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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१
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    न्यू॒षु वाचं॒ प्र म॒हे भ॑रामहे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः। नू चि॒द्धि रत्नं॑ सस॒तामि॒वावि॑द॒न्न दु॑ष्टु॒तिर्द्र॑विणो॒देषु॑ शस्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । ऊं॒ इति॑ । सु । वाच॑म् । प्र । म॒हे । भ॒रा॒म॒हे॒ । गिर॑: । इन्द्रा॑य । सद॑ने । वि॒वस्व॑त: ॥ नु । चि॒त् । हि । रत्न॑म् । स॒स॒ताम्ऽइ॑व । अवि॑दत् । न । दु॒:ऽस्तु॒ति: । द्र॒वि॒ण॒:ऽदेषु॑ । श॒स्य॒ते॒ ॥२१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यूषु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः। नू चिद्धि रत्नं ससतामिवाविदन्न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । ऊं इति । सु । वाचम् । प्र । महे । भरामहे । गिर: । इन्द्राय । सदने । विवस्वत: ॥ नु । चित् । हि । रत्नम् । ससताम्ऽइव । अविदत् । न । दु:ऽस्तुति: । द्रविण:ऽदेषु । शस्यते ॥२१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (महे) पूजनीय (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] के लिये (सु) सुन्दर लक्षणवाली (वाचम्) वाणी और (गिरः) स्तुतियों को (विवस्वतः) विविध निवासवाले [धनी पुरुष] के (सदने) घर पर (नि उ) निश्चय करके ही (प्र भरामहे) हम धारण करते हैं। (हि) क्योंकि (ससताम्) सोते हुए मनुष्यों को (इव) ही (रत्नम्) रत्न [रमणीय धन] को (नु) शीघ्र (चित्) निश्चय करके (अविदत्) उस [चोर आदि] ने ले लिया है, (द्रविणोदेषु) धन देनेवाले पुरुषों में (दुष्टुतिः) दुष्ट स्तुति (न शस्यते) श्रेष्ठ नहीं होती है ॥१॥

    भावार्थ

    धर्मात्मा लोगों की स्तुति बड़े लोगों में होती है, आलसी निकम्मों के धन को चोर आदि ले जाते हैं, विद्वानों को श्रेष्ठों की बढ़ाई ही सदा करनी चाहिये ॥१॥

    टिप्पणी

    यह पूरा सूक्त ऋग्वेद में है-१।३।१-११ ॥ १−(नि) निश्चयेन (उ) एव (सु) शोभनाम् (वाचम्) वाणीम् (प्र) प्रकर्षेण (महे) महते। पूजनीयाय (भरामहे) धरामहे (गिरः) स्तुतीः निरु० १।१० (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (सदने) गृहे (विवस्वतः) अ० २०।११।७। बहुनिवासयुक्तस्य धनिनः पुरुषस्य (नु) शीघ्रम् (चित्) निश्चयेन (हि) यस्मात् कारणात् (रत्नम्) रमणीयं सुवर्णादिधनम् (ससताम्) स्वपतां पुरुषाणाम् (इव) अवधारणे (अविदत्) अलभत स चोरादिकः (न) निषेधे (दुष्टुतिः) दुः स्तुतिः। दुष्टा स्तुतिः। असमीचीना प्रशंसा (द्रविणोदेषु) अ० २०।२।४। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।०। द्रु गतौ-इनन्+ददातेः-कप्रत्यय, पूर्वपदस्य सकार उपजनः। द्रविणं धननाम-निघ० २।१०। धनदातृषु (शस्यते) प्रशस्ता भवति ॥

