अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 140/ मन्त्र 5
यद्वां॑ क॒क्षीवाँ॑ उ॒त यद्व्य॑श्व॒ ऋषि॒र्यद्वां॑ दी॒र्घत॑मा जु॒हाव॑। पृथी॒ यद्वां॑ वै॒न्यः साद॑नेष्वे॒वेदतो॑ अश्विना चेतयेथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒म् । क॒क्षीवा॑न् । उ॒त । यत् । वि॒ऽअ॑श्व: । ऋषि॑: । यत् । वा॒म् । दी॒र्घऽत॑मा:। जु॒हाव॑ ॥ पृथी॑ । यत् । वा॒म् । वै॒न्य: । सद॑नेषु । ए॒व । इत् । अत॑: । अ॒श्वि॒ना॒ । चे॒त॒ये॒था॒म् ॥१४०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वां कक्षीवाँ उत यद्व्यश्व ऋषिर्यद्वां दीर्घतमा जुहाव। पृथी यद्वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतो अश्विना चेतयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वाम् । कक्षीवान् । उत । यत् । विऽअश्व: । ऋषि: । यत् । वाम् । दीर्घऽतमा:। जुहाव ॥ पृथी । यत् । वाम् । वैन्य: । सदनेषु । एव । इत् । अत: । अश्विना । चेतयेथाम् ॥१४०.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
दिन और रात्रि के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (कक्षीवान्) गतिवाले [वा शासनवाले] पुरुष ने, (उत) और (यत्) जैसे (व्यश्वः) विविध वेगवाले ने और (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (दीर्घतमाः) दीर्घतमा [लंबा हो गया है, चला गया है अन्धकार जिससे ऐसे] (ऋषिः) ऋषि [विज्ञानी] ने, (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (वैन्यः) बुद्धिमानों के पास रहनेवाले (पृथी) विस्तारवाले पुरुष ने (सदनेषु) अपने स्थानों में (जुहाव) ग्रहण किया है, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (एव इत्) वैसे ही (अतः) इस [मेरे वचन] को (चेतयेथाम्) जानो ॥॥
भावार्थ
जैसे-जैसे मनुष्य दिन-राति का सुप्रयोग करते हैं, वैसे ही दिन-राति उनको सुख देते हैं ॥॥
टिप्पणी
−(यत्) यथा (वाम्) युवाम् (कक्षीवान्) अथ० ४।२९।। कश गतिशासनयोः-क्सि, मतुप्, मस्य वः, दीर्घश्च। गतिशीलः शासनशीलो वा (उत) अपि च (यत्) यथा (व्यश्वः) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्। विविधवेगयुक्तः (ऋषिः) विज्ञानी (यत्) (वाम्) (दीर्घतमाः) दॄ विदारणे-घञ्+तमु काङ्क्षायां खेदे च-असुन् दीर्घं विदीर्णं दूरीभूतं तमः अन्धकारो यस्मात् स विद्वान् (जुहाव) हु आदाने-लिट्। गृहीतवान्। स्वीकृतवान् (पृथी) अ० ८।१०(४)।११। प्रथ विस्तारे-घञर्थे कप्रत्ययः सम्प्रसारणं च, मत्वर्थे इनि। विस्तारवान् (यत्) (वाम्) (वैन्यः) अथ० ८।१०(४)।११। वेनो मेधावी-निघ० २।१। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इति ण्य। मेधाविनां समीपस्थः (सदनेषु) संहितायां दीर्घः। स्थानेषु (एव) एवम्। तथा (इत्) अवश्यम् (अतः) इदम्-द्वितीयार्थे तसिः। इदं वचनम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (चेतयेथाम्) जानीतम् ॥
विषय
कक्षीवान्-व्यश्व-दीर्घतमा-पृथीवैन्य
