अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
सो अ॑स्य॒ वज्रो॒ हरि॑तो॒ य आ॑य॒सो हरि॒र्निका॑मो॒ हरि॒रा गभ॑स्त्योः। द्यु॒म्नी सु॑शि॒प्रो हरि॑मन्युसायक॒ इन्द्रे॒ नि रू॒पा हरि॑ता मिमिक्षिरे ॥
स्वर सहित पद पाठस: । अ॒स्य॒ । वज्र॑: । हरि॑त: । य: । आ॒य॒स: । हरि॑: । निका॑म: । हरि॑: । आ । गभ॑स्त्यो: ॥ द्यु॒म्नी । सु॒ऽशि॒प्र: । हरि॑मन्युऽसायक: । इन्द्रे॑ । नि । रू॒पा । हरि॑ता । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ ।३०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अस्य वज्रो हरितो य आयसो हरिर्निकामो हरिरा गभस्त्योः। द्युम्नी सुशिप्रो हरिमन्युसायक इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे ॥
स्वर रहित पद पाठस: । अस्य । वज्र: । हरित: । य: । आयस: । हरि: । निकाम: । हरि: । आ । गभस्त्यो: ॥ द्युम्नी । सुऽशिप्र: । हरिमन्युऽसायक: । इन्द्रे । नि । रूपा । हरिता । मिमिक्षिरे ।३०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
बल और पराक्रम का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [सेनापति] का (सः) वह (हरितः) शत्रुनाशक, (आयसः) लोहे का बना (वज्रः) वज्र [शस्त्र] है, (यः) जो (गभस्त्योः) दोनों भुजाओं पर (निकामः) बड़ा प्रिय, (हरिः) सिंह [के समान] (आ) और (हरिः) सूर्य [के समान] (द्युम्नी) तेजस्वी, (सुशिप्रः) बहुत काटनेवाला [बड़ा कटीला वा दन्तीला] और (हरिमन्युसायकः) सर्प [के समान शत्रु] के क्रोध का नाश करनेवाला है। (इन्द्रे) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] में (हरिता) स्वीकार करने योग्य (रूपा) रूप [सुन्दरपन] (नि) दृढ़ करके (मिमिक्षिरे) सींचे गये हैं ॥३॥
भावार्थ
सेनापति दृढ़ तीक्ष्ण हथियारों से शत्रुओं का नाश करके अपने उत्तम गुणों से प्रजा का पालन करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(सः) प्रसिद्धः (अस्य) सेनापतेः (वज्रः) दण्डशस्त्रम् (हरितः) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् नाशने-इतन्। शत्रुनाशकः (यः) वज्रः (आयसः) लोहनिर्मितः (हरिः) सिंह इव (निकामः) नितरां कमनीयः प्रियः (हरिः) सूर्य इव (आ) समुच्चये (गभस्त्योः) गम्यते ज्ञायते इति गः विषयः, गम-ड, तं बभस्ति भासयति दीपयतीति। क्तिच्क्तौ च। पा० ३।३।७। भस दीप्तौ-क्तिच्। गभस्ती बाहूनाम-निघ० २-४। भुजयोः (द्युम्नी) अ० ६।३।३। द्युत दीप्तौ-नप्रत्ययः, कित्, तस्य मः, द्युम्न-इति। दीप्तिमान् (सुशिप्रः) अ० २०।४।१। शिञ् निशाने छेदने-रक् पुक् च। बहुच्छेदकः। बहुकण्टकः। बहुदन्तः (हरिमन्युसायकः) हरेः सर्पस्येव शत्रोः क्रोधस्य नाशकः (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति सेनापतौ (नि) नितराम् (रूपा) सौन्दर्याणि (हरिता) हृञ् स्वीकारे-इतन्। स्वीकरणीयानि (मिमिक्षिरे) मिह सेचने-सन्-कर्मणि लडर्थे लिट्। मेढुं सेक्तुम् इष्टानि भवन्ति। सिक्तानि सन्ति ॥
विषय
'हरित आयस' वज्र
पदार्थ
१.(स:) = वह (अस्य) = इस प्रभु का (वन:) = क्रियाशीलतारूप (वज्र हरित:) = सब दुःखों का हरण करनेवाला है, यःजो वा (आयस:) = लोहनिर्मित है। यह वन शत्रुओं का संहार करता ही है। यह (हरिः) = दुःखों का हरण करता है, (निकाम:) = नितरां कमनीय [सुन्दर] है। (हरिः) = वे प्रकाशमय प्रभु (गभस्त्यो:) = बाहुओं में आ [दधाति] धारण कराते हैं। प्रभु वस्तुत: कर्म करने के लिए ही तो हाथों को देते हैं। २. (द्युम्नी) = वे प्रभु उत्तम ज्ञान की ज्योतिवाले हैं। (सुशिप्रः) = शोभन