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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - अत्यष्टिः सूक्तम् - सूक्त-७५
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    वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्यस्य पू॒रवः॒ पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः। शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते। म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒दु: । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्यस्य॑ । पू॒रव॑: । पुर॑: । यत् । इ॒न्द्र॒ । शार॑दी: । अ॒व॒ऽअति॑र: । स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ शास॑: । तम् । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑म् । अय॑ज्युम् । श॒व॒स॒: । प॒ते॒ ॥ म॒हीम् । अ॒मु॒ष्णा॒: । पृ॒थि॒वीम् । इ॒मा: । अ॒प: । म॒न्द॒सा॒न: । इ॒मा: । अ॒प: ॥७५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरवः पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः। शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते। महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विदु: । ते । अस्य । वीर्यस्य । पूरव: । पुर: । यत् । इन्द्र । शारदी: । अवऽअतिर: । ससहान: । अवऽअतिर: ॥ ससहान: । अवऽअतिर: ॥ शास: । तम् । इन्द्र । मर्त्यम् । अयज्युम् । शवस: । पते ॥ महीम् । अमुष्णा: । पृथिवीम् । इमा: । अप: । मन्दसान: । इमा: । अप: ॥७५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] (पूरवः) मनुष्य (ते) तेरे (अस्य) उस (वीर्यस्य) सामर्थ्य का (विदुः) ज्ञान रखते हैं, (यत्) जिस [सामर्थ्य] से (सासहानः) जीतते हुए तूने (शारदीः) वर्ष भर में उत्पन्न होनेवाली (पुरः) पालनसामग्रियों को (अवातिरः) उतारा है, (अवातिरः) उतारा है, (शवसःपते) हे बल के स्वामी (इन्द्र) इन्द्र ! [परमेश्वर] (तम्) उस (अयज्युम्) यज्ञ के न करनेवाले (मर्त्यम्) मनुष्य को (शासः) तूने शासन में किया है, और (मन्दसानः) आनन्द करते हुए तूने (महीम्) बड़ी (पृथिवीम्) पृथिवी से (इमाः) इन [यज्ञ न करनेवाली] (अपः) प्रजाओं को, (इमाः) इन (अपः) प्रजाओं को (अमुष्णाः) लूटा है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने सामर्थ्य से अनन्त पदार्थ उत्पन्न करके सबका सदा पालन करता है, और अनाज्ञाकारी दुष्टों को अवश्य दण्ड देता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(विदुः) विदन्ति। ज्ञानं कुर्वन्ति (ते) तव (अस्य) प्रसिद्धस्य (वीर्यस्य) सामर्थ्यस्य (पूरवः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। पूरी आप्यायने-उप्रत्ययः। पूरवः पूरयितव्या मनुष्याः-निरु० ७।२३। मनुष्याः-निघ० २।३। (पुरः) पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। इत्युत्वम्। पालनसामग्रीः (यत्) येन सामर्थ्येन (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (शारदीः) शरद्-अण्, ङीप्। शरदि संवत्सरे भवाः (अवातिरः) अवतारितवानसि। दत्तवानसि (सासहानः) सहतेर्यङ्लुगन्ताच् चानश्। अभिभवन्। विजयन् (अवातिरः) दत्तवानसि (शासः) शासु अनुशिष्टौ-लुङ्, छान्दसं रूपम्। शासितवानसि। निगृहीतवानसि (तम्) (इन्द्र) (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अयज्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। यजेः-युच्। अयष्टारम्। यज्ञविघातकम् (शवसः) बलस्य (पते) स्वामिन् (महीम्) महतीम् (अमुष्णाः) मुष स्तेये-लङ्। अपहृतवानसि। दुह्याच्पच्दण्डरुधिप्रच्छिचिब्रूशासुजिमथ्मुषाम्। कारिका, पा० १।४।१। इति मुष्णातेर्द्विकर्मकत्वात् पृथिवीमित्यस्य, अप इति अस्य पदस्य च कर्मकत्वम् (पृथिवीम्) भूमिम्। भूमेः सकाशात् (इमाः) दृश्यमानाः (अपः) प्रजाः (मन्दसानः) हृष्यन् त्वम् (इमाः) (अपः) प्रजाः ॥

