अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
आदित्ते॑ अ॒स्य वी॒र्यस्य चर्किर॒न्मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखिय॒तो यदावि॑थ। च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्यः॒ पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे। ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं सनिष्णत॒ श्रव॒स्यन्तः॑ सनिष्णत ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्य॑स्य । च॒र्कि॒र॒न् । मदे॑षु । वृ॒ष॒न् । उ॒शिज॑: । यत् । आवि॑थ: । स॒खि॒ऽय॒त: । यत् । आवि॑थ ॥ च॒कर्थ॑ । का॒रम् । ए॒भ्य॒: । पृत॑नासु । प्रऽव॑न्तवे ॥ ते । अ॒न्याम्ऽअ॑न्याम् । न॒द्य॑म् । स॒नि॒ष्ण॒त॒ । अ॒व॒स्यन्त॑: । स॒नि॒ष्ण॒त॒ ॥७५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्मदेषु वृषन्नुशिजो यदाविथ सखियतो यदाविथ। चकर्थ कारमेभ्यः पृतनासु प्रवन्तवे। ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्तः सनिष्णत ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । इत् । ते । अस्य । वीर्यस्य । चर्किरन् । मदेषु । वृषन् । उशिज: । यत् । आविथ: । सखिऽयत: । यत् । आविथ ॥ चकर्थ । कारम् । एभ्य: । पृतनासु । प्रऽवन्तवे ॥ ते । अन्याम्ऽअन्याम् । नद्यम् । सनिष्णत । अवस्यन्त: । सनिष्णत ॥७५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(वृषन्) हे महाबली ! [परमेश्वर] (आत्) इसलिये (इत्) ही (ते) तेरे (अस्य) उस (वीर्यस्य) सामर्थ्य को (चर्किरन्) उन्होंने [मनुष्यों ने] (बार-बार जाना है, (यत्) जिस [सामर्थ्य] से (मदेषु) आनन्दों के बीच (उशिजः) शुभ गुण चाहनेवाले बुद्धिमानों को (आविथ) तूने बचाया है, (यत्) जिस [सामर्थ्य] से (सखियतः) तुझे मित्र के समान समझते हुए लोगों को (आविथ) तूने बचाया है। और (एभ्यः) इन [लोगों] के लिये (पृतनासु) मनुष्यों में (प्रवन्तवे) सेवन करने को (कारम्) यत्न (चकर्थ) तूने किया है, (श्रवस्यन्तः) कीर्ति चाहनेवाले (ते) वे (अन्यामन्याम्) अलग-अलग (नद्यम्) पूजने योग्य क्रिया को (सनिष्णत) सेवन करें, (सनिष्णत) सेवन करें ॥३॥
भावार्थ
विद्वान् लोग परमात्मा के सामर्थ्य का अनेक प्रकार अनुभव करके आपस में मिलकर तथा पृथक्-पृथक् भी शुभ गुणों की प्राप्ति से सामर्थ्य बढ़ावें ॥३॥
टिप्पणी
३−(आत्) अतः (इत्) एव (ते) तव (अस्य) द्वितीयार्थे षष्ठी। तत्। वक्ष्यमाणम् (वीर्यस्य) सामर्थ्यम्, (चर्किरन्) कॄ विक्षेपे हिसायां विज्ञाने च, यङ्लुगन्तात् लङ्, अडभावः। ज्ञातवन्तः (मदेषु) हर्षेषु (वृषन्) बलिष्ठ। परमात्मन् (उशिजः) अ० २०।११।४। शुभगुणान् कामयमानान् मेधाविनः (यत्) येन वीर्येण (आविथ) रक्षितवानसि (सखियतः) उपमानादाचारे। पा० ३।१।१०। सखि-क्यच्, शतृ। न च्छन्दस्यपुत्रस्य। पा० ७।४।३। इति दीर्घनिषेधः त्वां सखायमिवाचरतः पुरुषान् (यत्) येन (आविथ) रक्षितवानसि (चकर्थ) कृतवानसि (कारम्) करोतः-घञ्। यत्नः (एभ्यः) पूर्वोक्तेभ्यः (पृतनासु) वीपतिभ्यां तनन्। उ० ३।