हनू व नासिकाओंवाले हैं। उत्तम जबड़ों को प्राप्त कराके वे हमें भोजन को खूब चबाने का संकेत करते हैं। यही नीरोगता का मार्ग है। नासिका छिद्रों को प्राणसाधना में विनियुक्त करने की प्रेरणा देते हैं। यही पवित्रता का मार्ग है 'प्राणायामैहेद् दोषान् । (हरिमन्युसायक:) = वे प्रभु अत्यन्त तेजस्वी, ज्ञानरूप बाणवाले हैं। इसी के द्वारा वे काम का संहार करते हैं। (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में सब( हरिता रूपा) = तेजस्वी रूप (नि मिमिक्षिरे) = नियोजयितुम् इष्ट होते हैं-सब तेजस्विता के स्रोत वे प्रभु ही तो हैं। जहाँ-जहाँ तेजस्विता है, वह प्रभु के अंश के कारण ही है।
भावार्थ
क्रियाशीलतारूप वन बड़ा तेजस्वी व दृढ़ है। प्रभु ने इसे हमारे हाथों में धारण किया है। हम इसे अपनाकर, शत्रुओं का संहार करें। ज्ञान प्राप्त करें। चबाकर खाएँ। प्राणायाम करें। सब तेजस्विता का स्रोत प्रभु को जानें।
भाषार्थ
(सः) वह परमेश्वर (अस्य) इस उपासक का मानो (वज्रः) वज्र है, (यः) जो कि (हरितः) उपासक के कामादि शत्रु का हरण करता है, और (आयसः) लोहसमान सुदृढ़ है। (हरिः) पापहारी परमेश्वर उपासक की (निकामः) कामना का अन्तिम ध्येय है। (हरिः) पापहारी परमेश्वर ही उपासक के (गभस्त्योः) हाथ आदि कर्मेन्द्रियों का विषय होता है। तब उपासक (द्युम्नी) द्युतिमान् यशस्वी तथा (सुशिप्रः) सुमुख हो जाता, और (हरिमन्युसायकः) पापहारी परमेश्वर के मन्युरूपी बाण द्वारा कामादि का विनाश कर देता है। (इन्द्रे) परमेश्वर में (हरिता रूपा) सब मनोहारी रूप (नि मिमिक्षिरे) संमिश्रित हैं, अर्थात् सूर्य चान्द तारागण आदि सभी स्वरूप विश्वकर्मा परमेश्वर के ज्ञान में निहित रहते हैं।
टिप्पणी
[गभस्तयः=अंगुली नाम (निघं০ २.५)। गभस्ती=बाहुनाम (निघं০ २.४८)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
That power of Hari, omnipotent Indra, is the thunderbolt, and the thunderbolt is electric, magnetic, unfailing in aim and desire and it is borne in the hands of centrifugal and centripetal forces. It is bright and blazing, mighty passionate, punitive and destructive for the evil. Indeed in Indra as in the sun, all forms, all colours and all beauties are integrated.
Translation
The weapon of this king which is made of iron is goldenhued and the dispeller of foes. This very good weapon in his hands looks very nice. This weapon of him is full of power and fame, good speed and the destroyer of the arrogance for men. In the king all forms are made to shine.
Translation
The weapon of this king which is made of iron is golden-hued and the dispeller of foes. This very good weapon in his hands looks very nice. This weapon of him is fall of power and fame, good speed and the destroyer of the arrogance for men. In the king all forms are made to shine.
Translation
Here is the blue or green coloured thunderbolt of iron of the King. There is also the beautiful horse ofiron of high speed. Here is also the horsepower of the rays of the Sun or electricity. There is also shining arrow, capable of destroying the pride of the enemy and having a very high speed. In short, many kinds of weapons have been made through electric power for the king.
