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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५
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    इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो। न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सघ॑त्क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद्वचः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ते । व॒यम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ये । त्वा॒ । आ॒रभ्य॑ । चरा॑मसि । प्र॒भु॒व॒सो॒ इति॑ प्रभुऽवसो ॥ न॒हि । त्वत् । अ॒न्य: । गि॒र्व॒ण॒: । गिर॑: । सघ॑त् । क्षो॒णी:ऽइ॑व । प्रति॑ । न॒: । ह॒र्य॒ । तत् । वच॑: ॥१५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो। नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । ते । इन्द्र । ते । वयम् । पुरुऽस्तुत । ये । त्वा । आरभ्य । चरामसि । प्रभुवसो इति प्रभुऽवसो ॥ नहि । त्वत् । अन्य: । गिर्वण: । गिर: । सघत् । क्षोणी:ऽइव । प्रति । न: । हर्य । तत् । वच: ॥१५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये गये ! (प्रभुवसो) हे अधिक धनवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (इमे) यह लोग और (ते) वे लोग (वयम्) हम सब (ते) तेरे हैं, (ये) जो हम (त्वा आरभ्य) तेरा सहारा लेकर (चरामसि) विचरते हैं। (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनयोग्य ! (त्वत्) तुझसे (अन्यः) दूसरा पुरुष (गिरः) [हमारी] वाणियों को (नहि) नहीं (सधत्) सह सकता, (क्षोणी इव) पृथिवियों के समान तू (नः) हमारे (तत्) उस (वचः) वचन में (प्रति) निश्चय करके (हर्य) प्रीति कर ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के बीच अद्वितीय पराक्रमी धर्मज्ञ राजा निकटवर्ती और दूरवर्ती प्रजा की पुकार सुनकर रक्षा करे, जैसे पृथिवी सब उत्पन्न मात्र की रक्षा करती है ॥४॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र सामवेद में भी है-पू० ४।९।३ ॥ ४−(इमे) समीपवर्तिनः (ते) तव (इन्द्रः) हे महाप्रतापिन् राजन् (ते) दूरवर्तिनः पुरुषाः (वयम्) सर्वे (पुरुष्टुत) हे बहुप्रकारं स्तुत (ये) (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) आश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) हे प्रभूतधन (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) मित्रपुरुषः (गिर्वणः) गॄ शब्दे-क्विप्+सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वन संभक्तौ-असुन्। गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति-निरु० ६।१४। हे गीर्भिः स्तुतिभिर्वननीय सेवनीय (गिरः) वाणीः (सघत्) सहेर्लेटि, अडागमः, हस्य घः। सहेत। स्वीकुर्यात् (क्षोणीः) पृथिव्यः (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (नः) अस्माकम् (हर्य) कामयस्व (तत्) (वचः) वचनम् ॥

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    विषय

    इमे वयं ते [प्रभु के]

    पदार्थ

    १. हे (पुरुष्टुत) = पालन व पूरण करनेवाली है स्तुति जिनकी, ऐसे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। (इमे) = ये (ते वयम्) = वे हम सब (ते) = आपके हैं, (ये) = जो हे (प्रभूवसो) = प्रभूतधन प्रभो! त्वा आरभ्य आपका आश्रय करके ही (चरामसि) = गति करते हैं। २. हे (गिर्वणः) = स्तुतिवाणियों से सम्भजनीय प्रभो! त्वदन्यः[त्वत् अन्यः]-आप से भिन्न और कोई (गिरः) = इन स्तुतिवाणियों को (नहि सचत्) = नहीं सहता। स्तुत्य जो आप हैं, आपकी महिमा तो अनन्त है, उसकी तुलना में हमारे स्तुतिवचन अत्यल्प हैं, अत: हम आपकी ठीक स्तुति नहीं कर पाते, फिर भी क्षोणी: इव-आपकी प्रजाओं के समान जो हम हैं उन (नः) = हमारे (तत् वच:) = उन स्तुतिवचनों को (प्रतिहर्य) = प्रीतिपूर्वक ग्रहण कीजिए। ये हमसे उच्चरित स्तुतिवचन आपके लिए प्रिय हों।

    भावार्थ

    हम प्रभु के ही तो हैं, प्रभु के आश्रय से ही सब कार्यों को कर पाते हैं। यद्यपि स्तुत्य प्रभु की महिमा को हमारे स्तुतिवचन पूर्णतया माप नहीं पाते, तो भी हमारे ये स्तुतिवचन प्रभु के लिए प्रिय हों-हम इनके द्वारा प्रभु-जैसा बनने का प्रयत्न करें।

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    भाषार्थ

    (पुरुष्टुत) हे महास्तुतिवाले (इन्द्र) परमेश्वर! (इमे वयम्) ये हम उपासक (ते) आपके हैं, (ते) आपके ही हैं। (प्रभूवसो) हे प्रभूत सम्पत्तिवाले! (ये) जो हम कि (त्वारभ्य) आपका अवलम्ब लेकर, आश्रय लेकर, (चरामसि) विचर रहे हैं। (गिर्वणः) हे वेदवाणियों द्वारा सम्यक् भजने योग्य! (त्वत् अन्यः) आपसे भिन्न कोई भी (गिरः) वेदवाणियों का (सघत्) संवरण करनेवाला, सम्यक् वरण करनेवाला, उन्हें स्वीकृत करनेवाला (नहि) नहीं है। (नः) हमारे (तद् वचः) उन स्तुति-प्रार्थना के वचनों को (प्रति हर्य) चाहनापूर्वक स्वीकार कीजिए, (क्षोणीः इव) जैसे कि आप पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को चाहनापर्वूक अपना रहे हैं। [सघत्=षगे संवरणे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    These are yours, Indra, we are yours, O lord praised and celebrated by all. Beginning with you we go about the business of living, lord of existence and shelter of life. Other than you there is no one else, Lord of holy Word, who would listen to our prayer. Hear our prayer as the voice of earth and humanity and respond with grace.