१। पृङ् व्यायामे-तनन्, कित्, टाप्। पृतनाः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्येषु (प्रवन्तवे) तुमर्थे तवेन्। प्रकर्षेण वनितुं सेवितुम्। (ते) पूर्वोक्तः (अन्यामन्याम्) भिन्नां भिन्नाम् (नद्यम्) णद अव्यक्ते शब्दे स्तुतौ च-पचाद्यच् ङीप्। नदतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। नद स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। नदीम्। पूजनीयां क्रियाम् (सनिष्णत) षण सम्भक्तौ-लेट्। सिब्बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप् इट् श्नाप्रत्ययश्च। आत्मनेपदेष्वनतः। पा० ७।१।। इति झस्य अदादेशे। श्नाभ्यस्तयोरातः। पा० ६।४।११२। इत्याकारलोपः। टेरेत्वाभावः। संभजेयुः। सेवन्ताम् (श्रवस्यन्तः) श्रवस्-क्यच्, शतृ। कीर्तिमिच्छन्तः (सनिष्णत) सेवताम् ॥
विषय
'उशिक् सखीयन्' पुरुषों का विलक्षण ऐश्वर्य
पदार्थ
१. हे (वृषन्) = शक्तिशालिन् प्रभो! (यत्) = जब आप (उशिज:) = मेधावी पुरुषों को (आविथ) = रक्षित करते हो, (यत्) = जब, (सखीयत:) = आपके मित्रत्व की कामना करते हुए इनको (आविथ) = आप रक्षित करते हो तब ये लोग (आत् इत्) = शीघ्र ही (मदेषु) = उल्लासों की प्राप्ति के निमित्त (ते अस्य वीर्यस्य) = आपकी इस शक्ति का (चक्रिरन्) = अपने अन्दर प्रक्षेप करते हैं। आपकी उपासना से आपकी शक्ति को अपने में संचरित करते हैं। २.हे प्रभो! आप (एभ्य:) = इन 'उशिकु. सखीयन् पुरुषों के लिए (पृतनासु प्रवन्तवे) = संग्रामों में शत्रुओं को जीतने के लिए (कारं चकर्थ) = क्रियाशीलता का निर्माण करते हैं। इनके जीवनों को क्रियाशील बनाकर आप इन्हें शत्रुविजय में समर्थ करते हैं। ३. (ते) = वे क्रियाशील पुरुष (अन्याम् अन्याम्) = विलक्षण व प्रतिविलक्षण (नद्यम्) = समृद्धि को [नदि समृद्धी] (सनिष्णत) = प्राप्त करते हैं। (श्रवस्यन्तः) = आपका यशोगान करते हुए ये (सनिष्णत) = समृद्धि प्राप्त करते हैं। कामविध्वंस द्वारा शरीर का स्वास्थ्य प्राप्त करते हैं, क्रोध नाश से मानस शान्ति को पाते हैं तथा लोभ-विलय से ये बुद्धि की सूक्ष्मतावाले बनते हैं।
भावार्थ
मेधावी पुरुष प्रभु की शक्ति से अपने को शक्ति-सम्पन्न करते हैं। क्रियाशीलता द्वारा काम आदि शत्रुओं का विध्वंस करते हैं। इसप्रकार ये 'स्वास्थ्य, मानसशान्ति व बुद्धि सूक्ष्मता' रूप ऐश्वयों को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार 'मेधाविता व प्रभुमित्रता' के द्वारा वसुओं का क्रमण [प्राप्ति] करनेवाला यह 'वसुक्र' [वसूनि क्रामति] बनता है। 'वसुक्र' ही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(वृषन्) हे आनन्दरसवर्षी परमेश्वर! (यद्) जब आप, (उशिजः) आपकी प्राप्ति की कामनावाले मेधावी उपासकों की (आविथ) रक्षा करते हैं, (यद् सखीयतः) और जब सखिभूत इन उपासकों की (आविथ) रक्षा करते हैं, (आत् इत्) तब (मदेषु) भक्तिरसों की मस्तियों में आकर ये उपासक, (ते) आप के (अस्य) इस (वीर्यस्य) सामर्थ्य की (चर्किरन्) सर्वत्र चर्चा करते हैं। (पृतनासु) देवासुर-संग्रामों के उपस्थित हो जाने पर आप, (एभ्यः) इन कामनावालों और अपने सखियों के लिए (कारम्) नई-नई क्रियाशक्ति (चकर्थ) प्रदान करते हैं, (प्रवन्तवे) ताकि ये अधिकाधिक भक्ति-प्रवण हो सकें। तब (ते) वे (अन्याम्-अन्याम्) प्रतिदिन की नई-नई (नद्यम्) भक्तिरस-रसीली चित्त-नदियों में (सनिष्णत) स्नान करते रहते हैं। और (श्रवस्यन्तः) यशस्वी बनकर (सनिष्णत) अधिकाधिक स्नान करते हैं।