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    विषय

    महान् दाता

    पदार्थ

    १. (महे) = महान्-पूजनीय (इन्द्राय) = सर्वैश्वर्यवान् प्रभु के लिए (सुवाचम्) = शोभन स्तुतिवाणी को (नि प्रभरामहे) = नितरां प्रयुक्त करते हैं। (विवस्वत:) = प्रभु परिचर्या करनेवाले यजमान के सदने यज्ञग्रह में (उ) = निश्चय से उस इन्द्र के लिए (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ उच्चरित होती है। २.(हि) = निश्चय से वह प्रभु (नू चित् हिरनम्) = रमणीय धन को (अविदत्) = प्राप्त कराते हैं, (इव) = जिस प्रकार वे (ससताम्) = सोये हुए पुरुषों के धन को छीन लेते हैं। सोये हुओं के धनों को छीन कर वे पुरुषार्थियों को प्राप्त करा देते हैं। (द्रविणोदेषु) = धन के दाता पुरुषों में (दष्टुति:) = असमीचीन स्तुति, अर्थात् निन्दा (न) = नहीं (शस्यते) = कही जाती-दाता की कभी निन्दा नहीं की जाती, अतः हम उस महान् दाता का भी स्तवन करें।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्तवन करें। यज्ञशील पुरुष सदा प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु सदा रमणीय धन देते हैं। दाता की सदा प्रशंसा होती है।

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    भाषार्थ

    (विवस्वतः) सूर्य के (सदने) सदन अर्थात् पृथिवीलोक में रहते हुए हम उपासक, (महे इन्द्राय) महान् परमेश्वर के प्रति (वाचम्) अपने स्तुतिवचन और (गिरः) वैदिक स्तुतिवचन (नि) नितरां तथा (सु) उत्तम-विधि से (प्र भरामहे) भेंट करते हैं। (नु चित् हि) निश्चय से ही वह परमेश्वर उन सुस्त उपासक व्यक्तियों की (रत्नम्) आध्यात्मिक-सम्पत्तियों को (अविदत्) हर लेता है। (इव) जैसे कि वह (ससताम्) स्वप्नशील अनुद्यमी व्यक्तियों की प्राकृतिक सम्पत्तियों को हर लेता है। (दुष्टुतिः) अविधिपूर्वक की गई स्तुति दुःस्तुति है, वह (द्रविणोदेषु) सर्वस्व समर्पित करनेवाले उपासकों में (न शस्यते) प्रशंसित नहीं है।

    टिप्पणी

    [ससताम्=षस स्वप्ने। द्रविणोदेषु=द्रविणम् (=धनम्)+दा (दातारः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    In this great yajnic house of Vivas van, lord of light, we raise our voice of celebrations in honour of Indra, lord of power and action, for the sake of honour and prosperity. Rarely is the jewel obtained by the lazy loons asleep. And slander finds no favour among the givers of wealth.

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    Translation

    We always use the good prayer and praise for great Almighty God, in the place of the man who gives no place for evil acts and evils understanding adorations are well performed, none of the men who sleeps find precious wealth and superfluous praise is not done for the persons who give the wealth to deserving others.

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    Translation

    We always use the good prayer and praise for great Almighty God, in the place of the man who gives no place for evil acts and evils understanding adorations are well performed, none of the men who sleeps find precious wealth and superfluous praise is not done for the persons who give the wealth to deserving others.

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    Translation

    We respectfully offer good praises for the mighty God. In the house of a devotee prayers go forth to thy Adorable Lord. Just as the precious wealth of the sleeping persons is stolen away by the thieves, so are the means of comforts and pleasures taken away from those, who slacken in their devotion to God. Hence any aversion to prayers does not behave the donors of wealth, (i.e.. Those who want to be donors of riches to others, must realise the importance of daily prayers to the mighty God.

