अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
आ व॑क्षि दे॒वाँ इ॒ह वि॑प्र॒ यक्षि॑ चो॒शन्हो॑त॒र्नि ष॑दा॒ योनि॑षु त्रि॒षु। प्रति॑ वीहि॒ प्रस्थि॑तं सो॒म्यं मधु॒ पिबाग्नी॑ध्रा॒त्तव॑ भा॒गस्य॑ तृप्णुहि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । व॒क्षि॒ । दे॒वान् । इ॒ह । वि॒प्र॒ । यक्षि॑ । च॒ । उ॒शन् । हो॒त॒: । नि । स॒द॒ । योनि॑षु । त्रि॒षु ॥ प्रति॑ । वी॒हि॒ । प्रऽस्थि॑तम् । सो॒म्यम् । मधु॑ । पिब॑ । आग्नी॑ध्रात् । तव॑ । भा॒गस्य॑ । तृ॒ष्णु॒हि॒ ॥६७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वक्षि देवाँ इह विप्र यक्षि चोशन्होतर्नि षदा योनिषु त्रिषु। प्रति वीहि प्रस्थितं सोम्यं मधु पिबाग्नीध्रात्तव भागस्य तृप्णुहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वक्षि । देवान् । इह । विप्र । यक्षि । च । उशन् । होत: । नि । सद । योनिषु । त्रिषु ॥ प्रति । वीहि । प्रऽस्थितम् । सोम्यम् । मधु । पिब । आग्नीध्रात् । तव । भागस्य । तृष्णुहि ॥६७.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(विप्र) हे बुद्धिमान् ! (होतः) हे दाता ! (इह) यहाँ पर (देवान्) दिव्य गुणों को (आ) अच्छे प्रकार (वक्षि) तू कहता है (च) और (यक्षि) तू देता है, सो (उशन्) कामना करता हुआ तू (त्रिषु) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] (योनिषु) निमित्तों में (नि) निरन्तर (सद) स्थिर हो। (प्रस्थितम्) उपस्थित किये हुए (सोम्यम्) सोम [तत्त्वरस] से युक्त (मधु) निश्चित ज्ञान को (प्रति) प्रतिज्ञापूर्वक (वीहि) प्राप्त हो, और (पिब) पान कर, और (आग्नीध्रात्) अग्नि की प्रकाशविद्या को आश्रय में रखनेवाले व्यवहार से (तव) अपने (भागस्य) भाग की (तृप्णुहि) तृप्ति कर ॥॥
भावार्थ
मनुष्य कर्म उपासना और ज्ञान के साथ तत्त्वरस का ग्रहण करके पुरुषार्थी होकर तृप्त होवें ॥॥
टिप्पणी
−(आ) समन्तात् (वक्षि) वच परिभाषणे-लट्। कथयसि (देवान्) दिव्यगुणान् (इह) अत्र (विप्र) मेधाविन् (यक्षि) यजसि। ददासि (च) (उशन्) कामयमानः (होतः) हे दातः (नि) नितराम् (सद) तिष्ठ (योनिषु) निमित्तेषु (त्रिषु) कर्मोपासनाज्ञानेषु (प्रति) प्रतिज्ञया (वीहि) वी गतौ-लोट्। प्राप्नुहि (प्रस्थितम्) उपस्थितम् (सोम्यम्) सोमेन तत्त्वरसेन युक्तम् (मधु) मधुविद्याम्। निश्चितज्ञानम् (पिब) अनुभव (आग्नीध्रात्) अ० २०।२।२। अग्निप्रकाशविद्याशरणयुक्तव्यवहारात् (तव) स्वकीयस्य (भागस्य) अंशस्य (तृप्णुहि) तृप्तिं करु ॥
विषय
सोम-रक्षण से अग्नितत्त्व की उचित स्थिति
पदार्थ
१. हे (होत:) = दानपूर्वक अदन करनेवाले (विप्र) = ज्ञानिन्! (इह) = इस जीवन में (देवान) = देवों को दिव्य गुणों को (आवक्षि) = [आवह]-प्राप्त कर, (च) = और (उशन्) = प्रभु-प्राप्ति की कामना करता हुआ (यक्षि) = दिव्यगुणों को अपने साथ संगत कर । (त्रिषु योनिषु) = तीनों घरों में (निषद) = तू आसीन हो। स्थूलशरीर में आसीन हुआ-हुआ तु पूर्ण स्वस्थ बन । सुक्ष्मशरीर में आसीन हुआ-हुआ तू ज्ञान को बढ़ानेवाला हो। कारणशरीर में स्थित हुआ-हुआ तू सबके साथ एकत्व का अनुभव कर। २. इस (प्रस्थितम्) = निरन्तर गतिबाले-चलने के स्वभाववाले-(सोम्यं मधु) = सोम-सम्बन्धी मधु का तू (प्रतिवीहि) = भक्षण कर-इसे तू शरीर में ही सुरक्षित कर। (आग्नीधात्) = अपने अन्दर अग्नितत्व के धारण के उद्देश्य सेतू इसे (पिब) = अपने अन्दर पीनेवाला हो। तू (तव) = अपने (भागस्य तष्णुहि) = इस भजनीय सोम के पान से तृप्ति [प्रीति] का अनुभव कर । इस सोम के पान से तेरा मन सदा प्रसन्न हो।
