अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
अ॒ग्निं होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसुं॑ सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। य ऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒ जुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । होता॑रम् । म॒न्ये॒ । दास्व॑न्तम् । वसु॑म् । सू॒नुम् । सह॑स: । जा॒तऽवे॑दसम् । विप्र॑म् । न । जा॒तऽवे॑दसम् ॥ य: । ऊ॒र्ध्वया॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒र: । दे॒व: । दे॒वाच्या॑ । कृ॒पा ॥ घृतस्य॑ । विऽभ्रा॑ष्टिम् । अनु॑ । व॒ष्टि॒ । शो॒चिषा॑ । आ॒जुह्वा॑नस्य । स॒र्पिष: ॥६७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्। य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा। घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषा जुह्वानस्य सर्पिषः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । होतारम् । मन्ये । दास्वन्तम् । वसुम् । सूनुम् । सहस: । जातऽवेदसम् । विप्रम् । न । जातऽवेदसम् ॥ य: । ऊर्ध्वया । सुऽअध्वर: । देव: । देवाच्या । कृपा ॥ घृतस्य । विऽभ्राष्टिम् । अनु । वष्टि । शोचिषा । आजुह्वानस्य । सर्पिष: ॥६७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(होतारम्) ग्रहण करनेवाले, (दास्वन्तम्) दान करनेवाले, (वसुम्) श्रेष्ठ गुणवाले, (सहसः) बलवान् पुरुष के (सूनुम्) पुत्र, (जातवेदसम्) प्रसिद्ध विद्यावाले (विप्रम् न) बुद्धिमान् के समान (जातवेदसम्) प्रसिद्ध विद्यावाले विद्वान् को (अग्निम्) उस अग्नि के समान (मन्ये) मैं मानता हूँ। (यः) जो (देवः) प्रकाशमान, (स्वध्वरः) अच्छे प्रकार हिंसारहित यज्ञ का साधनेवाला [अग्नि] (ऊर्ध्वया) ऊँची (देवाच्या) गतिशील [वायु आदि देवताओं] को पहुँचनेवाली (कृपा) शक्ति के साथ (आजुह्वानस्य) होमे हुए और (सर्पिषः) पिघले हुए (घृतस्य) घी की (शोचिषा) शुद्धि से (विभ्राष्टिम्) विविध प्रकाश को (अनु) लगातार (वष्टि) चाहता है ॥३॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष विद्या प्राप्त करके संसार में ऐसा उपकारी होवे, जैसे अग्नि घृत आदि से प्रज्वलित होकर वायु जल आदि को शुद्ध करके और सूर्य पार्थिव रस खींचकर वृष्टि द्वारा उपयोगी होता है ॥३॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।१२७।१; यजुर्वेद-१।४७; कुछ भेद से सामवेद-पू० ।८।९ और उ० ९।१।१८ ॥ ३−(अग्निम्) अग्निवद् वर्तमानम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (मन्ये) जानामि (दास्वन्तम्) दातारम् (वसुम्) श्रेष्ठगुणवन्तम् (सूनुम्) पुत्रम् (सहसः) मतुपो लोपः। सहस्वतः। बलवतः (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (यः) अग्निः (ऊर्ध्वया) उन्नतया (स्वध्वरः) हिंसारहितस्य यज्ञस्य सुष्ठु साधकः (देवः) प्रकाशमानः (देवाच्या) देवान् गतिशीलान् वाय्वादीन् अञ्चति प्राप्नोतीति देवाची तया (कृपा) कृपू सामर्थ्ये-क्विप्। शक्त्या। (घृतस्य) आज्यस्य (विभ्राष्टिम्) भ्राज-क्तिन्। विविधां दीप्तिम् (अनु) निरन्तरम् (वष्टि) कामयते (शोचिषा) ईशुचिर् शौचे क्लेदे च-इसि। प्रभया (आजुह्वानस्य) समन्ताद्धूयमानस्य (सर्पिषः) सरणशीलस्य। द्रवीभूतस्य ॥
विषय
जातवेदा अग्नि का उपासन
पदार्थ
१. मैं (अग्निम्) = उस सर्वाग्रणी-हमारी अग्रगति के साधक प्रभु का (मन्ये) = मनन व विचार करता हूँ जो प्रभु (होतारम्) = सृष्टियन के महान् होता है, (दास्वन्तम्) = सब-कुछ देनेवाले हैं, (वसुम्) = निवास के लिए आवश्यक सब धनों को प्राप्त कराके हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हैं, (सहसः सूनुम्) = बल के पुत्र-शक्ति के पुज्ज हैं तथा (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ हैं। वे प्रभु (विप्रं न) = जैसा हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं, उसी प्रकार (जातवेदसम्) = [जाते