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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१
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    यु॒धा युध॒मुप॒ घेदे॑षि धृष्णु॒या पु॒रा पुरं॒ समि॒दं हं॒स्योज॑सा। नम्या॒ यदि॑न्द्र॒ सख्या॑ परा॒वति॑ निब॒र्हयो॒ नमु॑चिं॒ नाम॑ मा॒यिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒धा । युध॑म् । उप॑ । घ॒ । इत् । ए॒षि॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । पु॒रा । पुर॑म् । सम् । इ॒दम् । हं॒सि॒ । ओज॑सा ॥ नम्या॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । सख्या॑ । प॒रा॒ऽवति॑ । नि॒ऽब॒र्हय॑: । नमु॑चिम् । नाम॑ । मा॒यिन॑म् ॥२१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा। नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युधा । युधम् । उप । घ । इत् । एषि । धृष्णुऽया । पुरा । पुरम् । सम् । इदम् । हंसि । ओजसा ॥ नम्या । यत् । इन्द्र । सख्या । पराऽवति । निऽबर्हय: । नमुचिम् । नाम । मायिनम् ॥२१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] (युधा) एक युद्ध से (युधम्) दूसरे युद्ध को (घ) निश्चय करके (इत्) अवश्य (धृष्णुया) निर्भयता से (उप एषि) तू चला चलता है, और (इदम्) अब (पुरा) एक गढ़ के साथ (पुरम्) दूसरे गढ़ को (ओजसा) बल से (सं हंसि) तू नष्ट कर देता है। (यत्) क्योंकि (नम्या) नम्र [आज्ञाकारी] (सख्या) मित्र के साथ (परावति) दूर देश में (नमुचिम्) न छूटने योग्य [दण्डनीय] (नाम) प्रसिद्ध (मायिनम्) छली पुरुष को (निबर्हयः) तूने मार डाला है ॥७॥

    भावार्थ

    राजा विनीत आज्ञाकारी मित्रों के साथ कपटी शत्रुओं को और उनके दुर्गों को नाश करके सुख से राज्य करे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(युधा) युद्धेन (युधम्) युद्धम् (उप) समीपे (घ) निश्चयेन (इत्) एव (एषि) गच्छसि। प्राप्नोषि (धृष्णुया) त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नुः। पा० ३।२।१४०। इति ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याजादेशः। धृष्णुना। धर्षकेण प्रगल्भेन कर्मणा (पुरा) शत्रुदुर्गेण (पुरम्) शत्रुदुर्गम् (सम्) सम्यक् (इदम्) इदानीम् (हंसि) नाशयसि (ओजसा) बलेन (नम्या) णम प्रह्वत्वे-यत्, विभक्तेराकारः। नम्येन। नम्रेण। विनीतेन (यत्) यदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् सेनापते (सख्या) मित्रेण (परावति) दूरदेशे (निबर्हयः) म० ६। नितरां नाशितवानसि (नमुचिम्) भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। मुच्लृ मोचने-इप्रत्ययः क्ति। नभ्राण्नपान्नवेदाना०। पा० ६।३।७। इति नमः प्रकृतिभावः। अमोचनीयम्। दण्डनीयम् (नाम) प्रसिद्धम् (मायिनम्) छलिनम् ॥

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    विषय

    नमुचि-निबर्हण

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! आप (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षक (युधा) = आयुध के द्वारा (युधम्) = शत्रु के आयुध को (उप घा इत् एषि) = निश्चय से समीपता से प्राप्त होते हैं। धर्षक आयुधों के द्वारा शत्रु के आयुध को विनष्ट कर डालते हैं। (पुरा) = हमारे पालन व पूरण के दृष्टिकोण से [पृ पालनपूरणयोः] (इदं पुरम्) = इस शत्रु की नगरी को (ओजसा) = ओज के हारा (सं हंसि) = सम्यक नष्ट कर डालते हैं। 'काम' ने इन्द्रियों में, क्रोध ने मन में तथा लोभ ने बुद्धि में जो किले बना लिये थे, उन्हें आप नष्ट कर डालते हैं और इसप्रकार हमारा पालन करते हैं। २. हे इन्द्र! (यत्) = जब आप (नम्या) = सबको प्रहीभूत करनेवाली-झुका देनेवाली (सख्या) = सखिभूत शक्ति से (नमुचिं नाम मायिनम्) = इस नमुचि नामक आसुरभाव को (परावति) = सुदूर देश में (निबर्हयः) = विनष्ट कर डालते हैं। अहंकार की वासना नमुचि है-पीछा न छोड़नेवाली है [न+मच]। सब आसुरभावों को जीत लेने पर भी यह इस रूप में प्रकट होती है कि 'मैंने कितनी महान विजय कर ली'। प्रभु-स्मरण ही इसका विनाश करता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे सब आसुरभावों का विनाश करते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (युधा) देवासुर-संग्राम में युद्ध करनेवाले (धृष्णुया) हठीले कामादि के साथ (युधम्) युद्ध करना, आप (उप एषि) स्वीकार कर लेते हैं। (घ इत्) अवश्य ही स्वीकार कर लेते हैं। और (पुरा) अनादिकाल से (इदं पुरम्) कामादि की इस पुरी को (ओजसा) निज ओज द्वारा (सम् हंसि) आप सम्यक् प्रकार से हनन कर देते हैं। (यद्) जबकि (नम्या) रात्रिकाल में (सख्या) निज सखिभाव के कारण (परावति) पराविद्यावाले उपासक में स्थित (नमुचिम्) और उसे न छोड़नेवाले (मायिनं नाम) प्रसिद्ध मायावी अर्थात् छल-कपट से युक्त कामादि की (निबर्हयः) जड़ काट देते हैं।

    टिप्पणी

    [पुरम्=कामादि की पुरी हैं रजोगुण और तमोगुण, जो कि चित्त पर राज्य कर रहे होते हैं। नम्याः=रात्रि के १२ बजे के उपरान्त, अश्विकाल में उपासना परिपक्व हो जाने पर परमेश्वर सखा बन कर उपासक का उपकार करता है। [नम्या=रात्रि (निघं০ १.७)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    With the courage and arms of a mighty warrior you go forward, engage the enemy and with your valour and splendour destroy the hostile fort yonder. With your friends and disciplined warriors, in the far off country, you uproot the guileful adversary who, otherwise, is a constant challenge and terror to humanity.