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    विषय

    इन्द्र का महान् पराक्रम

    पदार्थ

    १. (पूरव:) = अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग, हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (ते) = आपके (अस्य वीर्यस्य) = इस पराक्रम का (विदुः) = ज्ञान रखते हैं (यत्) = कि आप (सासहान:) = शत्रुओं का पराभव करते हुए (शारदी:) = हमारी शक्तियों को शीर्ण करनेवाली (पुर:) = आसुर पुरियों को (अवातिर:) विध्वस्त कर देते हैं और (अवातिरः) = अवश्य विध्वस्त कर देते हैं। काम की नगरी हमारी इन्द्रियशक्तियों को शीर्ण करती है, क्रोधनगरी मन को तथा लोभनगरी बुद्धि को शीर्ण कर देती है। इन शारदी पुरियों को प्रभु ही विध्वस्त करते हैं। २. हे (शवसस्पते) = सब शक्तियों के स्वामिन् ! (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (तम्) = उस (अयज्यूम) = अयज्ञशील (मर्त्यम्) = मनुष्य को (शास:) = निगृहीत करते हो। यज्ञ आदि कर्मों में लगे रहने पर हम काम-क्रोध आदि के शिकार नहीं होते। ३. हे प्रभो! अपने पुत्रों की यज्ञशीलता से (मन्दसान:) = प्रसन्नता का अनुभव करते हुए आप (महीं पृथिवीम्) = इस महनीय पृथिवी को तथा (इमाः अप:) = इन जलों को (अमुष्णा:) = [ surpass] लॉप जाते हो। आपकी महिमा को यह विशाल पृथिवी तथा अत्यन्त व्यापक रूप को धारण करनेवाले जल भी नहीं व्याप्त कर सकते। (इमा: अप:) = ये जल वस्तुत: आपकी महिमा से ही महत्त्व को धारण करते हैं। इनमें रस-रूप से आप ही निवास करते हो 'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'। पृथिवी भी आपकी महिमा से ही महिमान्वित होती है 'पुण्यो गन्धः पृथिव्याञ्च'। हमारे शत्रुओं को नष्ट करके इस शरीररूप पृथिवी व रेत:कणरूप जलों को भी आप ही उत्तम गन्ध व रसवाला बनाते है |

    भावार्थ

    प्रभु की महिमा को पृथिवी व जल व्याप्त नहीं कर पाते। उपासित हुए-हुए ये प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विध्वंस करके हमारे शरीर व शरीरस्थ रेत:कणों को सुरक्षित करते है|

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (पूरवः) मनुष्य (पुरः) अपने सामने ही, अर्थात् अपने जीवित काल में ही, (ते) आपके (अस्य वीर्यस्य) इस सामर्थ्य को (विदुः) जान लेते हैं—(१) (यत्) जब कि जीवनों की (शारदीः) शरत्कालीन अवस्थाओं अर्थात् जरावस्थाओं के उपस्थित हो जाने पर आप जीवनों का (अवातिरः) संहार कर देते हैं, (सासहानः) सहसा (अवातिरः) संहार कर देते हैं; (२) तथा (शवसस्पते इन्द्र) हे बलों के पति परमेश्वर! जब कि आप (तम्) उस (अयज्युम्) यज्ञिय-भावनाओं से रहित (मर्त्यम्) मनुष्य-समुदाय का (शासः) शासन करते हैं, उस पर दण्डविधान करते है; (३) तथा जब (मन्दसानः) निज प्रसन्नता में ही आप (महीं पृथिवीम्) विस्तृत पृथिवी को, और (इमा अपः) नदी नालों और समुद्रों की इस महा जलराशि को, तथा इन क्रियमाण नानाविध कर्मकलापों को (अमुष्णाः) प्रलय में मानो चुरा-से लेते हैं, अपने में लीन कर लेते हैं, (इमाः अपः) इन जलों को अपने में लीन कर लेते हैं।

    टिप्पणी

    [शारदीः=जीर्ण-शीर्ण अवस्थाएँ। वर्ष में तीन मुख्य ऋतुएँ होती हैं—ग्रीष्म, वर्षा, और सर्दी। सर्दी की समाप्ति में वर्ष की समाप्ति हो जाती है। इसी प्रकार जीवन की शरद्-ऋतु जरावस्था है, जिसकी समाप्ति पर जीवन की समाप्ति हो जाती है। अपः=जल (निघं০ १.१२); कर्म (निघं০ २.१)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord of power and management, the people would know and realise your usual power and valour when you, bold and challenging, would overcome the autumnal and wintry problems of life and society, reclaim the habitations, control the rivers, and restore total civic normalcy after rains, when, O lord of law and power, you tame the man who is selfish, possessive, uncreative, uncooperative and unyajnic, and when, happy at heart and creating the pleasure and joy of life, you release the great earth, release these waters and relieve these creative and cooperative people.

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    Translation

    O Almighty Divinity, people know of this power of yours through which you conquering break the bodies which are calculated by the measurement of autumns and you really break the worldly forests which are subjected to years passing through autumns. O Lord of power punish the man who does not perform Yajnas and is deprived of good acts and understanding. O Divine Spirit, you with spirit of delight take in to your fold (in dissolution) this grand earth and waters, may even these subjects and worlds.

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    Translation

    O Almighty Divinity, people know of this power of yours through which you conquering break the bodies which are calculated by the measurement of autumns and you really break the worldly forests which are subjected to years passing through autumns. O Lord of power punish the man who does not perform Yajnas and is deprived of good acts and understanding. O Divine Spirit, you with spirit of delight take in to your fold (in dissolution) this grand earth and waters, may even these subjects and worlds.

