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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३०
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    दि॒वि न के॒तुरधि॑ धायि हर्य॒तो वि॒व्यच॒द्वज्रो॒ हरि॑तो॒ न रंह्या॑। तु॒दद॒हिं हरि॑शिप्रो॒ य आ॑य॒सः स॒हस्र॑शोका अभवद्धरिम्भ॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि । न । के॒तु: । अधि॑ । धा॒यि॒ । ह॒र्य॒त: । वि॒व्यच॑त् । वज्र॑: । हरि॑त: । न । रंह्या॑ ॥ तु॒दत् । अहि॑म् । हरि॑ऽशिप्र: । य: । आ॒य॒स: । स॒हस्र॑ऽशोका: । अ॒भ॒व॒त् । ह॒रि॒म्ऽभ॒र: ॥३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि न केतुरधि धायि हर्यतो विव्यचद्वज्रो हरितो न रंह्या। तुददहिं हरिशिप्रो य आयसः सहस्रशोका अभवद्धरिम्भरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि । न । केतु: । अधि । धायि । हर्यत: । विव्यचत् । वज्र: । हरित: । न । रंह्या ॥ तुदत् । अहिम् । हरिऽशिप्र: । य: । आयस: । सहस्रऽशोका: । अभवत् । हरिम्ऽभर: ॥३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    बल और पराक्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (न) जैसे (हर्यतः) रमणीक (केतुः) प्रकाश (दिवि) आकाश में (अधि) ऊपर (धायि) रक्खा गया है, (वज्रः) वह वज्रधारी (रंह्या) वेग के साथ (हरितः न) सिंह के समान (विव्यचत्) व्याप गया, और (आयसः) लोहे के बने हुए [अति दृढ़], (हरिशिप्रः) सिंह के समान मुखवाले (यः) जिसने (अहिम्) सर्प [समान शत्रु] को (तुदत्) छेदा है, वह (सहस्रशोकाः) सहस्रों प्रकाशवाला होकर (हरिंभरः) मनुष्यों का पालनेवाला (अभवत्) हुआ है ॥४॥

    भावार्थ

    तेजस्वी न्यायकारी राजा दुष्ट पापियों को शीघ्र दण्ड देकर अनेक प्रकार से प्रजा का पालन करे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(दिवि) प्रकाशे (न) यथा (केतुः) प्रज्ञापकः प्रकाशः (अधि) उपरि (धायि) अधायि। निहितो वर्तते (हर्यतः) कमनीयः (विव्यचत्) व्यच व्याजीकरणे भेदे व्याप्तौ-णिचि लुङ्, अडभावः। व्याप्नोत् (वज्रः) अर्शआद्यच्। वज्रवान् (हरितः) सिंहः (न) इव (रंह्या) रंहणेन वेगेन (तुदत्) अतुदत्। हिंसितवान् (अहिम्) आहन्तारं सर्पमिव शत्रुम् (हरिशिप्रः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शिञ् निशाने छेदने-रक्, पुक् च। शिप्रे हनूनासिके वा-निरु० ६।१७। हरेः सिंहस्य मुखमिव मुखं यस्य सः (यः) (आयसः) लोहनिर्मितः। अतिदृढः (सहस्रशोकाः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। सहस्र+ई शुचिर् पूतीभावे-असि। सहस्रप्रकाशः (अभवत्) (हरिंभरः), संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। हरि+भृञ् भरणे-खच्, मुमागमः। हरयो मनुष्याः निघ० ३।२। मनुष्याणां पोषकः ॥

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    विषय

    सहस्त्रशोकाः हरिम्भरः

    पदार्थ

    १. (वन:) = यह क्रियाशीलतारूप वन (दिवि) = द्यु लोक में (केतुः न) = प्रज्ञापक आदित्य के समान (हर्यत:) = कान्त [दीप्स] होता हुआ (अधिधायि) = हाथों में धारण किया जाता है। यह वज्र (रंह्या) = वेग के दृष्टिकोण से (हरितः न) = सूर्य की किरणरूप अश्वों के समान (विव्यचत्) = सर्वत्र व्याप्त होता है, अर्थात् यह इन्द्र हाथों में क्रियाशीलतारूप वज़ लेकर सब कर्तव्य-कर्मों को सम्यक्तया करनेवाला होता है। २. (हरिशिप्र:) = यह प्रकाशमय शिरस्त्राणवाला [शिप्र-Helmet] ज्ञानी पुरुष (य:) = जो (आयसः) = शरीर में लोहे का बना हुआ है वह (अहिम्) = वासना को (तुदत) = विनष्ट करता है। वासना को विनष्ट करके यह (सहस्त्रशोका:) = अनन्तदीप्तिवाला (हरिम्भर:) = प्रकाश की किरणों को धारण करनेवाला (अभवत्) = होता है।

    भावार्थ

    हम हाथों में चमकते हुए क्रियाशीलतारूप वन को धारण करें। वासना को विनष्ट करके दोस ज्ञानवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (दिवि) द्युलोक में (न) जैसे (केतुः) ज्ञान के हेतु सूर्य (अधिधायि) सौर-लोक के अधिष्ठातृरूप में स्थापित है, वैसे (दिवि) मस्तिष्क (केतुः) प्रज्ञावान् तथा (हर्यतः) कान्तिमान् परमेश्वर (अधिधायि) अधिष्ठातृरूप में स्थित है। (हरितः) हरण करनेवाले (वज्रः) विद्युत्-वज्र (न) के सदृश, परमेश्वर का (वज्रः) न्याय-वज्र (रंह्या) वेग से (विव्यचत्) छिपे-छिपे प्रहार करता है। परमेश्वर का (यः) जो (आयसः) लोहसमान सुदृढ़ (वज्रः) न्याय-वज्र है, जो कि (हरिशिप्रः) पापहारी स्वरूपवाला है, वह (अहिम्) उपासक के सांप की तरह विषैले-पापों को (तुदत्) व्यथित कर देता है। तब उपासक, जो कि (हरभरः) परमेश्वर को भक्तिरसों की भेटों द्वारा भर देता है, (सहस्रशोकाः) हजारों का आश्रय (अभवत्) बन जाता है।

    टिप्पणी

    [सहस्रशोकाः=सहस्रश+ओकस् (गृह, आश्रय)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    The power of Indra, the Bajra, is held as the sun blazing in heaven. It expands and pervades like the bright rays radiating all over space. Destroying evil, breaking the clouds of darkness, glorious and mighty, the adamantine Bajra of a thousand flames shines as the symbol of the power of omnipotence.