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    Translation

    O Almighty God you fight against encountering force with your surpassing intrepidity, you through your power destroy this fort of cloud with Pura, the heat, and you through the the binding contact you and destroy the water-restraining cloud (Namuchi) stying afar and naed as Mayi, the tactful.

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    Translation

    O Almighty God you fight against encountering force with your surpassing intrepidity, you through your power destroy this fort of cloud with Pura, the heat, and you through the binding contact you and destroy the water-restraining cloud (Namuchi) stying afar and named as Mayi, the tactful.

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    Translation

    O Adorable God, Thou verily approachest the Yogi, seeking union with Thee by Thy evil-destroying and uniting power. By thy splendorous Prowess, Thou completely smashes the fortress of evil from Thy vast fortress of the universe. In the highest place of shelter, along with Thy humble friend, the yogi, mayst Thou fully set at liberty the person, who is too engrossed in the worldly affairs to be liberated with ease. Or, O mighty king, thou can easily get at the striking power of the enemy by thy overwhelming striking force. Being well-entrenched in thy sheltered place of defence, thou canst thoroughly break the defences ofthe enemy to smithers. Completely crush the deceitful enemy, unfit to be left alive, through thy faithful ally, although stationed at a distance.

    Footnote

    Griffith’s refers to demons like Namuchi, etc., quite in disregard of etymological meanings of the words.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(युधा) युद्धेन (युधम्) युद्धम् (उप) समीपे (घ) निश्चयेन (इत्) एव (एषि) गच्छसि। प्राप्नोषि (धृष्णुया) त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नुः। पा० ३।२।१४०। इति ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याजादेशः। धृष्णुना। धर्षकेण प्रगल्भेन कर्मणा (पुरा) शत्रुदुर्गेण (पुरम्) शत्रुदुर्गम् (सम्) सम्यक् (इदम्) इदानीम् (हंसि) नाशयसि (ओजसा) बलेन (नम्या) णम प्रह्वत्वे-यत्, विभक्तेराकारः। नम्येन। नम्रेण। विनीतेन (यत्) यदा (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् सेनापते (सख्या) मित्रेण (परावति) दूरदेशे (निबर्हयः) म० ६। नितरां नाशितवानसि (नमुचिम्) भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। मुच्लृ मोचने-इप्रत्ययः क्ति। नभ्राण्नपान्नवेदाना०। पा० ६।३।७। इति नमः प्रकृतिभावः। अमोचनीयम्। दण्डनीयम् (नाम) प्रसिद्धम् (मायिनम्) छलिनम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [ঐশ্বর্যবান। সেনাপতি] (যুধা) এক যুদ্ধ দ্বারা (যুধম্) অপর যুদ্ধকে (ঘ) নিশ্চিতরূপে (ইৎ) অবশ্যই (ধৃষ্ণুয়া) নির্ভয়তার সহিত (উপ এষি) তুমি প্রাপ্ত হও, এবং (ইদম্) এখন (পুরা) এক দূর্গের সাথে (পুরম্) অপর দূর্গকে (ওজসা) বল দ্বারা (সং হংসি) তুমি বিনষ্ট করো। (যৎ) কারণ (নম্যা) নম্র [আজ্ঞাকারী] (সখ্যা) মিত্রের সাথে (পরাবতি) দূর দেশে (নমুচিম্) অমোচনীয় [দণ্ডনীয়] (নাম) খ্যাত (মায়িনম্) ছলনাকারী পুরুষকে (নির্বহয়ঃ) তুমি হনন করেছো।।৭।।

    भावार्थ

    রাজা তাঁর বিনীত আজ্ঞাকারী মিত্রদের সহিত কপটতাকারী শত্রুদের এবং তাঁদের দুর্গ বিনাশ করে সুখপূর্বক রাজ্য পরিচালনা করুক।।৭।।

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (যুধা) দেবাসুর-সংগ্রামে যোদ্ধা (ধৃষ্ণুয়া) কঠোর কামাদির সাথে (যুধম্) যুদ্ধ, আপনি (উপ এষি) স্বীকার করেন। (ঘ ইৎ) অবশ্যই স্বীকার করেন। এবং (পুরা) অনাদিকাল থেকে (ইদং পুরম্) কামাদির এই পুরী-কে (ওজসা) নিজ ওজ/তেজ দ্বারা (সম্ হংসি) আপনি সম্যক্ প্রকারে হনন করেন। (যদ্) যদ্যপি (নম্যা) রাত্রিকালে (সখ্যা) নিজ সখিভাবের কারণে (পরাবতি) পরাবিদ্যাযুক্ত উপাসকের মধ্যে স্থিত (নমুচিম্) এবং উপাসককে না মুক্তকারী (মায়িনং নাম) প্রসিদ্ধ মায়াবী অর্থাৎ ছলনা-কপটতা যুক্ত কামাদির (নিবর্হয়ঃ) মূল ছিন্ন করেন।

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