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यत्) = जब (वाम्) = आपको (कक्षीवान्) = बद्ध कक्ष्यावाला [One who has girded up one's loins] कमर कसे हुए-दृढ़ निश्चयी पुरुष (जुहाव) = पुकारता है, (उत) = और (यत्) = जब (व्यश्व) = विशिष्ट इन्द्रियाश्वोंवाला पुरुष पुकारता है और (यत्) = जब (वाम्) = आपको (दीर्घतमा:) = तमोगुण को विदीर्ण करनेवाला (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुष पुकारता है तथा अन्ततः (यत्) = जब (वैन्यः) = लोकहित की प्रबल कामनावाला आपको पुकारता है तब हे प्राणापानो! आप अत: इस प्रार्थना व आराधना के द्वारा (सादनेषु एव इत्) = यज्ञगृहों में ही (चेतयेथाम्) = चेतनायुक्त करते हो, अर्थात् आप इन आराधकों को सदा यज्ञशील बनाते हो। २. हमारा जीवन प्रथमाश्रम में 'कक्षीवान्' का जीवन हो। जीवन-यात्रा में आगे बढ़ने के लिए दृढ़ निश्चयी पुरुष का जीवन हो। 'कक्षीवान्' शब्द की भावना ही ब्रह्मचर्यसूक्त में 'मेखलया' शब्द से व्यक्त हुई है। द्वितीया श्रम में हमें 'व्यश्व' बनना है। विशिष्ट इन्द्रियाश्वोंवाला, अर्थात् हमारे ये इन्द्रियाश्व विषयों को चरने में ही व्यस्त न रहें। तृतीयाश्रम में तप व स्वाध्याय के द्वारा तमोगुण का विदारण करके 'दीर्घतमा' बनता है। चतुर्थ में सर्वलोकहित की कामना करते हुए अधिक-से-अधिक व्यापक परिवारवाला 'पृथीवैन्य बन जाना है। ये सब बातें तभी हो सकेंगी जब हम प्राणसाधना में प्रवृत्त होंगे। प्राणसाधना से जीवन यज्ञमय रहेगा, अन्यथा यह भोगप्रधान बन जाएगा।
भावार्थ
हम प्राणसाधना करते हुए 'कक्षीवान्, व्यश्व, दीर्घतमा व पृथीवैन्य' बनें।
भाषार्थ
(अश्विना) हे अश्वियो! (वाम्) तुम दोनों के लिए (कक्षीवान् “ऋषिः”) कक्षिवान् ऋषि ने (उत) और (व्यश्वः “ऋषि”) व्यश्व ऋषि ने (यद् यद्) जो-जो कुछ (जुहाव) राष्ट्र-यज्ञ में अपनी-अपनी आहुतियाँ दी हैं; तथा (वाम्) तुम दोनों के लिए, (दीर्घतमाः “ऋषिः”) दीर्घतमा ऋषि ने (जुहाव) राष्ट्र-यज्ञ में अपनी (यद्) जो आहुतियाँ दी हैं, और (स्वे सादने) बैठने के अपने-अपने मन्त्रालय में, (पृथी, वैन्यः) पृथी-ऋषि और वैन्य-ऋषि ने (वाम्) तुम दोनों के लिए, (यद् वेदतः) जो ज्ञान प्रदान किया है, (चेतयेथाम्) उस सबको तुम अपने चित्तों में धारण करो।
टिप्पणी
[दोनों अश्विनों के मन्त्रिमण्डल का वर्णन मन्त्र में प्रतीत होता है। मन्त्र का यह स्पष्ट अभिप्राय है कि राष्ट्र के दोनों विभागों के मन्त्री, ऋषि-कोटि के होने चाहिएँ। और ऋषियों द्वारा दिये गये परामर्श, राष्ट्रयज्ञ में इनकी आहुतियांरूप हैं। वैदिकदृष्टि में राष्ट्र का शासन यज्ञभावना द्वारा होना चाहिए, आर्थिक लाभ तथा पदाधिकार की लालसा से नहीं होना चाहिए। मन्त्र में कक्षीवान् आदि सभी ऋषिनामों के साथ “ऋषि” पद का अन्वय समझना चाहिए। इसी प्रकार “स्वे सादने” का अन्वय भी प्रत्येक ऋषि के साथ अभिप्रेत है। कक्षीवान्=विविध विद्याओं का ज्ञाता (दयानन्द, ऋ০ १.१२६.२); प्रशस्तशिल्प विद्याओं का ज्ञाता (दया০ ऋ০)। व्यश्व=विविध अश्वोंवाली सेना का मन्त्री (दया০, ऋ০ १.१२.१५)। दीर्घतमाः=दीर्घदर्शी, अर्थात् राष्ट्र-सम्बन्धी भावी घटनाओं को जानकर, तदनुसार उपायों का अवलम्बन करनेवाला मन्त्री (तमाः=तमु कांक्षायाम्)। पृथी=विशाल बुद्धिवाला (दया০ ऋ০ १.११२.१५)। वैन्य=राष्ट्र की शोभा, सौन्दर्य तथा कान्ति का अध्यक्ष मन्त्री। ये और अन्य मन्त्री ऋषि-कोटि के होने चाहिएँ।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Ashvins, when the cavalier or the pedestrian or the sagely seer or the long time plodder or the ruler or the intellectual calls on you for the yajnic session, you listen. Hence, pray listen to our call too and come.
