अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्य॑ख्यन्महि॒षः स्व: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒पा॒न॒त: ॥ वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒ष: । स्व॑: ॥४८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचना अस्य प्राणादपानतः। व्यख्यन्महिषः स्व: ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: ॥ वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥४८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणात्) भीतर के श्वास के पीछे (अपानतः) बाहर को श्वास निकालते हुए (अस्य) इस [सूर्य] की (रोचना) रोचक ज्योति (अन्तः) [जगत् के] भीतर (चरति) चलती है, और वह (महिषः) बड़ा सूर्य (स्वः) आकाश को (वि) विविध प्रकार (अख्यत्) प्रकाशित करता है ॥॥
भावार्थ
जैसे सब प्राणी श्वास-प्रश्वास से जीवित रहकर चेष्टा करते हैं, वैसे ही सूर्य प्रकाश का ग्रहण और त्याग करके लोकों को प्रकाशित करता है ॥॥
टिप्पणी
४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥
विषय
प्रभु की रोचना
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार कुण्डलिनी का जागरण होने पर (अस्य अन्त:) = इस साधक के हृदय में (रोचना चरति) = प्रभु की दीति गतिवाली होती है। इसके हृदयदेश में प्रभु की दीप्ति का प्रकाश होता है। यह रोचना (प्राणात्) = इसके अन्दर प्राणशक्ति का संचार करती है और (अपानत:) = अपान के द्वारा शोधन का कार्य करती है। २. इसप्रकार प्राण व अपान के कार्य के ठीक से होने पर यह (महिष:) = प्रभु का पुजारी (स्व:) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को (व्यख्यत्) = विशेषरूप से देखता है। इस पुजारी का हृदय प्रकाश से दीप्त हो उठता है।
भावार्थ
साधना से साधक का हृदय प्रभु की दीप्ति से दीस हो उठता है। उसकी प्राणापान शक्ति ठीक से कार्य करती हुई इसे प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है।
भाषार्थ
(प्राणात् अपानतः) प्राण और अपान की क्रियाओं को करते हुए (अस्य) इस परमेश्वर की (रोचना) ज्योति (अन्तः चरति) हमारे भीतर विचर रही है। (महिषः) यह महान् परमेश्वर ही हमारे जीवनों में (स्वः) सुख तथा प्रकाश (व्यख्यत्) प्रकट कर रहा है।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
The light of this sun radiates from morning till evening like the prana and apana of the cosmic body, illuminating the mighty heaven and filling the space between heaven and earth.
Translation
As the expiration from breath the light of sun spreads in the world. This grand sun illuminates the space.
Translation
As the expiration from breath the light of sun spreads in the world. This grand sun illuminates the space.
Translation
See A.V.6.31.2
Footnote
(4-6) cf. Rig, 10,184 or A.V. 6.31. Verse 3 has two readings, (ii) is according to Krishna Lal edited Samhita
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
৪-৬ সূর্যস্য ভূমের্বা গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(প্রাণাৎ) প্রাণবায়ুর পেছনে (অপানতঃ) অপান বায়ু (অস্য) এই [সূর্যের] (রোচনা) রোচক জ্যোতি (অন্তঃ) [জগতের] ভেতর (চরতি) চলে, এবং তা (মহিষঃ) বড়ো সূর্য (স্বঃ) আকাশকে (বি) বিবিধ প্রকারে (অন্যৎ) প্রকাশিত করে ॥৫॥
भावार्थ
যেমন সব প্রাণী শ্বাস-প্রশ্বাস দ্বারা জীবিত থেকে প্রচেষ্টা করে, সেভাবেই সূর্য আলোর গ্রহণ এবং ত্যাগ করে লোক-সমূহকে প্রকাশিত করে ॥৫॥
भाषार्थ
(প্রাণাৎ অপানতঃ) প্রাণ এবং অপান-এর ক্রিয়া করে (অস্য) এই পরমেশ্বরের (রোচনা) জ্যোতি (অন্তঃ চরতি) আমাদের মধ্যে বিচরণ করছে। (মহিষঃ) এই মহান্ পরমেশ্বরই আমাদের জীবনে (স্বঃ) সুখ তথা প্রকাশ (ব্যখ্যৎ) প্রকট করছে।
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