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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५
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    त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ। अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । म॒हान् । उ॒रुम् । वज्रे॑ण ॥ व॒ज्र‍ि॒न् । प॒र्व॒ऽश: । च॒क॒र्ति॒थ॒ ॥ अव॑ । अ॒सृ॒ज॒: । निऽवृ॑ता: । सर्त॒वै । अ॒प: । स॒त्रा । विश्व॑म् । द॒धि॒षे॒ । केव॑लम् । सह॑: ॥१५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ। अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । इन्द्र । पर्वतम् । महान् । उरुम् । वज्रेण ॥ वज्र‍िन् । पर्वऽश: । चकर्तिथ ॥ अव । असृज: । निऽवृता: । सर्तवै । अप: । सत्रा । विश्वम् । दधिषे । केवलम् । सह: ॥१५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे वज्रधारी (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (त्वम्) तूने (तम्) उस (महाम्) बड़े, (उरुम्) चौड़े (पर्वतम्) पहाड़ के (वज्रेण) वज्र [हथियारों के झुण्ड] से (पर्वशः) टुकड़े-टुकड़े करके (चकर्तिथ) काट डाला है। और (निवृतः) रोके हुए (अपः) जलों को (सर्तवै) बहने के लिये (अव असृजः) छोड़ दिया है, (सत्रा) सत्य रूप से (विश्वम्) सम्पूर्ण, (केवलम्) असाधारण (सहः) बल को (दधिषे) तूने धारण किया है ॥६॥

    भावार्थ

    जो वीर पराक्रमी राजा पहाड़ों को काटकर वहाँ पर एकत्र हुए जल को पृथिवी पर लाकर खेती आदि में उपयुक्त करे, वह संसार के बीच कीर्तिमान् होवे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(त्वम्) (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (पर्वतम्) शैलम् (महाम्) नकारतकारयोर्लोपः। महान्तम् (उरुम्) विस्तीर्णम् (वज्रेण) आयुधसमूहेन (वज्रिन्) हे शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) खण्डशः (चकर्तिथ) कृती छेदने-लिट्। छिन्नवानसि (अवासृजः) मुक्तवानसि (निवृताः) निवारिताः। निरुद्धाः (सर्तवै) सरतेः कृत्यार्थे तवैप्रत्ययः। सरणाय। वहनाय (अपः) जलानि (सत्रा) सत्यरूपेण (विश्वम्) सर्वम् (दधिषे) धारितवानसि (केवलम्) असाधारणम् (सहः) बलम् ॥

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    विषय

    अविद्यापर्वत का विदारण

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले (वनिन्) = ज्ञानवज को हाथ में लिये हुए प्रभो! (त्वम्) = आप (तम्) = उस (महान्) = महान् (उरुम्) = विशाल (पवर्तम्) = अविद्यापर्वत को (वज्रेण) = ज्ञान-वज्र के द्वारा (पर्वश:) = एक-एक पर्व करके चकर्तिथ काट डालते हैं। हृदय में प्रभु की स्थिति होते ही सब अज्ञानान्धकार विलीन हो जाता है। २. अविद्यापर्वत के विनाश के द्वारा आप (निवृता:) = वासना के आवरण से ढके हुए अप: रेत:कणों को (सर्तव) = शरीर में गति के लिए (अवासृज:) = विसृष्ट करते हैं। काम के पाश से मुक्त होने पर रेत:कण शरीर में ही गतिवाले होते हैं। इसप्रकार (सत्रा) = सचमुच (विश्वम) = सब-अंग-प्रत्यंग में प्रविष्ट (केवलम्) = आनन्द में विचरण करानेवाले (सहः) = बल को (दधिषे) = धारण करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ज्ञानव द्वारा अविद्यापर्वत का विदारण करते हैं। इसप्रकार वासना-विनाश के द्वारा सोमकणों को शरीर में गति कराते हुए वे प्रभु हममें आनन्दप्रद बल को स्थापित करते हैं। वासनाओं से पीड़ित न होनेवाला यह उपासक अपने अन्दर प्राणशक्ति को धारण करता है, अतः 'अयास्य' कहलाता है-अनधक। यह अगले सूक्त का ऋषि है। यह 'बृहस्पति' नाम से प्रभु का स्तवन करता है -

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    भाषार्थ

    (वज्रिन् इन्द्र) हे वज्रधारी परमेश्वर! आपने (वज्रेण) विद्युद्रूपी वज्र द्वारा (महाम्) महान् और (उरुम्) विस्तारी (पर्वतम्) मेघ को (पर्वशः) टुकड़े-टुकड़े करके (चकर्तिथ) काट गिराया है। और (निवृताः) मेघ में नितरां घिरे हुए (अपः) जलों को (सर्तवै) सरण करने के लिए, बहने के लिए (अवासृजः) नीचे भूमि की ओर प्रकट कर दिया है। (सत्रा) यह सत्य है कि आप ही (विश्वम्) ब्रह्माण्ड का (दधिषे) धारण-पोषण कर रहे हैं। (सहः) यह सामर्थ्य (केवलम्) केवल आपका ही है।

