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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 67/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - द्रविणोदाः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-६७
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    यमु॒ पूर्व॒महु॑वे॒ तमि॒दं हु॑वे॒ सेदु॒ हव्यो॑ द॒दिर्यो नाम॒ पत्य॑ते। अ॑ध्व॒र्युभिः॒ प्रस्थि॑तं सो॒म्यं मधु॑ पो॒त्रात्सोमं॑ द्रविणोदः॒ पिब॑ ऋ॒तुभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ऊं॒ इति॑ । पूर्व॑म् । अहु॑वे । तम । इ॒दम् । हु॒वे॒ । स: । इत् । ऊं॒ इति॑ । हव्य॑: । द॒दि: । य: । नाम॑ । पत्य॑ते ॥ अ॒ध्व॒र्युभि॑: । प्रऽस्थि॑तम् । सो॒म्यम् । मधु॑ । पो॒त्रात् । सोम॑म् । द्र॒वि॒ण॒:ऽद॒: । पिब॑ । ऋ॒तुऽभि॑: ॥६७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते। अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ऊं इति । पूर्वम् । अहुवे । तम । इदम् । हुवे । स: । इत् । ऊं इति । हव्य: । ददि: । य: । नाम । पत्यते ॥ अध्वर्युभि: । प्रऽस्थितम् । सोम्यम् । मधु । पोत्रात् । सोमम् । द्रविण:ऽद: । पिब । ऋतुऽभि: ॥६७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस [पराक्रमी] को (उ) ही (पूर्वम्) पहिले (अहुवे) मैंने ग्रहण किया था, (तम्) उस [पुरुष] को (इदम्) अब (हुवे) मैं ग्रहण करता हूँ, (सः इत्) वही (उ) निश्चय करके (हव्यः) ग्रहण करने योग्य है, (यः) जो (ददिः) दाता (नाम) नाम [होकर] (पत्यते) स्वामी होता है। (द्रविणोदः) हे धन देनेवाले (पोत्रात्) पवित्र व्यवहार से (अध्वर्युभिः) हिंसा न चाहनेवाले पुरुषों करके (प्रस्थितम्) उपस्थित किये हुए (सोम्यम्) ऐश्वर्य के लिये हितकारी (मधु) निश्चित ज्ञान को और (सोमम्) सोम [तत्त्वरस] को (ऋतुभिः) ऋतुओं के साथ (पिब) तू पी ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष सुपरीक्षित गुणी पराक्रमी मनुष्य को सदा उत्तम व्यवहारों के लिये नियुक्त करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यम्) पराक्रमिणम् (उ) एव (पूर्वम्) पूर्वकाले (अहुवे) हु दानादानयोः-लङ् शपः लुक्। गृहीतवानस्मि (तम्) (इदम्) इदानीम् (हुवे) हु दानादानयोः। गृह्णासि (सः) (इत्) एव (उ) निश्चयेन (हव्यः) ग्रहीतुमर्हः (ददिः) दाता (यः) पुरुषः (नाम) प्रसिद्धौ (पत्यते) ईष्टे (अध्वर्युभिः) हिंसामनिच्छुभिः पुरुषैः (प्रस्थितम्) उपस्थितम् (सोम्यम्) ऐश्वर्याय हितम् (मधु) निश्चितज्ञानम् (पोत्रात्) पवित्रव्यवहारात् (सोमम्) तत्त्वरसम् (द्रविणोदः) अ० २०।२।४। हे धनप्रद (पिब) अनुभव (ऋतुभिः) ॥