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    Translation

    These persons, we and they who do their works with orgination of elctricity are depending on it praised by all and which possesses most effective power. Nothing else than this can be the medium of extending the voice. This receives our voice like the earth and expends that voice of ours (to make audible by other).

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    Translation

    These persons, we and they who do their works with origination of electricity are depending on it praised by all and which possesses most effective power. Nothing else than this can be the medium of extending the voice This receives our voice like the earth and expends that voice of ours audible by other).

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    Translation

    O Lord of Fortunes, the most Adorable, we, the devotees, who do all our works, placing Thee in the fore-front are all Thine alone, none else than Thee deserves our praises. Listen to our prayers like the all-tolerant earth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र सामवेद में भी है-पू० ४।९।३ ॥ ४−(इमे) समीपवर्तिनः (ते) तव (इन्द्रः) हे महाप्रतापिन् राजन् (ते) दूरवर्तिनः पुरुषाः (वयम्) सर्वे (पुरुष्टुत) हे बहुप्रकारं स्तुत (ये) (त्वा) त्वाम् (आरभ्य) आश्रित्य (चरामसि) विचरामः (प्रभूवसो) हे प्रभूतधन (नहि) निषेधे (त्वत्) तव सकाशात् (अन्यः) मित्रपुरुषः (गिर्वणः) गॄ शब्दे-क्विप्+सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वन संभक्तौ-असुन्। गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति-निरु० ६।१४। हे गीर्भिः स्तुतिभिर्वननीय सेवनीय (गिरः) वाणीः (सघत्) सहेर्लेटि, अडागमः, हस्य घः। सहेत। स्वीकुर्यात् (क्षोणीः) पृथिव्यः (इव) यथा (प्रति) निश्चयेन (नः) अस्माकम् (हर्य) कामयस्व (तत्) (वचः) वचनम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাধ্যক্ষগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুষ্টুত) হে অনেকের দ্বারা স্তুত্য! (প্রভুবসো) হে অধিক ধনবান (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [মহাপ্রতাপী রাজন্] (ইমে) এই মনুষ্যগণ এবং (তে) সেই মনুষ্যগণ (বয়ম্) আমরা সবাই (তে) তোমার, (যে) যে আমরা (ত্বা আরভ্য) তোমার আশ্রয় গ্রহণ করে (চরামসি) বিচরণ করি। (গির্বণঃ) হে স্ততির দ্বারা সেবনযোগ্য! (ত্বৎ) তোমার থেকে (অন্যঃ) ভিন্ন পুরুষ (গিরঃ) [আমাদের] বাণীসমূহকে (নহি) না (সধৎ) সহ্য করতে পারে, (ক্ষোণী ইব) পৃথিব্যাদির ন্যায় তুমি (নঃ) আমাদের (তৎ) সেই (বচঃ) বাণীর প্রতি (প্রতি) নিশ্চিতরূপে (হর্য) প্রীতি করো ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্যগণের মধ্যে অদ্বিতীয় পরাক্রমী ধর্মজ্ঞ রাজা নিকটবর্তী এবং দূরবর্তী প্রজার আহ্বান শুণে রক্ষা করবে/করুক, যেইরূপ পৃথিবী সকল উৎপন্নমাত্রের রক্ষা করে॥৪॥ এই মন্ত্র সামবেদেও আছে-পূ০৪।৯।৩।

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    भाषार्थ

    (পুরুষ্টুত) হে মহাস্তুতিযুক্ত (ইন্দ্র) পরমেশ্বর! (ইমে বয়ম্) এই আমরা উপাসক (তে) আপনার, (তে) আপনারই। (প্রভূবসো) হে প্রভূত সম্পত্তিসম্পন্ন! (যে) যে আমরা (ত্বারভ্য) আপনার অবলম্বন গ্রহণ করে, আশ্রয় নিয়ে/গ্রহণ করে, (চরামসি) বিচরণ করছি। (গির্বণঃ) হে বেদবাণী দ্বারা সম্যক্ ভজন যোগ্য! (ত্বৎ অন্যঃ) আপনার থেকে কেউই (গিরঃ) বেদবাণীর (সঘৎ) সংবরণকারী, সম্যক্ বরণকারী, স্বীকৃতকারী (নহি) নেই। (নঃ) আমাদের (তদ্ বচঃ) সেই স্তুতি-প্রার্থনার বচন (প্রতি হর্য) কামনাপূর্বক স্বীকার করুন, (ক্ষোণীঃ ইব) যেমন আপনি পৃথিবী আদি লোক-লোকান্তরকে কামনাপর্বূক নিজের করেছেন। [সঘৎ= ষগে সংবরণে।]

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