जाते विद्यते] हम सबके अन्दर विद्यमान हैं। अन्त:स्थित होते हुए वे हमारा पूरण कर रहे है। २. प्रभु वे हैं (यः) = जो (स्वध्वरः) = उत्तम अहिंसात्मक यज्ञोंवाले (देव:) = प्रकाशमय होते हुए (ऊर्ध्वया) = अत्यन्त उन्नत (देवाच्या) = [देवान् अञ्चति]-देवों को प्राप्त होनेवाले कृपा-सामर्थ्य से हमारे जीवनों में घृतस्य ज्ञानदीति की (विभ्राष्टिम् अनु) = ज्योति के बाद (शोचिषा) = मन की शुद्धता के साथ (आजुह्वानस्य सर्पिष:) = आहुति दिये जाते हुए घृत की (वष्टिम्) = कामना करते हैं। प्रभु हमारे जीवनों में तीन बातें चाहते हैं [क] ज्ञान की दीप्ति [ख] हृदय की पवित्रता [ग] हाथों से यज्ञों का प्रवर्तन।
भावार्थ
प्रभु 'अग्नि-होता-दास्वान्-सहसः सून व जातवेदा:' हैं; उनसे सामर्थ्य प्राप्त करके हम मस्तिष्क में ज्ञानदीप्तिवाले, हृदय में पवित्रतावाले तथा हाथों में यज्ञोंवाले बनें।
भाषार्थ
(अग्निम्) सर्वाग्रणी परमेश्वर को (होतारम्) सबका दाता (मन्ये) मैं मानता हूँ; (दास्वन्तम्) उसे ही मैं सबका दाता मानता हूँ; (वसुम्) उसे ही सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति तथा (सहसः सूनुम्) बलों का प्रेरक मानता हूँ; (जातवेदसम्) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ का वेत्ता, तथा (विप्रं न) मेधावी के सदृश (जातवेदसम्) विद्यावान् मानता हूँ। (यः) जो (देवः) परमेश्वर देव कि (ऊर्ध्वया देवाच्या कृपा) ऊपर द्युलोक में सूर्यादि देवों में पहुँचे हुए निज सामर्थ्य द्वारा (स्वध्वरः) उत्तम-संसार-यज्ञ रचा रहा है, वह परमेश्वर (आजुह्वानस्य) आहुत हुए (सर्पिषः घृतस्य) पिघले घृत की (विभ्राष्टिम् अनु) विशिष्ट चमक के अनुरूप (शोचिषा) चमक द्वारा (वष्टि) चमकता है।
टिप्पणी
[दास्वन्तम्=दासृ दाने। सूनुम्=सू प्रेरणे। जातवेदसम्=जातं जातं वेत्ति। कृपा=कृपु सामर्थ्ये। वष्टिं=कान्तिकर्मा (निघं০ १.६)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
I worship, serve and meditate on Agni, lord of light and knowledge, spirit of life and heat and inspiration of noble action, yajaka, generous giver, treasure of wealth and universal shelter, inspirer and creator of courage and courageous action as the sun, omniscient lord of all that is born in existence, master of knowledge as the supreme scholar of the Veda, organiser of yajna with love and non-violence with divine knowledge and awareness, refulgent with heavenly light and power, loving and consuming with flames of fire, and light, the blaze of the purest and most powerful ghrta offered into the fire of yajna, physical, mental and spiritual all.
Translation
I shink of the properties of fire that is consumer of oblations giver of light, heat etc., abiding in all, impeller of strength and is present in the created things and even like man knowing every thing it is living in the object created and succeeding to be created. It is that which with the lofty power of reaching all the wondrous forces becoming in violable likes the flame caused by ghee and with the inflaming splendour the ghee of the man who offers the oblation.
Translation
I shink of the properties of fire that is consumer of oblations, giver of light, heat etc., abiding in all, impeller of strength and is present in the created things and even like man knowing everything it is living in the object created and succeeding to be created. It is that which with the lofty power of reaching all the wondrous forces becoming in violable likes the flame caused by ghee and with the inflaming splendor the ghee of the man who offers the oblation.