    टिप्पणी

    [सत्रा= सत्यम् (निघं० ३।१०)। पर्वतः=मेघः (निघं० १।१०)। पर्वत से अभिप्राय बर्फनिर्मित : पर्वत का भी है, जो कि पर्वतों की घाटियों में लेटा पड़ा रहता है । इसे glacier कहते हैं । glacier = more Properly a slowly moving river and ice; such as is found in the hollows and on the slopes of lofty mountains.]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, lord of the thunderbolt, you break that mountainous cloud of vast dimensions part by part with the thunderbolt of lightning energy. You release the held up waters for downward flow in the streams. Eternal and absolute lord of omnipotence, you alone wield and sustain the universe and universal energy.

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    Translation

    This electricity holding the thunder as its weapon with the bolt shatters the broad massive cloud into pieces. This sends gown the obstructed waters to flow. This, possesses for ever all this extra-ordinary might.

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    Translation

    This electricity holding the thunder as its weapon with the bolt shatters the broad massive cloud into pieces. This sends down the obstructed waters to flow. This, possesses for ever all this extra-ordinary might.

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    Translation

    Just as thundering-electricity reduces the vast cloud to nothing by its thunderbolt, so dost thou, O king, equipped with piercing weapons like the thunderbolt, smash into pieces the vast armies of the enemy, consisting of various units, by your striking power like the thunderbolt. Just as the waters of the cloud released by the electricity, fall down and flow over the earth, similarly the well-equipped armies of the enemy; being subdued by the might of the king, are duly regulated by him. Truly dost thou alone, O king, hold all the power to subdue the foes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(त्वम्) (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (पर्वतम्) शैलम् (महाम्) नकारतकारयोर्लोपः। महान्तम् (उरुम्) विस्तीर्णम् (वज्रेण) आयुधसमूहेन (वज्रिन्) हे शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) खण्डशः (चकर्तिथ) कृती छेदने-लिट्। छिन्नवानसि (अवासृजः) मुक्तवानसि (निवृताः) निवारिताः। निरुद्धाः (सर्तवै) सरतेः कृत्यार्थे तवैप्रत्ययः। सरणाय। वहनाय (अपः) जलानि (सत्रा) सत्यरूपेण (विश्वम्) सर्वम् (दधिषे) धारितवानसि (केवलम्) असाधारणम् (सहः) बलम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাধ্যক্ষগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বজ্রিন্) হে বজ্রধারী (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [মহাপ্রতাপী রাজন্] (ত্বম্) তুমি (তম্) এই (মহাম্) বৃহৎ, (উরুম্) বিস্তীর্ণ (পর্বতম্) পাহাড়কে (বজ্রেণ) বজ্র [অস্ত্র-শস্ত্রের সমূহ] দ্বারা (পর্বশঃ) খণ্ড-বিখণ্ড করে (চকর্তিথ) ছিন্নবিচ্ছিন্ন করে দিয়েছো। এবং (নিবৃতঃ) নিরুদ্ধ (অপঃ) জলকে (সর্তবৈ) প্রবাহিত করার জন্য (অব অসৃজঃ) মুক্ত করেছো, (সত্রা) সত্যরূপে (বিশ্বম্) সম্পূর্ণ, (কেবলম্) অসাধারণ (সহঃ) বল (দধিষে) তুমি ধারণ করেছো॥৬॥

    भावार्थ

    যে বীর পরাক্রমী রাজা পহাড়সমূহকে ছিন্ন করে সেখানে একত্রিত জলকে পৃথিবীতে/ভূমিতে নিয়ে এসে চাষাবাদের উপযুক্ত করে, সে সংসারের মাঝে কীর্তিমান হয়/হোক॥৬॥

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    भाषार्थ

    (বজ্রিন্ ইন্দ্র) হে বজ্রধারী পরমেশ্বর! আপনি (বজ্রেণ) বিদ্যুৎ-রূপী বজ্র দ্বারা (মহাম্) মহান্ এবং (উরুম্) বিস্তারী (পর্বতম্) মেঘকে (পর্বশঃ) টুকরো-টুকরো করে (চকর্তিথ) কেটে ফেলেছেন। এবং (নিবৃতাঃ) মেঘে নিরন্তর ঘিরে থাকা (অপঃ) জলকে (সর্তবৈ) সরণ করার জন্য, প্রবাহের জন্য (অবাসৃজঃ) নীচে ভূমির দিকে প্রকট করেছেন। (সত্রা) ইহা সত্য যে, আপনিই (বিশ্বম্) ব্রহ্মাণ্ডের (দধিষে) ধারণ-পোষণ করছেন। (সহঃ) এই সামর্থ্য (কেবলম্) কেবল আপনারই আছে।

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