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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृगुः देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - आपो देवता सूक्त
    0

    आपो॑ भ॒द्रा घृ॒तमिदाप॑ आसन्न॒ग्नीषोमौ॑ बिभ्र॒त्याप॒ इत्ताः। ती॒व्रो रसो॑ मधु॒पृचा॑मरंग॒म आ मा॑ प्रा॒णेन॑ स॒ह वर्च॑सा गमेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । भ॒द्रा: । घृ॒तम् । इत् । आप॑: । आ॒स॒न् । अ॒ग्नीषोमौ॑ । बि॒भ्र॒ती॒ । आप॑: । इत् । ता: । ती॒व्र: । रस॑: । म॒धु॒ऽपृचा॑म् । अ॒र॒म्ऽग॒म: । आ । मा॒ । प्रा॒णेन॑ । स॒ह । वर्च॑सा । ग॒मे॒त् ॥१३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोमौ बिभ्रत्याप इत्ताः। तीव्रो रसो मधुपृचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । भद्रा: । घृतम् । इत् । आप: । आसन् । अग्नीषोमौ । बिभ्रती । आप: । इत् । ता: । तीव्र: । रस: । मधुऽपृचाम् । अरम्ऽगम: । आ । मा । प्राणेन । सह । वर्चसा । गमेत् ॥१३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जल के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) जल (भद्राः) मङ्गलमय और (आपः) जल (इत्) ही (घृतम्) घृत (आसन्) था। (ताः) वह (इत्) ही (आपः) जल (अग्नीषोमौ) अग्नि और चन्द्रमा को (बिभ्रति) पुष्ट करता है। (मधुपृचाम्) मधुरता से भरी [जल धाराओं] का (अरंगमः) परिपूर्ण मिलनेवाला, (तीव्रः) तीव्र [तीक्ष्ण, शीघ्र प्रवेश होनेवाला] (रसः) रस (मा) मुझको (प्राणेन) प्राण और (वर्चसा सह) कान्ति वा बल के साथ (आ गमेत्) आगे ले चले ॥५॥

    भावार्थ

    जल से घृत सारमय पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जल अग्नि अर्थात् जठराग्नि, बिजुली, बड़वानल आदि और चन्द्रलोक से मिलकर हमें पुष्टि देता है और कृषि आदि में प्रयुक्त होकर अन्नादि उत्पन्न करके प्राणियों का बल और तेज बढ़ाता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(आपः)। प्रापणीयं जलम्। (भद्राः)। भदि कल्याणकारणे-रक्। मङ्गलप्रदाः। (घृतम्)। घृतवत् सारवस्तु। (इत्)। एव। (आसन्)। अभवन्। (अग्नीषोमौ)। ईदग्नेः सोमवरुणयोः। पा० ६।३।२७। इति ईत्वम्। अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः। पा० ८।३।८२। इति षत्वम्। अग्निं च सोमं चन्द्रं च। (बिभ्रति)। धारयन्ति। (तीव्रः)। ऋजेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति बाहुलकात्। तिज तीक्ष्णीकरणे-रन्, जस्य वो दीर्घत्वं च। तीक्ष्णम्। (रसः)। सारः। मधुपृचाम्। पृची संपर्के-क्विप्। मधुना रसेन संपृक्तानाम्। (अरंगमः)। अलंगमः। पर्याप्तगमनः। अक्षीणाः। (प्राणेन)। जीवनेन। (मा)। माम्। (वर्चसा)। तेजसा। बलेन। (आ गमेत्)। आगमयेत्, प्रापयेत् ॥