टिप्पणी
[नद्यम्=नद्याम्।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord of generosity, people loving and dedicated to you in their moods of joy praise and celebrate this valour and justice of yours, since you protect and promote them, yes, promote and advance them, so friendly to you and to all as they are. You work wonders for them in their battles of life and production for proper distribution and participation while they, desiring their share of food and wealth, rightfully hope to gain one thing after another of the flow of national wealth.
Translation
For so, O strong one, the men frequently know of this power of yours where by you protect the men of enlightenment and men desirous to gain your communion at the time of prayers and righteous performences. For these men amongst other people (Pritanah). You have made conveying means to serve them and the men desiring glory adopt one after another way of devotion to you.
Translation
For so, O strong one, the men frequently know of this power of yours whereby you protect the men of enlightenment and men desirous to gain your communion at the time of prayers and righteous performances. For these men amongst other people (Pritanah). You have made conveying means to serve them and the men desiring glory adopt one after another way of devotion to you.
Translation
After this, they, the yogis (i.e., disciple) spread this power of thine (Lei, the perfect yogi) by extolling it, when thou, O inspirer of happiness and joy in the hearts of those, who desire your company and friendship and whom you get and protect in everyway. Then you induce in them the capability, of enjoying more glorious fortunes in superior states of meditation full of bliss. Thereafter they, desirous of greater and greater glory attain to one stream after another of spiritual grandeur and dip deep into these.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(आत्) अतः (इत्) एव (ते) तव (अस्य) द्वितीयार्थे षष्ठी। तत्। वक्ष्यमाणम् (वीर्यस्य) सामर्थ्यम्, (चर्किरन्) कॄ विक्षेपे हिसायां विज्ञाने च, यङ्लुगन्तात् लङ्, अडभावः। ज्ञातवन्तः (मदेषु) हर्षेषु (वृषन्) बलिष्ठ। परमात्मन् (उशिजः) अ० २०।११।४। शुभगुणान् कामयमानान् मेधाविनः (यत्) येन वीर्येण (आविथ) रक्षितवानसि (सखियतः) उपमानादाचारे। पा० ३।