भावार्थ
सोम-रक्षण से शरीर में अग्नितत्त्व ठीक बना रहता है और मन में प्रसन्नता होती है।
भाषार्थ
(विप्र) हे मेधावी उपासक! (इह) इस उपासना-यज्ञ में तू (देवान्) अन्य दिव्य व्यक्तियों को (आवक्षि) आमन्त्रित किया कर, (यक्षि) और उन्हें आमन्त्रित करके उपासना-यज्ञ रचा या किया कर। (होतः) उपासना-यज्ञ में दिव्य व्यक्तियों का आह्वान करनेवाले हे उपासक! तू (उशन्) चाहना पूर्वक (त्रिषु योनिषु) ऋक्-साम-यजुरूपी तीन माताओं के गर्भ में (निषदा) स्थिररूप में आसीन होकर, (आग्नीध्रात्) तुझ में ज्ञानाग्नि की ज्योति प्रकट करनेवाले परमेश्वर से (प्रस्थितम्) प्राप्त (मधु सोम्यम्) दुग्ध समान पौष्टिक और मधुर आनन्दरस का (पिब) पान किया कर, और (तव) तेरा जो (भागस्य) आनन्दरस का भाग है, [तेन] उसके लिए सदा (तृष्णुहि) तृषित हुआ कर।
टिप्पणी
[वेद=माता। यथा—“स्तुता मया वरदा वेदमाता” (अथर्व০ १९.७१.१)। सोम—दुग्ध। “सोमो दुग्धाभिरक्षाः” (ऋ০ ९.१०७.९); अर्थात् दुही गई गौओं से सोम क्षरित होता है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Agni, ‘vipra’, brilliant scholar of the dynamics of nature and human society, speak of the laws of nature and psycho-social dynamics and inaugurate and direct the yajna of creation and production here. Inspired and passionate for holy action, be seated on the vedi, establish yourself in the three fields of earth, sky and space and be sure and specific on description, application and valuation of knowledge human and divine with prayer and gratitude to the Lord Omniscient. Achieve the planned targets of blissful creativity and development, taste the sweets of yajnic success and be happy that you have played your part of life’s action for your people.
Translation
Let this all-consuming fire (Vipra) bring all the wondrous forces here in the Yajna; let it burning the oblations offered give to Yajna-devas; let in make the substance of oblation available in three places-earth, firmament and heaven; let it drink the sweet oblation mixed with Soma juice and let it fill it self with its assigned portion from Agnidara priest.
Translation
Let this all-consuming fire (Vipra) bring all the wondrous forces here in the Yajna; let it burning the oblations offered give to Yajna-devas; let in make the substance of oblation available in three places-earth, firmament and heaven; let it drink the sweet oblation mixed with Soma juice and let it fill itself with its assigned portion from Agnidhra priest.