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    विषय

    प्राणेन वर्चसा सह

    पदार्थ

    १. (आप:) ये जल भद्रा:-भन्दनीय [स्तुत्य] व कल्याणकर हैं। अग्निकुण्ड में आहुतिरूपेण डाले हुए (घृतम् इत्) = घृत ही (आपः असन्) = जलरूप हो जाते हैं [अग्नी प्रास्ताहुतिः सम्यगा दित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिः । -मनु० ३.७६]। (ता: आप:) = ये जल (इत्) = निश्चय से (अग्नीषोमो बिभ्रति) = अग्नि व सोमतत्त्वों को धारण करते हैं। सूर्य-किरणों के सम्पर्क से ये अग्नितत्त्व को धारण करते हैं और चन्द्र-किरणों के सम्पर्क से सोमतत्त्व को धारण करनेवाले होते हैं। २. (मधुपचाम्) = मधुर रस से संपृक्त जलों का (रस:) = रस (तीव:) = रोगकृमियों के लिए अतितीक्ष्ण है। यह (अरंगम:) = पर्याप्त गमनवाला-कभी क्षीण न होनेवाला है। यह रस (प्राणेन) = प्राणशक्ति के साथ अथवा चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ [प्राणा वाव इन्द्रियाणि] तथा (वर्चसा सह) = वर्चस् [vitality] के साथ (मा आगमेत्) = मुझे प्राप्त हो।

    भावार्थ

    जल कल्याणकर हैं। अग्निकुण्ड में आहुत घृत ही जल बन जाते हैं। इनमें अग्नि व सोमतत्त्वों का समावेश होता है। इनका तीन रस रोगकृमियों को नष्ट करता हुआ मुझे प्राण व वर्चस् प्राप्त कराए।

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    भाषार्थ

    (आप:) जल (भद्राः) कल्याणकारी तथा सुखदायी हैं, (आप:) जल (घृतम् इत् आसन) घृत ही हैं। (आप:) जल (अग्निषोमौ) अग्नि और सोम रूप (आसन्) थे, (ता: आपः इत्) वे आपः ही (विभ्रति) इन दो अग्नि और सोम का धारण करते हैं। (मधुपृचाम्) मधुसम्पृक्त आपः का (तीव्रः रसः) तीव्र रस (अरंगम) पर्याप्त रूप में प्राप्त होता हुआ, (प्राणेन वर्चसा सह) प्राण और वर्चस् के साथ (मा) मुझे (आ गमेत्) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [आपः घृतम्=गौएँ जल पीती हैं तो उनका दूध भी आप: प्रधान होता है, जिसमें कि घृत प्रच्छननरूप में विद्यमान होता है—सम्भवत: यह अभिप्राय हो। अग्नीषोमौ विभ्रति=आप: में अग्नि और सोम हैं। मेघों में विद्युत चमकती है, जोकि अग्निरूप है, इसके प्रपात से वृक्ष आदि भस्मीभूत हो जाते हैं। परन्तु मेघ जब बरसता है तो उसका वर्षा जल शीत होता है, सौम्यरूप होता है, यह आपः में सोम की सत्ता है। मधुपृचाम्=मधुरदुग्ध से सम्पृक्त गौओं का तीव्ररस है दुग्ध। इसके पर्याप्त पान करने से प्राणशक्ति बढ़ती और वर्चस् अर्थात् मुख और शरीर में दीप्ति प्राप्त होती है। यथा "यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदभ्रीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम्" (अथर्व० ४।२१।६)। "आपः घृतम्" में, कारण में कार्य का उपचार है। आपः है कारण और घृतम् है कार्य।]