Translation
I (a devotee) regard the Refulgent God, the Benefactor, the All-pervader and All-settler, Revealing Himself through His Almighty power and energy, the Omniscient, the Exposure of all things and Vedic learning like a wise and learned person. He is the One, Who is Self-effulgent as well as Enlightener of all, the non-violent sacrificer and nourisher of the universe, through His Supreme might and splendorous energy. He shines forth through manifold lights by His own splendour and glory like the clarified butter, liquified and offered in a sacrifice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।१२७।१; यजुर्वेद-१।४७; कुछ भेद से सामवेद-पू० ।८।९ और उ० ९।१।१८ ॥ ३−(अग्निम्) अग्निवद् वर्तमानम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (मन्ये) जानामि (दास्वन्तम्) दातारम् (वसुम्) श्रेष्ठगुणवन्तम् (सूनुम्) पुत्रम् (सहसः) मतुपो लोपः। सहस्वतः। बलवतः (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (जातवेदसम्) प्रसिद्धविद्यम् (यः) अग्निः (ऊर्ध्वया) उन्नतया (स्वध्वरः) हिंसारहितस्य यज्ञस्य सुष्ठु साधकः (देवः) प्रकाशमानः (देवाच्या) देवान् गतिशीलान् वाय्वादीन् अञ्चति प्राप्नोतीति देवाची तया (कृपा) कृपू सामर्थ्ये-क्विप्। शक्त्या। (घृतस्य) आज्यस्य (विभ्राष्टिम्) भ्राज-क्तिन्। विविधां दीप्तिम् (अनु) निरन्तरम् (वष्टि) कामयते (शोचिषा) ईशुचिर् शौचे क्लेदे च-इसि। प्रभया (आजुह्वानस्य) समन्ताद्धूयमानस्य (सर्पिषः) सरणशीलस्य। द्रवीभूतस्य ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(হোতারম্) গ্রহীতা, (দাস্বন্তম্) দাতা, (বসুম্) শ্রেষ্ঠ গুণযুক্ত, (সহসঃ) বলবান্ পুরুষের (সূনুম্) পুত্র, (জাতবেদসম্) প্রসিদ্ধ বিদ্যাযুক্ত (বিপ্রম্ ন) বুদ্ধিমান্ এর সমান (জাতবেদসম্) প্রসিদ্ধ বিদ্যাযুক্ত বিদ্বানকে (অগ্নিম্) অগ্নির সমান (মন্যে) আমি জানি/স্বীকার করি। (যঃ) যে (দেবঃ) প্রকাশমান, (স্বধ্বরঃ) উত্তমরূপে হিংসারহিত যজ্ঞ সম্পাদনকারী [অগ্নি] (ঊর্ধ্বয়া) ঊর্ধ্বে (দেবাচ্যা) গতিশীল [বায়ু আদি দেবতাকে] প্রাপ্তকারী (কৃপা) শক্তির সহিত (আজুহ্বানস্য) যজ্ঞে আহুত এবং (সর্পিষঃ) দ্রবীভূত/গলিত হয়ে (ঘৃতস্য) ঘী এর (শোচিষা) শুদ্ধি দ্বারা (বিভ্রাষ্টিম্) নানাবিধ প্রকাশ/তেজ (অনু) নিরন্তর (বষ্টি) কামনা করে ॥৩॥
भावार्थ
বিদ্বান্ পুরুষ বিদ্যা প্রাপ্তি পূর্বক সংসারে এমন উপকারী মানুষে পরিণত হয়, যেমন অগ্নি ঘৃত আদি দ্বারা প্রজ্বলিত হয়ে বায়ু, জল আদিকে শুদ্ধ করে তথা সূর্য পার্থিব রস শোষণ করে বৃষ্টির মাধ্যমে তা উপযোগী করে তোলে ॥৩॥ এই মন্ত্র ঋগ্বেদে আছে-১।১২৭।১; যজুর্বেদ-১৫।৪৭; কিছু ভেদপূর্বক সামবেদ-পূ০ ৫।৮।৯ এবং উ০ ৯।১।১৮ ॥
भाषार्थ
(অগ্নিম্) সর্বাগ্রণী পরমেশ্বরকে (হোতারম্) সকলকিছুর দাতা (মন্যে) আমি মান্য করি; (দাস্বন্তম্) উনাকেই আমি সবকিছুর দাতা মান্য করি; (বসুম্) উনাকেই সর্বশ্রেষ্ঠ সম্পত্তি তথা (সহসঃ সূনুম্) বলের প্রেরক মান্য করি; (জাতবেদসম্) প্রত্যেক উৎপন্ন পদার্থের বেত্তা, তথা (বিপ্রং ন) মেধাবীর সদৃশ (জাতবেদসম্) বিদ্যাবান্ মান্য করি। (যঃ) যে (দেবঃ) পরমেশ্বর দেব (ঊর্ধ্বয়া দেবাচ্যা কৃপা) ঊর্ধ্বের দ্যুলোকে সূর্যাদি দেবতাকে প্রাপ্ত হয়ে নিজ সামর্থ্য দ্বারা (স্বধ্বরঃ) উত্তম-সংসার-যজ্ঞ রচনা করছেন, সেই পরমেশ্বর (আজুহ্বানস্য) আহুত (সর্পিষঃ ঘৃতস্য) গলিত ঘৃতের (বিভ্রাষ্টিম্ অনু) বিশিষ্ট চমকের অনুরূপ (শোচিষা) চমক দ্বারা (বষ্টি) চমকিত হয়।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal