अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
यस्ते॑ शृङ्गवृषो नपा॒त्प्रण॑पात्कुण्ड॒पाय्यः॑। न्यस्मिन्दध्र॒ आ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । शृ॒ङ्ग॒ऽवृ॒ष॒: । न॒पा॒त् । प्रन॑पा॒दिति॒ प्रऽन॑पात् । कु॒ण्ड॒ऽपाय्य॑: ॥ नि । अ॒स्मि॒न् । द॒ध्रे॒ । आ । मन॑: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते शृङ्गवृषो नपात्प्रणपात्कुण्डपाय्यः। न्यस्मिन्दध्र आ मनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । शृङ्गऽवृष: । नपात् । प्रनपादिति प्रऽनपात् । कुण्डऽपाय्य: ॥ नि । अस्मिन् । दध्रे । आ । मन: ॥५.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सोम रस के सेवन का उपदेश।
पदार्थ
(शृङ्गवृषः) हे तेज की वृष्टि करनेवाले [शूर पुरुष] के (नपात्) न गिरानेवाले [राजन् !] (ते) तेरा (यः) जो (प्रणपात्) अतिशय करके न गिरानेवाला (कुण्डपाय्यः) रक्षा करनेवाले [सोमरस] पीने का व्यवहार है। (अस्मिन्) उसमें (मनः) मन को (नि) निरन्तर (आ दध्रे) मैं धारण करता हूँ ॥७॥
भावार्थ
जो राजा शूर वीर लोगों का उत्साह देनेवाला और सोमयज्ञ करके अन्न आदि से प्रजा की रक्षा करे, विद्वान् जन उस राजा के उत्तम कामों से प्रसन्न होवें ॥७॥
टिप्पणी
७−(यः) (ते) तव (शृङ्गवृषः) शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, नुडागमः+वृषु सेचने-क्विप्। शृङ्गाणि ज्वलतो नाम-निघ० १।१७। शृङ्गस्य तेजसो वर्षकस्य शूरस्य (नपात्) हे न पातयितः। रक्षक (शृङ्गवृषो नपात्) सुबामन्त्रिते पराङ्गवत् स्वरे। पा० २।१।२। इति षष्ठ्यन्तस्य शृङ्गवृट्शब्दस्य पराङ्गवद् भावेनामन्त्रितानुप्रवेशात् समुदायस्याष्टमिकं सर्वानुदात्तत्वम् (प्रणपात्) प्रकर्षेण न पातयिता रक्षिता (कुण्डपाय्यः) कुडि रक्षणे-अच्। क्रतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ। पा० ३।१।१३०। कुण्ड+पा पाने-यत्, युगागमः। कुण्डो रक्षकः सोमः पातव्यो यस्मिन् स व्यवहारः। क्रतुः कर्मनाम-निघ० २।१ (नि) नितराम् (अस्मिन्) कुण्डपाय्ये व्यवहारे (आ दध्रे) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। इति रुडागमः। अहमादधे। समन्ताद् दधामि धारयामि ॥
विषय
शृङ्गवृष
पदार्थ
१. हे प्रभो! (यः) = जो (ते) = आपका-आपसे उत्पादित किया गया यह सोम है, वह (शृङ्गवृषः) = [वृष-धर्म] हमें धर्म के शिखर पर ले-जानेवाला है-सोम-रक्षण से उन्नत होते हुए हम धर्म के शिखर पर पहुँचते हैं। यह (नपात्) = हमें न गिरने देनेवाला है। इससे सब शक्तियों सुरक्षित रहती हैं। (प्र-णपात्) = यह हमें प्रकर्षेण न गिरने देनेवाला है-हमें उत्कृष्ट व्यवहारोंवाला बनाता है। (कुण्डपाय्य:) = [कुडि दाहे] वासनाओं के दहन [विनाश] के द्वारा शरीर में पीने के योग्य है। २. हे प्रभो! मैं (अस्मिन्) = इस सोम में ही-सोम के रक्षण में ही (मन:) = मन को (नि आदध्रे) = निश्चय से धारण करता हूँ। मन में सोम-रक्षण के लिए दृढ़ निश्चय करता हूँ। इसके रक्षण के लिए ही सब उपायों का अवलम्बन करता हूँ।
भावार्थ