Translation
O Acharya and Purohita (Ashvinau) as the man of activity (Kakshivan), as the man of various wits (Vyashva), as the man, of great ignorance, as a seer, as the son of learned men and as the man of vast experience call and praise you in the assemblies so we ask you come and think of my words.
Translation
O Acharya and Purohita (Ashvinau) as the man of activity (Kakshivan), as the man of various wits (Vyashva), as the man of great ignorance, as a seer, as the son of learned men and as the man of vast experience call and praise you in the assemblies so we ask you come and think of my words.
Translation
O Asvins, whenever, the controller, the swift-powered, the seer, the destroyer of all forces of evil or wickedness, the splendorous one or the defender of vast land call you for help, you should energise them in their own places.
Footnote
No special personalities are referred herein.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(यत्) यथा (वाम्) युवाम् (कक्षीवान्) अथ० ४।२९।। कश गतिशासनयोः-क्सि, मतुप्, मस्य वः, दीर्घश्च। गतिशीलः शासनशीलो वा (उत) अपि च (यत्) यथा (व्यश्वः) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्। विविधवेगयुक्तः (ऋषिः) विज्ञानी (यत्) (वाम्) (दीर्घतमाः) दॄ विदारणे-घञ्+तमु काङ्क्षायां खेदे च-असुन् दीर्घं विदीर्णं दूरीभूतं तमः अन्धकारो यस्मात् स विद्वान् (जुहाव) हु आदाने-लिट्। गृहीतवान्। स्वीकृतवान् (पृथी) अ० ८।१०(४)।११। प्रथ विस्तारे-घञर्थे कप्रत्ययः सम्प्रसारणं च, मत्वर्थे इनि। विस्तारवान् (यत्) (वाम्) (वैन्यः) अथ० ८।१०(४)।११। वेनो मेधावी-निघ० २।१। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इति ण्य। मेधाविनां समीपस्थः (सदनेषु) संहितायां दीर्घः। स्थानेषु (एव) एवम्। तथा (इत्) अवश्यम् (अतः) इदम्-द्वितीयार्थे तसिः। इदं वचनम् (अश्विना) म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (चेतयेथाम्) जानीतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) যেমন (বাম্) তোমরা উভয়ে (কক্ষীবান্) গতিমান [বা শাসক] পুরুষ, (উত) এবং (যৎ) যেমন (ব্যশ্বঃ) বিবিধ বেগবান এবং (যৎ) যেমন (বাম্) তোমাদের উভয়কে (দীর্ঘতমাঃ) দীর্ঘতমা [যার অন্ধকার দূরীভূত হয়েছে এরূপ] (ঋষিঃ) ঋষি [বিজ্ঞানী], (যৎ) যেমন (বাম্) তোমাদের (বৈন্যঃ) বুদ্ধিমানদের কাছে অবস্থানকারী (পৃথী) বিস্তারবান পুরুষ (সদনেষু) নিজের স্থান (জুহাব) গ্রহণ করেছে, (অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বী! [ব্যাপক দিন-রাত] (এব ইৎ) তেমনই (অতঃ) এই [আমার উক্তিকে] (চেতয়েথাম্) জানো ॥৫॥
भावार्थ
যেভাবে-যেভাবে মনুষ্য দিন-রাতের সুপ্রয়োগ করে, তেমনই দিন-রাত তাঁদের সুখ দেয় ॥৫॥
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে অশ্বিগণ! (বাম্) তোমাদের দুজনের জন্য (কক্ষীবান্ “ঋষিঃ”) কক্ষিবান্ ঋষি (উত) এবং (ব্যশ্বঃ “ঋষি”) ব্যশ্ব ঋষি (যদ্ যদ্) যা-যা কিছু (জুহাব) রাষ্ট্র-যজ্ঞে নিজ-নিজ আহুতি প্রদান করেছে; তথা (বাম্) তোমাদের জন্য, (দীর্ঘতমাঃ “ঋষিঃ”) দীর্ঘতমা ঋষি (জুহাব) রাষ্ট্র-যজ্ঞে নিজের (যদ্) যে আহুতি দিয়েছে/প্রদান করেছে, এবং (স্বে সাদনে) নিজ-নিজ বসার মন্ত্রালয়ে/মন্ত্রিসভায়, (পৃথী, বৈন্যঃ) পৃথী-ঋষি এবং বৈন্য-ঋষি (বাম্) তোমাদের দুজনের জন্য, (যদ্ বেদতঃ) যে জ্ঞান প্রদান করেছে, (চেতয়েথাম্) সেই সবকিছু তোমরা নিজ চিত্তে ধারণ করো।
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