Translation
O All-Intelligent God, Thou sustains all the divine powers, persons or bodies in this universe and wishing them well, knits them into harmonious working of it. O the Great Sacrificer, Thou, pervades through all the three worlds. Latest Thou protect the sweet, beneficial and well-established means of joy and pleasure, surcharging each article through Thy presence. Latest Thou satisfy and cherish that the world with Thy share of glory or splendour through the fire-bearing spheres like the sun, etc. Or O learned person, latest thee acquire all good qualities, and desirous of doing good make use of these for the benefit of others. O sacrifices, stay steadfast throughout the performance of all the three sacrificial fires, i.e,, Ahavanyia Garhapatya, Dakshinia i.e., Brahmacharya, Grihastha and Vanaprastha. Desireto have the sweet essence of herbs, brought or presented to thee. Drink the remaining share of the Anidhra sacrifice and be content with thy share of it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(आ) समन्तात् (वक्षि) वच परिभाषणे-लट्। कथयसि (देवान्) दिव्यगुणान् (इह) अत्र (विप्र) मेधाविन् (यक्षि) यजसि। ददासि (च) (उशन्) कामयमानः (होतः) हे दातः (नि) नितराम् (सद) तिष्ठ (योनिषु) निमित्तेषु (त्रिषु) कर्मोपासनाज्ञानेषु (प्रति) प्रतिज्ञया (वीहि) वी गतौ-लोट्। प्राप्नुहि (प्रस्थितम्) उपस्थितम् (सोम्यम्) सोमेन तत्त्वरसेन युक्तम् (मधु) मधुविद्याम्। निश्चितज्ञानम् (पिब) अनुभव (आग्नीध्रात्) अ० २०।२।२। अग्निप्रकाशविद्याशरणयुक्तव्यवहारात् (तव) स्वकीयस्य (भागस्य) अंशस्य (तृप्णुहि) तृप्तिं करु ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বিপ্র) হে বুদ্ধিমান্ ! (হোতঃ) হে দাতা ! (ইহ) এখানে (দেবান্) দিব্য গুণসমূহ (আ) উচিত প্রকারে (বক্ষি) তুমি কথন করেছো/করো (চ) এবং (যক্ষি) তুমি দান করো, সুতরাং (উশন্) কামনাকারী তুমি (ত্রিষু) ত্রিবিধ [কর্ম, উপাসনা, জ্ঞান] (যোনিষু) নিমিত্তে (নি) নিরন্তর (সদ) স্থির হও। (প্রস্থিতম্) উপস্থিত/প্রতিস্থাপিত (সোম্যম্) সোম [তত্ত্বরস] এর সাথে যুক্ত (মধু) নিশ্চিত জ্ঞান (প্রতি) প্রতিজ্ঞাপূর্বক (বীহি) প্রাপ্ত হও তথা (পিব) পান করো, এবং (আগ্নীধ্রাৎ) অগ্নির প্রকাশবিদ্যা ধারণকারী উত্তম ব্যবহার দ্বারা (তব) নিজের (ভাগস্য) অংশের (তৃপ্ণুহি) তৃপ্তি সাধন করো ॥৫॥
भावार्थ
মনুষ্য কর্ম, উপাসনা এবং জ্ঞানের সহিত তত্ত্বরস গ্রহণ করে পুরুষার্থী হয়ে তৃপ্ত হোক ॥৫॥
भाषार्थ
(বিপ্র) হে মেধাবী উপাসক! (ইহ) এই উপাসনা-যজ্ঞে তুমি (দেবান্) অন্য দিব্য ব্যক্তিদের (আবক্ষি) আমন্ত্রিত করো, (যক্ষি) এবং তাঁদের আমন্ত্রিত করে উপাসনা-যজ্ঞ রচনা করো। (হোতঃ) উপাসনা-যজ্ঞে দিব্য ব্যক্তিদের আহ্বানকারী হে উপাসক! তুমি (উশন্) কামনাপূর্বক (ত্রিষু যোনিষু) ঋক্-সাম-যজুরূপী তিন মাতার গর্ভে (নিষদা) স্থিররূপে স্থিত হয়ে, (আগ্নীধ্রাৎ) তোমার মধ্যে জ্ঞানাগ্নির জ্যোতি প্রকটকারী পরমেশ্বর থেকে (প্রস্থিতম্) প্রাপ্ত (মধু সোম্যম্) দুগ্ধ সমান পৌষ্টিক/পুষ্টিকর এবং মধুর আনন্দরস (পিব) পান করো, এবং (তব) তোমার যে (ভাগস্য) আনন্দরসের ভাগ আছে, [তেন] উহার জন্য সদা (তৃষ্ণুহি) তৃষ্ণার্ত থাকো।
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