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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपो देवता सूक्त
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    यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत। तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । प्रऽइ॑षिता: । वरु॑णेन । आत् । शीभ॑म् । स॒म्ऽअव॑ल्गत । तत् । आ॒प्नो॒त् । इन्द्र॑: । व॒: । य॒ती: । तस्मा॑त् । आप॑: । अनु॑ । स्थ॒न॒ ॥१३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनु ष्ठन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । प्रऽइषिता: । वरुणेन । आत् । शीभम् । सम्ऽअवल्गत । तत् । आप्नोत् । इन्द्र: । व: । यती: । तस्मात् । आप: । अनु । स्थन ॥१३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जल के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (आत्) फिर (वरुणेन) सूर्य करके (प्रेषिताः) भेजे हुए तुम (शीभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर चलो, (तत्) तव (इन्द्रः) जीव ने [वा सूर्य ने] (यतीः) चलते हुए। (वः) तुमको (आप्नोत्) प्राप्त किया (तस्मात्) उससे (अनु) पीछे (आपः) प्राप्तियोग्य जल [नाम] (स्थन) तुम हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में ‘आप्नोत्’ और ‘आपः’ शब्द एक ही धातु ‘आप्लृ व्याप्तौ’ से सिद्ध है। जब सूर्य की शक्ति से जल भूमि पर आकर फैलता है, तब जीव उसे पाता है, [और सूर्य भी फिर से लेता है] इससे जल का नाम ‘आपः’ पाने योग्य वस्तु है। ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्)। यदा। (प्रेषिताः)। इष गतौ-क्त। प्रेरिताः। (वरुणेन)। वरणीयेन सूर्येण। (आत्)। अनन्तरम्। (शीभम्)। शीभ कत्थने-घञ्। क्षिप्रम्-निघ० २।१५। (समवल्गत)। वल्ग गतौ-लङ्, भौवादिकः। यूयं सम्भूय गतवत्यः। (तत्)। तदा। (आप्नोत्)। आप्लृ व्याप्तौ-लङ्। प्राप्तवान्। (इन्द्रः)। जीवः। सूर्यः। (वः)। युष्मान्। (यतीः)। इण् गतौ-शतृ। गमनं कुर्वतीः। (तस्मात्)। (आपः)। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। अप्तृन्तृच्० पा० ६।४।११। इति सर्वनामस्थाने दीर्घः। आप आप्नोतेः-निरु० ९।२६। प्राप्तव्यानि जलानि। (अनु)। पश्चात्। (स्थन)। यूयं स्थ ॥

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    विषय

    'आप्यन्ते इति''आपः'

    पदार्थ

    (यत्) = जब (वरुणेन) = जलों के अधिष्ठातृदेव वरुण प्रभु से (प्रेषिता) = भेजे हुए तुम (आत्) = उस समय (शीभम्) = शीघ्न (सम् अवल्गत) = सम्यक् गतिवाले होते हो, (तत्) = तब (यती:) = जाते हुए (व:) = तुम्हें (इन्द्रः आप्नोत) = इन्द्रियों का स्वामी जीव प्राप्त करता है, (तस्मात्) = उस कारण से (आप:) ='आप:' इस नामवाले (अनुस्थन) = होते हो। इन्हें इन्द्र-जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राप्त करता है। आधिभौतिक जगत् में प्रभु से प्राप्त कराये गये जलों को इन्द्र-राजा नहरों आदि के रूप में प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    प्रभु से प्रेरित जलों को इन्द्र प्राप्त करता है। प्राप्त किये जाने के कारण इनका नाम 'आप:' हो गया है [आप्नोति, प्राप्नोति]।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (वरुणेन) वरुण देवता या आकाश का आवरण करनेवाले मेघ द्वारा (प्रेषिताः) प्रेरित हुए या भेजे गये हे आपः ! (शुभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर तुम गति करते हो, (तत्) तो (वः) तुम्हें (यती:) चलती हुई को (इन्द्रः) आदित्य (आप्नोत्) प्राप्त करता है, (तस्मात्) उस कारण से (आपः) हे जलो! (अनु) तत्पश्चात् (आपः स्तन) "आपः" तुम हो।

    टिप्पणी

    [वरुण है अपांपतिः (अथर्व० ५।२४।४) अथवा "वरुणः" आकाश का आवरण करनेवाला मेघशीभम् क्षिप्रनाम (निघं० २।१५)। अवल्गत=वल्गु गत्यर्थः (भ्वादि:)। वर्षा के पश्चात् आप: जब मिलकर गति करते हैं, प्रवाहित होते हैं, तदनन्तर आदित्य निज रश्मियों द्वारा इन्हें प्राप्त करता है, मेघरुप में परिणत करता है। "आपन" क्रिया के कारण "आप:" नाम हुआ है। मन्त्र में "आप:" का निर्वचन हुआ है।]

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    विषय

    जलों के नामों के निर्वाचन ।

    भावार्थ

    (यत्) जब (वरुणेन) पृथ्वी पर आवरण करने हारे मेघ द्वारा (प्रेषिताः) प्रेरित होकर (शीभं) शीघ्र ही (सम् अवल्गत) गति करते हो (तत्) तब (वः यतीः) गति करते हुए तुम में (इन्द्रः) विद्युत् (आप्नोत्) व्याप्त हो जाता है (तस्माद्) इसलिये तुम (आपः) ‘आपः’ (अनु स्तन) इस नाम से पुकारे जाते हो ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘सम्प्रच्युता वरुणेन यत्’ इति मै० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः । वरुणः सिन्धुर्वा देवता । १ निचृत् । ५ विराड् जगती । ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४, ७ अनुष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Water

    Meaning

    Activated by Varuna, the sun, in the region of light, you move fast together, then Indra, electric energy in the middle regions, receives and joins you for catalysis, and thereby catalysed, you become ‘apah’, i.e., waters received and pervaded by electricity. Therefore you are ‘apah’, received, pervaded and worth receiving.