सुरक्षित सोम हमें [१] धर्म के शिखर पर ले-जाता है [२] इससे शक्तियाँ सुरक्षित रहती हैं, [३] यह हमारे व्यवहारों को मधुर बनाता है। वासनाओं के विनाश से ही यह शरीर में सुरक्षित करने के योग्य है। हम मन को इसके रक्षण में ही लगाएँ। यह धर्म के शिखर पर पहुँचनेवाला व्यक्ति "विश्वामित्र' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
हे परमेश्वर! (नपात्) आकाश से न पतन होनेवाला, और (शृङ्गवृषः) किरणों द्वारा वर्षा करनेवाला, (प्रणपात्) चिरकाल से न पतन होनेवाला, और (कुण्डपाय्यः) भरे कुण्डों के जलों को पी जानेवाला (यः) जो यह (ते) आपका सूर्य है, (अस्मिन्) इस सूर्य की सुरक्षा में (मनः) आपका मन (नि आ दध्रे) नितरां आहित है।
टिप्पणी
[जल भरे कुण्डों-तालाबों के जलों को सूर्य अपनी तेज़ किरणों द्वारा पीकर उन्हें सुखा देता है। समुद्र भी एक जलभरे महाकुण्ड के सदृश है। सूर्य, शृङ्ग समान तीखी किरणों द्वारा, समुद्र के जल को पीकर वर्षा करता है। जब से सूर्य पैदा हुआ है, वह निराधार आकाश में स्थित है। नीचे उसका पतन नहीं हो रहा। सूर्य और सौर-मण्डल का केन्द्र-स्थान है, और इसी केन्द्रिय-सूर्य के द्वारा सौर-मण्डल परस्पराकर्षण द्वारा महाकाश में गति कर रहा है। सूर्य में केन्द्रिय-शक्ति परमेश्वर ने स्थापित की है, और इसी केन्द्रियशक्ति द्वारा परमेश्वर सौर-मण्डल को परस्पर आबद्ध किये हुए है। इसलिए सौर-मण्डल में सूर्य केन्द्रिय-शक्तिरूप है। परमेश्वर की शक्ति सूर्य में, केन्द्रशक्तिरूप में निहित है। इसलिए परमेश्वर की नियन्त्रण-शक्ति का केन्द्र सूर्य है। इस भावना को “न्यस्मिन् दध्रे आ मनः” इन शब्दों द्वारा कविशैली में दर्शाया गया है। यजुर्वेद का मन्त्र भी इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालता है। यथा—“योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म” (यजुः০ ४०.१७)। अर्थात् परमेश्वर स्वयं कहता है कि—“जो वह आदित्य में नियामक रूप में स्थित पुरुष है, वह मैं ही हूँ, जिसका नाम ‘ओ३म्’ है, जो आकाशवत् सर्वव्यापक है, और जो कि ब्रह्म है”। इस प्रकार केन्द्रियशक्ति में परमेश्वर का मन अर्थात् यह इच्छा निहित है कि कहीं सूर्य के पतन हो जाने से समग्र सौर-मण्डल नष्ट-भ्रष्ट न हो जाए। आदित्य में मन की स्थिति का अभिप्राय यह है कि वेदों में ब्रह्माण्ड को परमेश्वर का शरीर कहा है (यजुः০ ३१.१२, १३)। हम अपने शरीर में अनुभव करते हैं कि हमारे शरीर के प्रत्येक अङ्ग की स्थिति तथा चेष्टा मन पर या मानसिक स्थिति पर निर्भर है। मन के चाहे शरीर में चलना होता, आँख का निमेषोन्मेष होता, हाथ-पाँव चलते, तथा खान-पान भाषण तथा अन्य क्रियाएँ हो रही हैं। इसी प्रकार सूर्य आदि की स्थिति आदि में परमेश्वरीय मन या इच्छा ही मुख्य कारण है। सूर्य यतः सौर-मण्डल का केन्द्र है, इसलिए इस केन्द्रभूत सूर्य में परमेश्वरीय मन के निहित होने का वर्णन मन्त्र में हुआ है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
O lord, the sun on high which neither falls nor allows others, planets and satellites, to fall is your creation and it is the protector and sustainer of the vault of heaven and the firmament. On this we meditate and concentrate our mind.
