Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 140 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १४०
    0

    यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑। अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ना॒स॒त्या॒ । भु॒र॒ण्यथ॑: । यत् । वा॒ । दे॒वा॒ । भि॒ष॒ज्यथ॑: ॥ अ॒यम् । वा॒म् । व॒त्स: । म॒तिऽभि॑: । न । वि॒न्धते॒ । ह॒विष्म॑न्तम् । हि । गच्छ॑थ: ॥१४०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नासत्या भुरण्यथो यद्वा देव भिषज्यथः। अयं वां वत्सो मतिभिर्न विन्धते हविष्मन्तं हि गच्छथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । नासत्या । भुरण्यथ: । यत् । वा । देवा । भिषज्यथ: ॥ अयम् । वाम् । वत्स: । मतिऽभि: । न । विन्धते । हविष्मन्तम् । हि । गच्छथ: ॥१४०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

    पदार्थ

    (नासत्या) हे असत्य न रखनेवाले दोनो ! [दिन-राति] (यत्) क्योंकि (भुरण्यथः) तुम पोषण करते हो, (वा) और, (देवा) हे व्यवहारकुशल दोनो ! (यत्) क्योंकि (भिषज्यथः) तुम औषध करते हो। (अयम्) यह (वत्सः) बोलनेवाला (वाम्) तुम दोनों को (मतिभिः) अपनी बुद्धियों से (न) नहीं (विन्धते) पाता है, (हविष्मन्तम्) भक्ति रखनेवाले को (हि) ही (गच्छथः) तुम दोनों मिलते हो ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य दिन राति का सुन्दर प्रयोग करके पुष्ट, स्वस्थ, विद्वान् होकर आनन्द पावें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।९।६-१० ॥ १−(यत्) यतः (नासत्या) नास्ति असत्यं ययोस्तौ। नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७। इति नञः प्रकृतिभावः। विभक्तेराकारः। नासत्यौ वाश्विनौ, सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः, सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः, नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा। निरु० ६।१३। नासिकाप्रभवौ प्राणापानावित्यर्थः। हे असत्यरहितौ। सदा सत्यस्वभावौ। अश्विनौ (भुरण्यथः) भुरण धारणापोषणयोः कण्ड्वादिः। सर्वं पोषयथः (यत्) (वा) च (देवा) छान्दसः सांहितिको ह्रस्वः। व्यवहारकुशलौ (भिषज्यथः) भिषज चिकित्सायां कण्ड्वादिः। भैषज्यं कुरुथः (अयम्) (वाम्) युवाम् (वत्सः) अथ० २०।१३८।१। वदतेः-सप्रत्ययः। कथयिता (मतिभिः) बुद्धिभिः (न) निषेधे (विन्धते) दस्य धः। विन्दते लभते (हविष्मन्तम्) भक्तिमन्तम् (हि) एव (गच्छथ) प्राप्नुथः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भुरण्यथो भिषज्यथः

    पदार्थ

    १. हे (नासत्या) = हमारे जीवनों से सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (यत्) = जब (भुरण्यथ:) = हमारा भरण करते हो (वा) = और (देव) = [देवा] सब रोगों को जीतने की कामनावाले आप (भिषज्यथ:) = हमारे सब रोगों की चिकित्सा करते हो तब (अयम्) = यह (वाम्) = आपका (वत्सः) = प्रिय आराधक (मतिभिः) = केवल ज्ञानों से-ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतियों से (न विन्धते) = आपको प्राप्त नहीं करता। (हि) = निश्चय से आप (हविष्मन्तम्) = दानपूर्वक अदन करनेवाले व्यक्ति को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो। २. प्राणसाधना करनेवाला मनुष्य यह अच्छी तरह समझ लेता है कि ये प्राणापान हमारा पालन करते हैं, ये ही हमारे सब रोगों को दूर करते हैं। ऐसा समझता हुआ यह पुरुष केवल प्राणों का स्तवन ही नहीं करता रहता, इस स्तवन के साथ यह त्यागपूर्वक अदन की वृत्तिवाला बनकर प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है। हविष्मान' बनता है।

    भावार्थ

    प्राणापान हमारा पालन करते हैं, ये हमारे सब रोगों की चिकित्सा करते हैं। इनका हम स्तवन करें तथा त्यागपूर्वक अदन करनेवाले बनकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (नासत्या) असत्य व्यवहारों से रहित हे अश्वियो! (यद्) यतः आप दोनों, राष्ट्र द्वारा सौंपे गये कामों को (भुरण्यथः) शीघ्र कर देते हैं, (यद् वा) तथा (देव=देवा=देवौ) आप दोनों देव, राष्ट्र के अज्ञान, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि आदि रोगों की (भिषज्यथः) चिकित्सा समय-समय पर करते रहते हैं, इसलिए (वत्सः) वत्स के समान (अयम्) यह प्रजावर्ग (मतिभिः) अपनी मतियों द्वारा, आपके लिए राष्ट्रिय-कार्यों को (न विन्धते) ठीक-ठीक नहीं जान सकता, उनका मूल्याङ्कन ठीक-ठीक नहीं लगा सकता। (हविष्मन्तम्) राज्य-कर को हविरूप जानकर जो प्रजावर्ग राष्ट्रयज्ञ में स्वयमेव आहुतिरूप में देते हैं, उस प्रजावर्ग की ओर (हि) अवश्य (गच्छथः) आप दोनों जाते हैं।