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    Translation

    Like the flag unfurled in the sky the good-looking king is established on the administration of subjects. His weapon with speed spreads in various regions likesun. That his iron weapon which is lion, mouthed smiles the snake-like foe-man. This becomes the preserver of man and infamer of thousands.

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    Translation

    Like the flag unfurled in the sky the good-looking king is established on the administration of subjects. His weapon with speed spreads in various regions like sun. That his iron weapon which is lion, mouthed smiles the snake-like foe-man. This becomes the preserver of man and infamer of thousands.

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    Translation

    Like a radiant spot, it is well placed in the heavens, then with a high speed, the terribly destructive missile spreads in all quarters like the Sun. The destructive missile, made of iron, possessing speed of electric power, crushing the serpent-natured enemy, becomes lit up with thousands of lights and loaded with destructive rays of various kinds.

    Footnote

    Some highly destructive missile is meant.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(दिवि) प्रकाशे (न) यथा (केतुः) प्रज्ञापकः प्रकाशः (अधि) उपरि (धायि) अधायि। निहितो वर्तते (हर्यतः) कमनीयः (विव्यचत्) व्यच व्याजीकरणे भेदे व्याप्तौ-णिचि लुङ्, अडभावः। व्याप्नोत् (वज्रः) अर्शआद्यच्। वज्रवान् (हरितः) सिंहः (न) इव (रंह्या) रंहणेन वेगेन (तुदत्) अतुदत्। हिंसितवान् (अहिम्) आहन्तारं सर्पमिव शत्रुम् (हरिशिप्रः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शिञ् निशाने छेदने-रक्, पुक् च। शिप्रे हनूनासिके वा-निरु० ६।१७। हरेः सिंहस्य मुखमिव मुखं यस्य सः (यः) (आयसः) लोहनिर्मितः। अतिदृढः (सहस्रशोकाः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। सहस्र+ई शुचिर् पूतीभावे-असि। सहस्रप्रकाशः (अभवत्) (हरिंभरः), संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। हरि+भृञ् भरणे-खच्, मुमागमः। हरयो मनुष्याः निघ० ३।२। मनुष्याणां पोषकः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বলপরাক্রমোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ন) যেমন (হর্যতঃ) রমণীয়/কমণীয় (কেতুঃ) প্রকাশ (দিবি) আকাশের (অধি) উপর (ধায়ি) নিহিত/রক্ষিত, (বজ্রঃ) সেই বজ্রধারী (রংহ্যা) বেগপূর্বক (হরিতঃ ন) সিংহের ন্যায় (বিব্যচৎ) ব্যাপ্ত হয়েছেন, ও (আয়সঃ) লৌহনির্মিত [অতি দৃঢ়], (হরিশিপ্রঃ) সিংহের ন্যায় মুখযুক্ত (যঃ) যিনি (অহিম্) সর্পের [ন্যায় শত্রুকে] (তুদৎ) ছেদন করেছেন, তিনি (সহস্রশোকাঃ) সহস্র প্রকাশযুক্ত হয়ে (হরিম্ভরঃ) মনুষ্যগণের পালনকারী (অভবৎ) হয়েছেন॥৪॥

    भावार्थ

    তেজস্বী ন্যায়কারী রাজা দুষ্ট পাপীদের শীঘ্র দণ্ড দিয়ে নানা প্রকারে প্রজার পালন করে/করুক॥৪॥

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    भाषार्थ

    (দিবি) দ্যুলোকের মধ্যে (ন) যেমন (কেতুঃ) জ্ঞানের হেতু সূর্য (অধিধায়ি) সৌর-লোকের অধিষ্ঠাতৃরূপে স্থাপিত, তেমনই (দিবি) মস্তিষ্কে (কেতুঃ) প্রজ্ঞাবান্ তথা (হর্যতঃ) কান্তিমান্ পরমেশ্বর (অধিধায়ি) অধিষ্ঠাতৃরূপে স্থিত। (হরিতঃ) হরণকারী (বজ্রঃ) বিদ্যুৎ-বজ্র (ন) এর সদৃশ, পরমেশ্বরের (বজ্রঃ) ন্যায়-বজ্র (রংহ্যা) বেগসহিত (বিব্যচৎ) গুপ্ত-অবস্থায় প্রহার করে। পরমেশ্বরের (যঃ) যে (আয়সঃ) লোহসমান সুদৃঢ় (বজ্রঃ) ন্যায়-বজ্র আছে, যা (হরিশিপ্রঃ) পাপহারী স্বরূপবিশিষ্ট, তা (অহিম্) উপাসকের সাপের সদৃশ বিষাক্ত-পাপকে (তুদৎ) ব্যথিত করে। তখন উপাসক, যে (হরভরঃ) পরমেশ্বরকে ভক্তিরসের প্রতিগ্রহ দ্বারা পূরণ করে, (সহস্রশোকাঃ) সহস্রের আশ্রয় (অভবৎ) হয়ে যায়।

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