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    विषय

    'प्रभु-स्मरण व यज्ञों' में लगे रहना

    पदार्थ

    १. (यम् उ) = जिस प्रभु को ही (पूर्वम् अहुवे) = मैं दिन के प्रारम्भ में पुकारता हूँ (तम् इदं हुवे) = उस प्रभु को ही अब सायं भी पुकारता हूँ। (सः इत् उ) = वह प्रभु ही (हव्यः) = पुकारने योग्य है-आराधना के योग्य हैं। (ददि:) = वे ही सब-कुछ देनेवाले हैं, (य:) = जो नाम निश्चय से (पत्यते) = सारे संसार के ईश व पति हैं। २. (अध्वर्युभि:) = जीवन-यज्ञ को चलानेवाली इन्द्रियों, मन व बुद्धि से (प्रस्थितम्) = प्रस्थान व गति के स्वभाववाले (सोम्यं मधु) = सोम-सम्बन्धी मधु का तू (पिब) = पान कर। यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त इन्द्रियों से ही सोम का रक्षण सम्भव होता है। ३. हे (द्रविणोदः) = धनों को दान करनेवाले यज्ञशील पुरुष! (पोत्रात्) = अपने जीवन को पवित्र बनाने के दृष्टिकोण से (प्रातुभिः सोमं पिब) = समय रहते तू सोम का पान कर। तू युवावस्था में ही सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाला बन।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें-यज्ञों की वृत्तिवाले बनें। यही सोम-रक्षण का मार्ग सोम-रक्षण से हम 'मधुच्छन्दाः'-उत्तम इच्छाओंवाले बनते हैं। यही अगले सूक्त का ऋषि -

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    भाषार्थ

    (यम् उ) जिसका (पूर्वम्) पहिले (अहुवे) मैं आह्वान करता रहा हूँ, (इदम्) अब भी (तम्) उसका (हुवे) मैं आह्वान करता हूँ। क्योंकि (स इत् उ) वह ही (हव्यः) सहायता के लिए आह्वान के योग्य है, (यः) जो कि (ददिः) सबका दाता है, और जो (नाम) सर्वप्रसिद्ध है, तथा (पत्यते) ऐश्वर्यवान् है। (द्रविणोदः) हे धन और बल के दाता! (अध्वर्युभिः) हिंसारहित उपासना-यज्ञों के रचयिताओं द्वारा और (पोत्रात्) मुझ-पवित्र उपासक द्वारा (प्रस्थितम्) समर्पित (सोम्यम्) दुग्ध समान (मधु) मधुर (सोमम्) भक्तिरस का (पिब) पान कीजिए, (ऋतुभिः) प्रत्येक ऋतु में समर्पित भक्तिरस का पान कीजिए।

    टिप्पणी

    [सोम्यम्=दुग्धसमान। देखो पूर्व मन्त्र ५ की टिप्पणी। पत्यते=पत् ऐश्वर्ये।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Whom I ever invoke and worship, him alone I invoke and serve and worship now. He alone is the giver, he alone is the master, he alone is the ruler, he alone for sure is the lord worthy of invocation, invitation, service, yajna and worship. O lord giver of the wealth of life, abundant and infinite, receive and drink this honey sweet of soma prepared and refined by the loving, faithful and non-violent priests according to the seasons. Take it from the sacred cup and drink to your heart’s desire.

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    Translation

    Let this fire for which the precious oblations are offered (Dravinodas), which I accept before and I accept even now, be the consumer of oblations in our Yajnas. This is that which bears the name-Dadih, the giver. Let this fire drink Sweet oblations of herbacious plants offered by Adhvaryus and drink juice of Soma from Potra-priest according to seasons.

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    Translation

    Let this fire for which the precious oblations are offered (Dravinodas), which I accept before and I accept even now, be the consumer of oblations in our Yajnas. This is that which bears the name-Dadih, the giver. Let this fire drink sweet oblations of herbaceous plants offered by Adhvaryus and drink juice of Soma from Potra-priest according to seasons.

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    Translation

    Whomever I (i.e,, the priest) calls first of all, I offer him (this right of kingship mentioned above) and instruct him accordingly. Whoever has been made the king of the nation, he alone is worthy of honour and able to give aid and protection to the nation. O King, the giver of fortune, just as the sun draws water through its rays all through the seasons, so should you enjoy the sweet fruit of national fortune by your pure and protective acts, performed through the learned administrators of the kingdom.