    टिप्पणी

    [भुरण्युः=क्षिप्रम् (निघं০ २.१५)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Ashvins, harbingers of energy, health and replenishment, ever true unfailing agents of natural law and life’s growth, when you vibrate, radiate and energise, when you nourish, heal, resuscitate and revive things to live and grow, this conscientious darling seeker of your power and presence understands you not by observation, analysis and thought, in your entirety, because you reveal yourself only to the faithful who come to you with homage. (Life is a mystery. You can know the secret of this mystery only by being what it is, by identifying with it in meditation.)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O physician and surgeon, you are the custodians of truth and you are the men of merits, As you strengthen the men so, you treat them medically also. This admirer of yours does not find you with his admirations as come to him who has faith in you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O physician and surgeon, you are the custodians of truth and you are the men of merits. As you strengthen the men so, you treat them medically also. This admirer of yours does not find you with his admirations as come to him who has faith in you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O unfailing and energising ‘Asvins’, possessing divine qualities, beneficial to all, as you nourish like the vital breaths and cure and treat like the physicians, not only the person who loves you like a child, attains youthrough thoughtful actions but you yourselves certainly approach the person, having all means and provisions.

    Footnote

    cf. Rig, 8.9. (6-10).

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।९।६-१० ॥ १−(यत्) यतः (नासत्या) नास्ति असत्यं ययोस्तौ। नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७। इति नञः प्रकृतिभावः। विभक्तेराकारः। नासत्यौ वाश्विनौ, सत्यावेव नासत्यावित्यौर्णवाभः, सत्यस्य प्रणेतारावित्याग्रायणः, नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा। निरु० ६।१३। नासिकाप्रभवौ प्राणापानावित्यर्थः। हे असत्यरहितौ। सदा सत्यस्वभावौ। अश्विनौ (भुरण्यथः) भुरण धारणापोषणयोः कण्ड्वादिः। सर्वं पोषयथः (यत्) (वा) च (देवा) छान्दसः सांहितिको ह्रस्वः। व्यवहारकुशलौ (भिषज्यथः) भिषज चिकित्सायां कण्ड्वादिः। भैषज्यं कुरुथः (अयम्) (वाम्) युवाम् (वत्सः) अथ० २०।१३८।१। वदतेः-सप्रत्ययः। कथयिता (मतिभिः) बुद्धिभिः (न) निषेधे (विन्धते) दस्य धः। विन्दते लभते (हविष्मन्तम्) भक्तिमन्तम् (हि) एव (गच्छथ) प्राप्नुथः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (নাসত্যা) হে অসত্য রহিত উভয়! [দিন-রাত] (যৎ) যেহেতু (ভুরণ্যথঃ) তুমি পোষণ করো, (বা) এবং, (দেবা) হে ব্যবহারকুশল উভয়! (যৎ) যেহেতু (ভিষজ্যথঃ) তুমি ভেষজ/ঔষধি উৎপন্ন করো। (অয়ম্) এই (বৎসঃ) বক্তা (বাম্) তোমাদের উভয়কে (মতিভিঃ) নিজেদের বুদ্ধিতে (ন) (বিন্ধতে) প্রাপ্ত হয় না, (হবিষ্মন্তম্) ভক্তকে (হি) কেবল (গচ্ছথঃ) তোমরা উভয়ে প্রাপ্ত হও ॥১॥

    भावार्थ

    মনুষ্য দিন রাতের সুন্দর প্রয়োগ করে পুষ্ট, সুস্থ, বিদ্বান হয়ে আনন্দ লাভ করুক॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-৮।৯।৬-১০‌।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (নাসত্যা) অসত্য ব্যবহাররহিত হে অশ্বিগণ! (যদ্) যতঃ আপনারা, রাষ্ট্র দ্বারা সমর্পিত কার্য (ভুরণ্যথঃ) শীঘ্র করেন, (যদ্ বা) তথা (দেব=দেবা=দেবৌ) আপনারা দুজন দেব, রাষ্ট্রের অজ্ঞান, দুর্ভিক্ষ, অনাবৃষ্টি প্রভৃতি রোগের (ভিষজ্যথঃ) চিকিৎসা সময়ে-সময়ে করতে থাকেন, এইজন্য (বৎসঃ) বৎস-এর সমান (অয়ম্) এই প্রজাবর্গ (মতিভিঃ) নিজের মতি দ্বারা, আপনার জন্য রাষ্ট্রিয়-কার্য (ন বিন্ধতে) ঠিক-ঠিক জানতে পারে না, সেগুলোর মূল্যাঙ্কন সঠিকভাবে করতে পারে না। (হবিষ্মন্তম্) রাজ্য-কর-কে হবিরূপ জেনে যে প্রজাবর্গ রাষ্ট্রযজ্ঞে স্বয়মেব আহুতিরূপে দেয়, সেই প্রজাবর্গের দিকে (হি) অবশ্যই (গচ্ছথঃ) আপনারা দুজন গমন করেন/যান।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top