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    Translation

    Term "āpah" - As you, urged by the venerable Lord _ (varuna), surround all swiftly, as if dancing in a group, and the resplendent one enters you when you are going away, so you get your name āpah (those that enter, or are entered into). (āpnot leads to the name āpah. šībham = ksipra nama; kurā

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    Translation

    As these waters driven by the air swiftly move forth and flowing violently contain in them the current of electricity, therefore they are named Apah, the waters.

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    Translation

    As driven forth by the Sun, ye swiftly urged your roaring waves, there the Sun reached you as you flowed: hence your name is Apa (waters).

    Footnote

    In this verse both the words आप्नोत् and आप: are formed from the same root आपः to obtain, attain, get. Sun sends the rain and fills the streams with waters, it again reaches or obtains them through its rays, hence waters are named आपःas they are obtained by the Sun.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्)। यदा। (प्रेषिताः)। इष गतौ-क्त। प्रेरिताः। (वरुणेन)। वरणीयेन सूर्येण। (आत्)। अनन्तरम्। (शीभम्)। शीभ कत्थने-घञ्। क्षिप्रम्-निघ० २।१५। (समवल्गत)। वल्ग गतौ-लङ्, भौवादिकः। यूयं सम्भूय गतवत्यः। (तत्)। तदा। (आप्नोत्)। आप्लृ व्याप्तौ-लङ्। प्राप्तवान्। (इन्द्रः)। जीवः। सूर्यः। (वः)। युष्मान्। (यतीः)। इण् गतौ-शतृ। गमनं कुर्वतीः। (तस्मात्)। (आपः)। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। अप्तृन्तृच्० पा० ६।४।११। इति सर्वनामस्थाने दीर्घः। आप आप्नोतेः-निरु० ९।२६। प्राप्तव्यानि जलानि। (अनु)। पश्चात्। (स्थन)। यूयं स्थ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যৎ) যে (বরুণ) বরুণ দেবতা বা আকাশের আবরণকারী মেঘ দ্বারা (প্রেষিতাঃ) প্রেরিত হে আপঃ ! (শীভম্) শীঘ্র (সমবল্গত) একসাথে তোমরা যাও/চলো/গমনকারী/গতিশীল, (তৎ) তবে (বঃ) তোমাদের (যতীঃ) চলন/গমন-কে (ইন্দ্রঃ) আদিত্য (আপ্নোৎ) প্রাপ্ত করে, (তস্মাৎ) সেই কারণে (আপঃ) হে জল-সমূহ! (অনু) তদনন্তর (আপঃ স্তন) "আপঃ" তোমরা হও।

    टिप्पणी

    [বরুণ হলো অপাংপতিঃ (অথর্ব০ ৫।২৪।৪) অথবা "বরুণঃ" আকাশের আবরণকারী মেঘ শীভম্ ক্ষিপ্রনাম (নিঘং০ ২।১৫)। অবল্গত =বল্গু গত্যর্থঃ (ভ্বাদিঃ)। বর্ষার পরে আপঃ যখন একসাথে প্রবাহিত হয়, তদনন্তর আদিত্য নিজ রশ্মির দ্বারা ইহাকে প্রাপ্ত করে, মেঘরূপে পরিণত করে। "আপন" ক্রিয়ার কারণে "আপঃ" নাম হয়েছে। মন্ত্রে "আপঃ" এর ব্যাখা হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    অপাং গুণা উপদিশ্যন্তেঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (আৎ) পুনরায় (বরুণেন) সূর্য দ্বারা (প্রেষিতাঃ) প্রেরিত তোমরা (শীভম্) শীঘ্র (সমবল্গত) একসাথে চলো, (তৎ) তখন (ইন্দ্রঃ) জীব [বা সূর্য] (যতীঃ) গমনশীল (বঃ) তোমাদের (আপ্নোৎ) প্রাপ্ত করেছে, (তস্মাৎ) তার (অনু) পরে (আপঃ) প্রাপ্তিযোগ্য জল [নাম] (স্থন) তোমরা হও ॥২॥

    भावार्थ

    এই মন্ত্রে ‘আপ্নোৎ’ ও ‘আপঃ’ শব্দ একই ধাতু ‘আপ্লৃ ব্যাপ্তৌ’ থেকে সিদ্ধ। যখন সূর্যের শক্তি দ্বারা জল ভূমিতে এসে বিস্তারিত হয়, তখন জীব তা প্রাপ্ত করে, [এবং সূর্যও আবার গ্রহণ করে] ফলে জলের নাম ‘আপঃ’ পাওয়ার যোগ্য বস্তু। ‘আপঃ’ শব্দ নিত্য স্ত্রীলিঙ্গ বহুবচনান্ত ॥২॥

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