१।१०। सखि-क्यच्, शतृ। न च्छन्दस्यपुत्रस्य। पा० ७।४।३। इति दीर्घनिषेधः त्वां सखायमिवाचरतः पुरुषान् (यत्) येन (आविथ) रक्षितवानसि (चकर्थ) कृतवानसि (कारम्) करोतः-घञ्। यत्नः (एभ्यः) पूर्वोक्तेभ्यः (पृतनासु) वीपतिभ्यां तनन्। उ० ३।१। पृङ् व्यायामे-तनन्, कित्, टाप्। पृतनाः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्येषु (प्रवन्तवे) तुमर्थे तवेन्। प्रकर्षेण वनितुं सेवितुम्। (ते) पूर्वोक्तः (अन्यामन्याम्) भिन्नां भिन्नाम् (नद्यम्) णद अव्यक्ते शब्दे स्तुतौ च-पचाद्यच् ङीप्। नदतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। नद स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। नदीम्। पूजनीयां क्रियाम् (सनिष्णत) षण सम्भक्तौ-लेट्। सिब्बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप् इट् श्नाप्रत्ययश्च। आत्मनेपदेष्वनतः। पा० ७।१।। इति झस्य अदादेशे। श्नाभ्यस्तयोरातः। पा० ६।४।११२। इत्याकारलोपः। टेरेत्वाभावः। संभजेयुः। सेवन्ताम् (श्रवस्यन्तः) श्रवस्-क्यच्, शतृ। कीर्तिमिच्छन्तः (सनिष्णत) सेवताम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরোপাসনোদেশঃ
भाषार्थ
(বৃষন্) হে মহাবলী ! [পরমেশ্বর] (আৎ) এ কারণে (ইৎ) অবশ্যই (তে) আপনার (অস্য) সেই প্রসিদ্ধ (বীর্যস্য) সামর্থ্যকে (চর্কিরন্) তাঁরা [মনুষ্যগণ] (বার-বার জ্ঞাত হয়েছে), (যৎ) যে [সামর্থ্য] দ্বারা (মদেষু) আনন্দ-হর্ষের মধ্যে (উশিজঃ) শুভ গুণ কামনাকারী বুদ্ধিমানদের (আবিথ) আপনি রক্ষা করেছেন, (যৎ) যে [সামর্থ্য] দ্বারা (সখিয়তঃ) আপনাকে মিত্রের ন্যায় জ্ঞাতাদের (আবিথ) আপনি ত্রাণ করেছেন। এবং (এভ্যঃ) এসকল [লোকেদের] জন্য (পৃতনাসু) মনুষ্যদের মধ্যে (প্রবন্তবে) সেবা করার (কারম্) প্রচেষ্টা (চকর্থ) আপনি করেছেন, (শ্রবস্যন্তঃ) কীর্তি অভিলাষী (তে) তাঁরা (অন্যামন্যাম্) পৃথক-পৃথক (নদ্যম্) পূজার যোগ্য ক্রিয়া (সনিষ্ণত) সেবন করুক, (সনিষ্ণত) সেবন করুক ॥৩॥
भावार्थ
বিদ্বানগণ পরমাত্মার সামর্থ্যের বিবিধ প্রকারে উপলব্ধিপূর্বক একত্রে মিলিত হয়ে অথবা পৃথক্-পৃথক্ ভাবে শুভ গুণ প্রাপ্তির মাধ্যমে সামর্থ্য বৃদ্ধি করে/করুক ॥৩॥
भाषार्थ
(বৃষন্) হে আনন্দরসবর্ষী পরমেশ্বর! (যদ্) যখন আপনি, (উশিজঃ) আপনার প্রাপ্তির কামনাকারী মেধাবী উপাসকদের (আবিথ) রক্ষা করেন, (যদ্ সখীয়তঃ) এবং যখন সখিভূত এই উপাসকদের (আবিথ) রক্ষা করেন, (আৎ ইৎ) তখন (মদেষু) ভক্তিরসের আনন্দে এই উপাসক, (তে) আপনার (অস্য) এই (বীর্যস্য) সামর্থ্যের (চর্কিরন্) সর্বত্র চর্চা করে। (পৃতনাসু) দেবাসুর-সংগ্রাম উপস্থিত হলে আপনি, (এভ্যঃ) এই কামনাযুক্ত এবং নিজের সখীদের জন্য (কারম্) নতুন-নতুন ক্রিয়াশক্তি (চকর্থ) প্রদান করেন, (প্রবন্তবে) যাতে তাঁরা অধিকাধিক ভক্তি-প্রবণ হয়। তখন (তে) তাঁরা (অন্যাম্-অন্যাম্) প্রতিদিনের নতুন-নতুন (নদ্যম্) ভক্তিরস-রসালো চিত্ত-নদীতে (সনিষ্ণত) স্নান করতে থাকে। এবং (শ্রবস্যন্তঃ) যশস্বী হয়ে (সনিষ্ণত) অধিকাধিক স্নান করে।
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