अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
श॒तानी॑केव॒ प्र जि॑गाति धृष्णु॒या ह॑न्ति वृ॒त्राणि॑ दा॒शुषे॑। गि॒रेरि॑व॒ प्र रसा॑ अस्य पिन्विरे॒ दत्रा॑णि पुरु॒भोज॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तानी॑काऽइव । प्र । जि॒ग॒ति॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । हन्ति॑ । वृ॒त्राणि॑ । दा॒शुषे॑ ॥ गि॒रे:ऽइ॑व । प्र । रसा॑: । अ॒स्य॒ । पि॒न्वि॒रे॒ । दत्रा॑णि । पु॒रु॒ऽभोज॑स: ॥५१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे। गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥
स्वर रहित पद पाठशतानीकाऽइव । प्र । जिगति । धृष्णुऽया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे ॥ गिरे:ऽइव । प्र । रसा: । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुऽभोजस: ॥५१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(शतानीका इव) सैकड़ों सेनावाले [सेनापति] के समान (धृष्णुया) निर्भय [परमेश्वर] (प्र जिगाति) आगे बढ़ता है और (वृत्राणि) शत्रुओं को (दाशुषे) दाता [आत्मदानी उपासक] के लिये (हन्ति) मारता है। (गिरेः) पहाड़ से (रसाः इव) जलों के समान (अस्य) इस (पुरुभोजसः) बहुत भोजनवाले [परमेश्वर] के (दत्राणि) दानों को (प्र पिन्विरे) सींचते रहते हैं ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा में आत्मसमर्पण करके धन-धान्य आदि बढ़ाकर आनन्द भोगें ॥२॥
टिप्पणी
२−(शतानीका) विभक्तेराकारः। शतान्यनेकानि सेनादलानि यस्य स शतानीकः सेनापतिः (इव) यथा (प्र) (जिगाति) गच्छति-निघ० २।१४। (धृष्णुया) सुपां सुलुक्। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याच्। धृष्णुः। निर्भयः परमेश्वरः (हन्ति) नाशयति (वृत्राणि) आवरकान्। शत्रून् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय जनाय (गिरेः) पर्वतात् (इव) यथा (प्र) (रसाः) जलानि (अस्य) (पिन्विरे) पिवि प्रीणने सेचने च-लडर्थे लिट्। सिञ्चन्ति (दत्राणि) अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः। उ० ४।१६४। डुदाञ् दाने-क्त्र। दो दद् घोः। पा० ७।४।४६। इति दद्भावः, यद्वा। दद दाने-क्त्र। दानानि (पुरुभोजसः) बहुभोजनयुक्तस्य ॥
विषय
हन्ति वृत्राणि दाशुषे
पदार्थ
१. (शत-अनीका इव) = सैकड़ों सैन्यों के समान ये प्रभु (प्रजिगाति) = आगे बढ़ते हैं और (धृष्णया) = अपनी धर्षण-शक्ति से (दाशुषे) = आत्मार्पण करनेवाले पुरुष के लिए (वृत्राणि हन्ति) = वासनाओं को विनष्ट करते हैं। हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें-प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे। २. अब शत्रुविनाश के बाद (अस्य पुरुभोजस:) = इस अनन्त पालक धनोंवाले प्रभु के (दत्राणि) = दान (पिन्विरे) = इसप्रकार हमें सिक्त व प्रीणित करनेवाले होते हैं, (इव) = जैसेकि (गिरे:) = पर्वत के (रसा:) = रस । पर्वतों से बहनेवाले जल जैसे प्रीति का कारण बनते हैं, इसीप्रकार प्रभु से दिये गये धन हमपर सुखों का सेचन करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
प्रभु अपने अनन्त सामर्थ्य से हमारे शत्रुओं को विनष्ट करते हैं और इस प्रभु के दान हमें सुखों से सिबत करनेवाले होते हैं।
भाषार्थ
(शतानीका इव) सैकड़ों सेनाओं के सदृश परमेश्वर (धृष्णुया) अपनी पराभवकारिणी शक्ति द्वारा (प्र जिगाति) सब पर विजय पाये हुए है। (दाशुषे) आत्मसमर्पक के लिए परमेश्वर उसके (वृत्राणि) अविद्या तथा तज्जन्य आवरणों को (हन्ति) दूर कर देता है। (गिरेः पुरुभोजसः) प्रभूत भोगसामग्री देनेवाले मेघ के (इव) सदृश (अस्य) इस परमेश्वर के (रसाः) आनन्दरस (पिन्विरे) उपासकों को सींचते हैं और इसके (दत्राणि) अन्य दान (पिन्विरे) सबकी सेवाएँ कर रहे हैं। [पिन्विरे=पिवि सेचने; सेवने।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Like the commander of a hundred armies, with his power and force, Indra rushes forward to fight and win, and he destroys the demons of darkness and want for the charitable giver. The gifts of this universal giver of food and sustenance feed and support humanity like streams flowing down from the mountains.
