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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 106/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-१०६
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    त्वां विष्णु॑र्बृ॒हन्क्षयो॑ मि॒त्रो गृ॑णाति॒ वरु॑णः। त्वां शर्धो॑ मद॒त्यनु॒ मारु॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । विष्णु॑: । बृ॒हन्‌ । क्षय॑: । मि॒त्र । गृ॒णा॒ति॒ । वरु॑ण: ॥ त्वाम् । शर्ध॑: । म॒द॒ति॒ । अनु॑ । मारु॑तम् ॥१०६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विष्णुर्बृहन्क्षयो मित्रो गृणाति वरुणः। त्वां शर्धो मदत्यनु मारुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । विष्णु: । बृहन्‌ । क्षय: । मित्र । गृणाति । वरुण: ॥ त्वाम् । शर्ध: । मदति । अनु । मारुतम् ॥१०६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 106; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (बृहन्) बड़ा (क्षयः) ऐश्वर्यवान् (विष्णु) व्यापक सूर्य, (मित्रः) प्रेरक वायु और (वरुणः) स्वीकार करने योग्य जल (त्वाम्) तेरी (गृणाति) बड़ाई करता है। (त्वाम् अनु) तेरे पीछे (मारुतम्) शूर पुरुषों का (शर्धः) बल (मदति) तृप्त होता है ॥३॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा के बल से सब सूर्य आदि में बल है, उस सर्वशक्तिमान् की उपासना करके सब मनुष्य आत्मबल बढ़ावें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(त्वाम्) (विष्णुः) व्यापकः सूर्यः (बृहन्) महान् (क्षयः) क्षि ऐश्वर्ये-अच्। ऐश्वर्यवान् (मित्रः) प्रेरको वायुः (गृणाति) स्तौति (वरुणः) स्वीकरणीयं जलम् (त्वाम्) (शर्धः) बलम् (मदति) हृष्यति (अनु) अनुसृत्य (मारुतम्) मरुतां शूरपुरुषाणामिदम् ॥

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    विषय

    सच्चे उपासक का जीवन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! वास्तव में (त्वाम्) = आपका (गणाति) = स्तवन वही करता है जोकि (विष्णु:) = व्यापक व उदारवृत्तिवाला बनता है, (बृहन्) = अपनी शक्तियों का वर्धन करता है, (क्षय:) = उत्तम निवास व गतिवाला बनता है 'क्षि निवासगत्योः' (मित्र:) = सबके प्रति स्नेहवाला होता है और (वरुण:) = द्वेष का निवारण करनेवाला होता है। प्रभु का वास्तविक स्तवन तो यही है कि हम इसप्रकार के जीवनवाले बनें। २. हे प्रभो। (त्वाम्) = आपकी (अनु) = अनुकूलता करता हुआ यह (मारुतं शर्ध:) = प्राणों का बल (मदति) = [मादयति]-आनन्द का अनुभव कराता है। प्राणसाधना से चित्तवृत्ति की एकाग्रता होकर प्रभु में प्रीति बढ़ती है, तब एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है।

    भावार्थ

    प्रभु का उपासक 'विष्णु, बृहत, क्षय, मित्र व वरुण' बनने का प्रयत्न करता है। यह प्राणसाधना करता हुआ, चित्तवृत्ति की एकाग्रता के द्वारा, प्रभु-प्रासि का आनन्द पाता है। _ यह उपासक प्रभु का प्रिय 'वत्स' बनता है। यह अगले सूक्त में १-३ का ऋषि है। खुब ज्ञान के प्रकाशवाला 'बृहद् दिवः' कहलाता है। यह ४-१२ मन्त्रों तक का ऋषि है १३-१४ का ब्रह्मा और वासनाओं का पूर्ण संहार करनेवाला 'कुत्स' १५ मन्त्र का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (विष्णुः) सूर्य, (बृहन् क्षयः) बड़ा निवास्थान अर्थात् महाकाश, (मित्रः) दिन और (वरुणः) रात्रि (त्वाम्) आपकी (गृणाति) अर्चनाएँ कर रहे हैं। (मारुतं शर्धः) मानसून तथा अन्तरिक्षस्थ वायु का बल (त्वाम्) आपकी (अनु) निरन्तर (मदति) स्तुतियाँ कर रहा है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni Devata

    Meaning

    Vishnu, cosmic dynamics of nature’s expansive sustenance, Mitra, loving and life giving sun, Varuna, soothing and energising oceans of the universe, and the power and force of the showers of cosmic energy all exalt you and receive their life and exaltation from you.

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    Translation

    O Almighty God, the great powerful sun, the air and water magnify your glory. The human strength follows your command.

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    Translation

    O Almighty God, the great powerful sun, the air and water magnify your glory. The human strength follows your command.

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    Translation

    All the people of the world bow down to His (God’s) Wrath, as do the subjects to the king and the rivers to the sea.

    Footnote

    (1-3) Rig, 8.6. (4-6); (4-12) Rig, 10.120. also Atharva, 5.2. (1-9); (J3-14) Atharva, 13 2. (34-35) (15) Rig, 1.115. (2).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(त्वाम्) (विष्णुः) व्यापकः सूर्यः (बृहन्) महान् (क्षयः) क्षि ऐश्वर्ये-अच्। ऐश्वर्यवान् (मित्रः) प्रेरको वायुः (गृणाति) स्तौति (वरुणः) स्वीकरणीयं जलम् (त्वाम्) (शर्धः) बलम् (मदति) हृष्यति (अनु) अनुसृत्य (मारुतम्) मरुतां शूरपुरुषाणामिदम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে পরমেশ্বর!] (বৃহন্) মহান (ক্ষয়ঃ) ঐশ্বর্যবান (বিষ্ণু) ব্যাপক সূর্য, (মিত্রঃ) প্রেরক বায়ু এবং (বরুণঃ) স্বীকার্য জল (ত্বাম্) তোমার (গৃণাতি) স্তুতি/প্রশংসা করে। (ত্বাম্ অনু) তোমার অনুসরণে (মারুতম্) বীর পুরুষের (শর্ধঃ) বল (মদতি) তৃপ্ত হয় ॥৩॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মার বল দ্বারা সমস্ত সূর্য আদিতে বল/শক্তি সৃষ্টি হয়, সেই সর্বশক্তিমানের উপাসনা করে সমস্ত মানুষ আত্মবল বৃদ্ধি করুক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (বিষ্ণুঃ) সূর্য, (বৃহন্ ক্ষয়ঃ) বৃহত নিবাস্থান অর্থাৎ মহাকাশ, (মিত্রঃ) দিন এবং (বরুণঃ) রাত্রি (ত্বাম্) আপনার (গৃণাতি) অর্চনা করছে। (মারুতং শর্ধঃ) মৌসুমী তথা অন্তরিক্ষস্থ বায়ুর বল (ত্বাম্) আপনার (অনু) নিরন্তর (মদতি) স্তুতি করছে।

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