    Footnote

    I: the priest investing the king, with powers of Royalty.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यम्) पराक्रमिणम् (उ) एव (पूर्वम्) पूर्वकाले (अहुवे) हु दानादानयोः-लङ् शपः लुक्। गृहीतवानस्मि (तम्) (इदम्) इदानीम् (हुवे) हु दानादानयोः। गृह्णासि (सः) (इत्) एव (उ) निश्चयेन (हव्यः) ग्रहीतुमर्हः (ददिः) दाता (यः) पुरुषः (नाम) प्रसिद्धौ (पत्यते) ईष्टे (अध्वर्युभिः) हिंसामनिच्छुभिः पुरुषैः (प्रस्थितम्) उपस्थितम् (सोम्यम्) ऐश्वर्याय हितम् (मधु) निश्चितज्ञानम् (पोत्रात्) पवित्रव्यवहारात् (सोमम्) तत्त्वरसम् (द्रविणोदः) अ० २०।२।४। हे धनप्रद (पिब) अनुभव (ऋतुभिः) ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যম্) যে [পরাক্রমী] কে (উ)(পূর্বম্) পূর্বে (অহুবে) আমি গ্রহণ গ্রহণ করেছিলাম, (তম্) সেই [পুরুষ] কে (ইদম্) এখন (হুবে) আমি গ্রহণ করছি, (সঃ ইৎ) তিনিই (উ) নিশ্চতরূপে (হব্যঃ) গ্রহণযোগ্য/বরণযোগ্য, (যঃ) যিনি (দদিঃ) দাতা (নাম) নামে খ্যাত [হয়ে] (পত্যতে) স্বামী হন। (দ্রবিণোদঃ) হে ধন দাতা (পোত্রাৎ) পবিত্র ব্যবহার দ্বারা (অধ্বর্যুভিঃ) অহিংসক পুরুষদের দ্বারা (প্রস্থিতম্) উপস্থাপিত (সোম্যম্) ঐশ্বর্যের জন্য হিতকারী (মধু) নিশ্চিত জ্ঞানকে এবং (সোমম্) সোম [তত্ত্বরস]কে (ঋতুভিঃ) ঋতু-সমূহের সাথে (পিব) পান করো॥৭॥

    भावार्थ

    বিদ্বান্ পুরুষ সুপরীক্ষিত গুণী পরাক্রমী মনুষ্যকে সদা উত্তম ব্যবহারের জন্য নিযুক্ত করুক ॥৭॥

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    भाषार्थ

    (যম্ উ) যার (পূর্বম্) পূর্বে (অহুবে) আমি আহ্বান করেছি, (ইদম্) এখনও (তম্) উনার (হুবে) আমি আহ্বান করি। কেননা (স ইৎ উ) তিনিই (হব্যঃ) সহায়তার জন্য আহ্বানযোগ্য, (যঃ) যিনি (দদিঃ) সবকিছুর দাতা, এবং যিনি (নাম) সর্বপ্রসিদ্ধ, তথা (পত্যতে) ঐশ্বর্যবান্। (দ্রবিণোদঃ) হে ধন এবং বল প্রদাতা! (অধ্বর্যুভিঃ) হিংসারহিত উপাসনা-যজ্ঞের রচয়িতাদের দ্বারা এবং (পোত্রাৎ) মমরূপ-পবিত্র উপাসক দ্বারা (প্রস্থিতম্) সমর্পিত (সোম্যম্) দুগ্ধ সমান (মধু) মধুর (সোমম্) ভক্তিরস (পিব) পান করুন, (ঋতুভিঃ) প্রত্যেক ঋতুতে সমর্পিত ভক্তিরস পান করুন।

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