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    Translation

    O fortunate soul, the breaker of the bondage of karmas, the power inspiring sense-organs of yours know your strength, by which overcoming all obstacles, you cross the fortresses in the form of years and break through the bodily forts. O powerful soul, destroyer of evil forces, you control that mortal body, having no permanent alliance with you; and capture that vast state of grand bliss, having cheerfully performed these various kinds of noble acts and acquired glorious knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(विदुः) विदन्ति। ज्ञानं कुर्वन्ति (ते) तव (अस्य) प्रसिद्धस्य (वीर्यस्य) सामर्थ्यस्य (पूरवः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। पूरी आप्यायने-उप्रत्ययः। पूरवः पूरयितव्या मनुष्याः-निरु० ७।२३। मनुष्याः-निघ० २।३। (पुरः) पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। इत्युत्वम्। पालनसामग्रीः (यत्) येन सामर्थ्येन (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (शारदीः) शरद्-अण्, ङीप्। शरदि संवत्सरे भवाः (अवातिरः) अवतारितवानसि। दत्तवानसि (सासहानः) सहतेर्यङ्लुगन्ताच् चानश्। अभिभवन्। विजयन् (अवातिरः) दत्तवानसि (शासः) शासु अनुशिष्टौ-लुङ्, छान्दसं रूपम्। शासितवानसि। निगृहीतवानसि (तम्) (इन्द्र) (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अयज्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। यजेः-युच्। अयष्टारम्। यज्ञविघातकम् (शवसः) बलस्य (पते) स्वामिन् (महीम्) महतीम् (अमुष्णाः) मुष स्तेये-लङ्। अपहृतवानसि। दुह्याच्पच्दण्डरुधिप्रच्छिचिब्रूशासुजिमथ्मुषाम्। कारिका, पा० १।४।१। इति मुष्णातेर्द्विकर्मकत्वात् पृथिवीमित्यस्य, अप इति अस्य पदस्य च कर्मकत्वम् (पृथिवीम्) भूमिम्। भूमेः सकाशात् (इमाः) दृश्यमानाः (अपः) प्रजाः (मन्दसानः) हृष्यन् त्वम् (इमाः) (अपः) प्रजाः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] (পূরবঃ) মনুষ্য (তে) আপনার (অস্য) সেই প্রসিদ্ধ (বীর্যস্য) সামর্থ্য সম্পর্কে (বিদুঃ) জ্ঞাত, (যৎ) যে [সামর্থ্য] দ্বারা (সাসহানঃ) বিজয়ী আপনি (শারদীঃ) সারাবছর উৎপন্ন (পুরঃ) পালন সামগ্রী (অবাতিরঃ) প্রদান করেছেন, (অবাতিরঃ) প্রদান করেছেন। (শবসঃপতে) হে বলের অধিপতি (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [পরমেশ্বর] (তম্) সেই প্রসিদ্ধ (অয়জ্যুম্) যজ্ঞহীন (মর্ত্যম্) মনুষ্যকে (শাসঃ) আপনি শাসন করেছেন এবং (মন্দসানঃ) আনন্দ পূর্বক আপনি (মহীম্) বৃহৎ (পৃথিবীম্) পৃথিবী থেকে (ইমাঃ) এই [যজ্ঞহীন] (অপঃ) প্রজাদের, (ইমাঃ) এই (অপঃ) প্রজাদের (অমুষ্ণাঃ) অপহরণ করেছেন, দণ্ড প্রদান করেছেন ॥২॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা নিজ সামর্থ্য দ্বারা অনন্ত পদার্থ উৎপন্ন করে সর্বদা সকলের পালন করেন এবং অনাজ্ঞাকারী দুষ্টদের অবশ্যই শাস্তি প্রদান করেন ॥২॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (পূরবঃ) মনুষ্য (পুরঃ) নিজের সামনেই, অর্থাৎ নিজের জীবিত কালেই, (তে) আপনার (অস্য বীর্যস্য) এই সামর্থ্য (বিদুঃ) জেনে নেয়—(১) (যৎ) যখন জীবনের (শারদীঃ) শরৎকালীন অবস্থা অর্থাৎ জরাবস্থা উপস্থিত হয় আপনি জীবনের (অবাতিরঃ) সংহার করেন , (সাসহানঃ) সহসা (অবাতিরঃ) সংহার করেন; (২) তথা (শবসস্পতে ইন্দ্র) হে বলের পতি পরমেশ্বর! যখন আপনি (তম্) সেই (অয়জ্যুম্) যজ্ঞিয়-ভাবনা রহিত (মর্ত্যম্) মনুষ্যদের (শাসঃ) শাসন করেন, তাঁদের প্রতি দণ্ডবিধান করেন; (৩) তথা যখন (মন্দসানঃ) নিজ প্রসন্নতায় আপনি (মহীং পৃথিবীম্) বিস্তৃত পৃথিবীকে, এবং (ইমা অপঃ) নদী নালা এবং সমুদ্রের এই মহা জলরাশিকে, তথা এই ক্রিয়মাণ নানাবিধ কর্মকলাপে (অমুষ্ণাঃ) প্রলয়ে মানো হরণ করেন, নিজের মধ্যে লীন করেন, (ইমাঃ অপঃ) এই জলকে নিজের মধ্যে লীন করেন।

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