Footnote
To me it appears that the verse enumerates various forms of destructive weapons, which can be made by the use of electric power.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(सः) प्रसिद्धः (अस्य) सेनापतेः (वज्रः) दण्डशस्त्रम् (हरितः) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् नाशने-इतन्। शत्रुनाशकः (यः) वज्रः (आयसः) लोहनिर्मितः (हरिः) सिंह इव (निकामः) नितरां कमनीयः प्रियः (हरिः) सूर्य इव (आ) समुच्चये (गभस्त्योः) गम्यते ज्ञायते इति गः विषयः, गम-ड, तं बभस्ति भासयति दीपयतीति। क्तिच्क्तौ च। पा० ३।३।७। भस दीप्तौ-क्तिच्। गभस्ती बाहूनाम-निघ० २-४। भुजयोः (द्युम्नी) अ० ६।३।३। द्युत दीप्तौ-नप्रत्ययः, कित्, तस्य मः, द्युम्न-इति। दीप्तिमान् (सुशिप्रः) अ० २०।४।१। शिञ् निशाने छेदने-रक् पुक् च। बहुच्छेदकः। बहुकण्टकः। बहुदन्तः (हरिमन्युसायकः) हरेः सर्पस्येव शत्रोः क्रोधस्य नाशकः (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति सेनापतौ (नि) नितराम् (रूपा) सौन्दर्याणि (हरिता) हृञ् स्वीकारे-इतन्। स्वीकरणीयानि (मिमिक्षिरे) मिह सेचने-सन्-कर्मणि लडर्थे लिट्। मेढुं सेक्तुम् इष्टानि भवन्ति। सिक्तानि सन्ति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বলপরাক্রমোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) এই [সেনাপতি] এর (সঃ) সেই (হরিতঃ) শত্রুনাশক, (আয়সঃ) লৌহনির্মিত (বজ্রঃ) বজ্র [শস্ত্র] আছে, (যঃ) যা (গভস্ত্যোঃ) উভয় বাহুতে (নিকামঃ) নিরন্তর প্রিয়, (হরিঃ) সিংহ [এর ন্যায়] (আ) এবং (হরিঃ) সূর্যের [ন্যায়] (দ্যুম্নী) তেজস্বী, (সুশিপ্রঃ) বহুচ্ছেদক [বহুকণ্টকযুক্ত বা দাঁতযুক্ত] এবং (হরিমন্যুসায়কঃ) সর্পের [ন্যায় শত্রু] এর ক্রোধ নাশকারী। (ইন্দ্রে) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান সেনাপতি] মধ্যে (হরিতা) স্বীকারযোগ্য (রূপা) রূপ [সুন্দরতা] (নি) দৃঢ়রূপে (মিমিক্ষিরে) সীঞ্চন করা হয়েছে/সিঞ্চিত হয়েছে॥৩॥
भावार्थ
সেনাপতি দৃঢ় তীক্ষ্ণ শস্ত্র দ্বারা শত্রুদের নাশ করে নিজের উত্তমগুণসমূহ দ্বারা প্রজার পালন করে/করুক ॥৩॥
भाषार्थ
(সঃ) সেই পরমেশ্বর (অস্য) এই উপাসকের মানো (বজ্রঃ) বজ্র, (যঃ) যা (হরিতঃ) উপাসকের কামাদি শত্রুর হরণ করে, এবং (আয়সঃ) লোহসমান সুদৃঢ়। (হরিঃ) পাপহারী পরমেশ্বর উপাসকের (নিকামঃ) কামনার অন্তিম ধ্যেয়। (হরিঃ) পাপহারী পরমেশ্বরই উপাসকের (গভস্ত্যোঃ) হাত আদি কর্মেন্দ্রিয়ের বিষয় হয়। তখন উপাসক (দ্যুম্নী) দ্যুতিমান্ যশস্বী তথা (সুশিপ্রঃ) সুমুখ হয়, এবং (হরিমন্যুসায়কঃ) পাপহারী পরমেশ্বরের মন্যুরূপী বাণ দ্বারা কামাদির বিনাশ করেন। (ইন্দ্রে) পরমেশ্বরের মধ্যে (হরিতা রূপা) সকল মনোহারী রূপ (নি মিমিক্ষিরে) সংমিশ্রিত, অর্থাৎ সূর্য চন্দ্র তারাগণ আদি সকল স্বরূপ বিশ্বকর্মা পরমেশ্বরের জ্ঞানে নিহিত থাকে।
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