    Footnote

    God, being Omnipresent does not come from far and near. It is the realisation of God by the soul, that is meant for the devotee. He is near at hand, for the non-believers. He is far distant or rather, nowhere. But the time come when even the well-known atheists are flushed with the Refulgence of the Lord.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह पूरा सूक्त ऋग्वेद में है-१।३।१-११ ॥ १−(नि) निश्चयेन (उ) एव (सु) शोभनाम् (वाचम्) वाणीम् (प्र) प्रकर्षेण (महे) महते। पूजनीयाय (भरामहे) धरामहे (गिरः) स्तुतीः निरु० १।१० (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (सदने) गृहे (विवस्वतः) अ० २०।११।७। बहुनिवासयुक्तस्य धनिनः पुरुषस्य (नु) शीघ्रम् (चित्) निश्चयेन (हि) यस्मात् कारणात् (रत्नम्) रमणीयं सुवर्णादिधनम् (ससताम्) स्वपतां पुरुषाणाम् (इव) अवधारणे (अविदत्) अलभत स चोरादिकः (न) निषेधे (दुष्टुतिः) दुः स्तुतिः। दुष्टा स्तुतिः। असमीचीना प्रशंसा (द्रविणोदेषु) अ० २०।२।४। द्रुदक्षिभ्यामिनन्। उ० २।०। द्रु गतौ-इनन्+ददातेः-कप्रत्यय, पूर्वपदस्य सकार उपजनः। द्रविणं धननाम-निघ० २।१०। धनदातृषु (शस्यते) प्रशस्ता भवति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মহে) পূজনীয় (ইন্দ্রায়) ইন্দ্র [ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] এর জন্য (সু) সুন্দর লক্ষণযুক্ত (বাচম্) বাণী এবং (গিরঃ) স্তুতিসমূহ, (বিবস্বতঃ) বিবিধ নিবাসযুক্ত [ধনী মনুষ্য] এর (সদনে) গৃহে (নি উ) নিশ্চিতরূপেই (প্র ভরামহে) আমরা ধারণ করি। (হি) কারণ (সসতাম্) ঘুমন্ত মনুষ্যদের (ইব)(রত্নম্) রত্ন [রমণীয় ধন] (নু) শীঘ্র (চিৎ) নিশ্চিতরূপে (অবিদৎ) সেই [চোর-আদি] হরণ করেছে, (দ্রবিণোদেষু) ধনদাতা মনুষ্যদের মধ্যে (দুষ্টুতিঃ) দুষ্ট স্তুতি/অনুচিত প্রশংসা (ন শস্যতে) শ্রেষ্ঠ প্রতিপন্ন হয় না।।১।।

    भावार्थ

    ধর্মাত্মা ব্যক্তিদের স্তুতি বড়দের মাঝেই হয়ে থাকে, অলস অকর্মণ্যদের ধনসম্পদ চোর-আদি নিয়ে যায়, বিদ্বানদের সর্বদা শ্রেষ্ঠ ব্যক্তিদের প্রশংসা করা উচিত ।।১।।

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    भाषार्थ

    (বিবস্বতঃ) সূর্যের (সদনে) সদন অর্থাৎ পৃথিবীলোকে বর্তমান/স্থিত আমরা উপাসক, (মহে ইন্দ্রায়) মহান্ পরমেশ্বরের প্রতি (বাচম্) নিজেদের স্তুতিবচন এবং (গিরঃ) বৈদিক স্তুতিবচন (নি) নিরন্তর তথা (সু) উত্তম-বিধিপূর্বক (প্র ভরামহে) অর্পণ করি। (নু চিৎ হি) নিশ্চিতরূপেই সেই পরমেশ্বর সেই সতেজ উপাসক ব্যক্তিদের (রত্নম্) আধ্যাত্মিক-সম্পত্তি (অবিদৎ) হরণ/প্রাপ্ত করেন। (ইব) যেমন তিনি (সসতাম্) স্বপ্নশীল অনুদ্যমী ব্যক্তিদের প্রাকৃতিক সম্পত্তি হরণ করেন। (দুষ্টুতিঃ) অবিধিপূর্বক কৃত স্তুতি হল দুঃস্তুতি, তা (দ্রবিণোদেষু) সর্বস্ব সমর্পিতকারী উপাসকদের মধ্যে (ন শস্যতে) প্রশংসিত নয়।

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