Translation
Like the master of hundred hosts He with his surpassing power controls all and gives (Vritrani) the wealth for man of munificence. Like the moistures of cloud the gifts of this all protecting one fulfils the desires of all.
Translation
Like the master of hundred hosts He with his surpassing power controls all and gives (Vritrani) the wealth for man of munificence. Like the moistures of cloud the gifts of this all-protecting one fulfils the desires of all.
Translation
As if with a hundred armies, He subdues and destroys the evil forces with the crushing blow, for him who pays his homage to Him. Like the waters from the mountains flow and nourish the people, the various gifts of Him, Who is gifted with numerous means of enjoyment and well-being.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(शतानीका) विभक्तेराकारः। शतान्यनेकानि सेनादलानि यस्य स शतानीकः सेनापतिः (इव) यथा (प्र) (जिगाति) गच्छति-निघ० २।१४। (धृष्णुया) सुपां सुलुक्। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्याच्। धृष्णुः। निर्भयः परमेश्वरः (हन्ति) नाशयति (वृत्राणि) आवरकान्। शत्रून् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय जनाय (गिरेः) पर्वतात् (इव) यथा (प्र) (रसाः) जलानि (अस्य) (पिन्विरे) पिवि प्रीणने सेचने च-लडर्थे लिट्। सिञ्चन्ति (दत्राणि) अमिचिमिशसिभ्यः क्त्रः। उ० ४।१६४। डुदाञ् दाने-क्त्र। दो दद् घोः। पा० ७।४।४६। इति दद्भावः, यद्वा। दद दाने-क्त्र। दानानि (पुरुभोजसः) बहुभोजनयुक्तस्य ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
(শতানীকা ইব) শত সেনাযুক্ত [সেনাপতির] সমান (ধৃষ্ণুয়া) নির্ভয় [পরমেশ্বর] (প্র জিগাতি) সম্মুখে অগ্রসর হন এবং (বৃত্রাণি) শত্রুদের (দাশুষে) দাতার [আত্মসমর্পণকারী উপাসকের] জন্য (হন্তি) নাশ করেন। (গিরেঃ) পর্বত থেকে (রসাঃ ইব) জলের সমান (অস্য) এই (পুরুভোজসঃ) বহুভোজনযুক্ত অধীশ্বর [পরমেশ্বরের] (দত্রাণি) দান (প্র পিন্বিরে) সিঞ্চন করতে থাকে।। ২।।
भावार्थ
মনুষ্য পরমাত্মার প্রতি নিজেকে আত্মসমর্পণ করে ধন-ধান্য আদি বৃদ্ধি করে আনন্দ ভোগ করুক।। ২।।
भाषार्थ
(শতানীকা ইব) শত সেনাদের সদৃশ পরমেশ্বর (ধৃষ্ণুয়া) নিজের পরাভবকারিণী শক্তি দ্বারা (প্র জিগাতি) সকলের ওপর বিজয় প্রাপ্ত। (দাশুষে) আত্মসমর্পকের জন্য পরমেশ্বর তাঁর (বৃত্রাণি) অবিদ্যা তথা তজ্জন্য আবরণ-সমূহ (হন্তি) দূর করেন। (গিরেঃ পুরুভোজসঃ) প্রভূত ভোগসামগ্রী প্রদায়ী মেঘের (ইব) সদৃশ (অস্য) এই পরমেশ্বরের (রসাঃ) আনন্দরস (পিন্বিরে) উপাসকদের সীঞ্চণ করেন এবং (দত্রাণি) অন্য দান (পিন্বিরে) সকলের সেবা করছে। [পিন্বিরে= পিবি সেচনে; সেবনে।]
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