, শেষ মন্ত্র কিছুটা আলাদাভাবে আছে। ঋগ্বেদে এই সূক্তের ঋষিঃ বিবৃহা কাশ্যপ ॥
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