Translation
O mighty guarding ruler, I concentrate my mind in whatever is your preserving flame-vomiting and Yajna protecting act and practice.
Translation
O mighty guarding ruler, I concentrate my mind in whatever is your preserving flame-vomiting and Yajna protecting act and practice.
Translation
O All-powerful God, whatever Destructive or Peace-showering Force, the Up-holding Power, the special Energy of sustenance, the great forces of Annihilation and Protection are Thine, Thou art fully engrossed in the working thereof.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(यः) (ते) तव (शृङ्गवृषः) शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, नुडागमः+वृषु सेचने-क्विप्। शृङ्गाणि ज्वलतो नाम-निघ० १।१७। शृङ्गस्य तेजसो वर्षकस्य शूरस्य (नपात्) हे न पातयितः। रक्षक (शृङ्गवृषो नपात्) सुबामन्त्रिते पराङ्गवत् स्वरे। पा० २।१।२। इति षष्ठ्यन्तस्य शृङ्गवृट्शब्दस्य पराङ्गवद् भावेनामन्त्रितानुप्रवेशात् समुदायस्याष्टमिकं सर्वानुदात्तत्वम् (प्रणपात्) प्रकर्षेण न पातयिता रक्षिता (कुण्डपाय्यः) कुडि रक्षणे-अच्। क्रतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ। पा० ३।१।१३०। कुण्ड+पा पाने-यत्, युगागमः। कुण्डो रक्षकः सोमः पातव्यो यस्मिन् स व्यवहारः। क्रतुः कर्मनाम-निघ० २।१ (नि) नितराम् (अस्मिन्) कुण्डपाय्ये व्यवहारे (आ दध्रे) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। इति रुडागमः। अहमादधे। समन्ताद् दधामि धारयामि ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সোমসেবনোপদেশঃ
भाषार्थ
(শৃঙ্গবৃষঃ) হে তেজবর্ষণকারী [বীর পুরুষের] (নপাৎ) রক্ষক [রাজন্ !] (তে) তোমার (যঃ) যে (প্রণপাৎ) অতিশয় রকক (কুণ্ডপায়্যঃ) রক্ষাকারী [সোমরস] পান করার ব্যবহার আছে। (অস্মিন্) তার মধ্যে (মনঃ) মনকে (নি) প্রতিনিয়ত (আ দধ্রে) ধারণ করি॥৭॥
भावार्थ
যে রাজা সাহসী বীরপুরুষদের উৎসাহ দান করেন এবং সোমযজ্ঞ করে প্রজাদের অন্নাদি দ্বারা রক্ষা করেন, বিদ্বানগণ সেই রাজার উত্তম কার্যে প্রসন্ন হন/হবেন/হোক।।৭।।
भाषार्थ
হে পরমেশ্বর! (নপাৎ) আকাশ থেকে অপতনশীল, এবং (শৃঙ্গবৃষঃ) কিরণ দ্বারা বর্ষণকারী, (প্রণপাৎ) চিরকাল অপতনশীল, এবং (কুণ্ডপায়্যঃ) পূর্ণ কুণ্ডের জল পানকারী (যঃ) যে এই (তে) আপনার সূর্য আছে, (অস্মিন্) এই সূর্যের সুরক্ষায় (মনঃ) আপনার মন (নি আ দধ্রে) নিরন্তর আহিত।
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