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    विषय

    जलों के नामों के निर्वाचन ।

    भावार्थ

    (भद्रा) कल्याणकारिणी, सुखदायिनी (आपः) आपः = जल ही (घृतम् इत्) घृत-तेज = कान्ति देने हारे, पौष्टिक पदार्थ (आसन्) हैं । (ताः इत्) वे ही (आपः) आपः = जल (अग्निषोमौ) अग्नि और सोम दोनों को (बिभ्रति) धारण करते हैं (मधुपृचाम्) जीवन, अमृत से युक्त तुम जलों का (तीव्रः रसः) तीव्र रस (अरंगमः) खूब उत्तम रीति से मिल जाने वाला (प्राणेन वर्चसा सह) मेरे प्राण और वर्चस्-तेज के साथ (मा आ गमेत्) मुझे भी प्राप्त हो । जलों का अग्नि स्वरूप अंश=उद्जन (Hydrozen) जो स्वयं ज्वलनशील है और जो तेजाब बनाने में आवश्यक अंग है, जल का दूसरा अंश सोमस्वरूप-ओक्सीजन (Oxizen) है जो ‘ओष’ उत्पन्न करता है अर्थात् ज्वलन में सहायक है वह स्वयं नहीं जलता । वह ओषधियों में ‘ओष’ उत्पन्न करने से सोमात्मक है। जिन में से उद्जन स्वतः ज्वलनशील होने से घृतरूप है । और आक्सीजन भी पुष्टिदायक होने से ‘घृतस्वरूप’ है । यह इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘मिदाप आासुरग्नी’ (च०) ‘वर्चसागन्’ तै० सं०। (प्र०) ‘आपोदेवीघृतमिन्वा उ आपः’ मै० सं० । ‘आपो देवीघृतमितामाहुरग्नी’ (द्वि०) ‘इत्याः’ (तृ०) ‘गमामाप्रा’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः । वरुणः सिन्धुर्वा देवता । १ निचृत् । ५ विराड् जगती । ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४, ७ अनुष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Water

    Meaning

    Waters are good and auspicious, they are ghrta, givers of splendour. They bear Agni and Soma, heat and cold, oxygen and hydrogen, positive and negative electric currents. May the inspiring spirit of these honeyed waters come to me auspiciously and bless me with pranic energy and splendid aura of personality.

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    Translation

    Term "ghrta" - The waters are excellent. The waters are verily the purified butter, and those waters sustain the fire and the herbal sap. May the potent essence of honey-sweet waters, never diminishing in effect, unite (conjoin) me with vital breath as well as with lustre.

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    Translation

    The waters are good and full of splendor. They contain in them Agni and Soma, the Oxygen and hydrogen or heat and cold or positive and negative electricity. May strong affluence of the waters scattering sweetness be helpful to us with vitality and Vigor.

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    Translation

    Water is propitious. Water verily is the enhancer of power. Hydrogen and oxygencompose water. May the satiating, strong juice of water filled with sweetness, come helpful unto me with life and vigor.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(आपः)। प्रापणीयं जलम्। (भद्राः)। भदि कल्याणकारणे-रक्। मङ्गलप्रदाः। (घृतम्)। घृतवत् सारवस्तु। (इत्)। एव। (आसन्)। अभवन्। (अग्नीषोमौ)। ईदग्नेः सोमवरुणयोः। पा० ६।३।२७। इति ईत्वम्। अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः। पा० ८।३।८२। इति षत्वम्। अग्निं च सोमं चन्द्रं च। (बिभ्रति)। धारयन्ति। (तीव्रः)। ऋजेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति बाहुलकात्। तिज तीक्ष्णीकरणे-रन्, जस्य वो दीर्घत्वं च। तीक्ष्णम्। (रसः)। सारः। मधुपृचाम्। पृची संपर्के-क्विप्। मधुना रसेन संपृक्तानाम्। (अरंगमः)। अलंगमः। पर्याप्तगमनः। अक्षीणाः। (प्राणेन)। जीवनेन। (मा)। माम्। (वर्चसा)। तेजसा। बलेन। (आ गमेत्)। आगमयेत्, प्रापयेत् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (আপঃ) জল (ভদ্রাঃ) কল্যাণকারী ও সুখদায়ী, (আপঃ) জল (ঘৃতম্ ইতি আসন্) ঘৃতই। (আপঃ) জল (অগ্নিষোমৌ) অগ্নি ও সোমরূপ (আসন্) ছিল, (তাঃ আপঃ ইৎ) সেই আপঃ ই (বিভ্রতি) এই উভয় অগ্নি ও সোমকে ধারণ করে। (মধুপৃচাম্) মধুসম্পৃক্ত আপঃ-এর (তীব্রঃ রসঃ) তীব্র রস (অরংগমঃ) পর্যাপ্তরূপে প্রাপ্ত হয়ে, (প্রাণেন বর্চসা সহ) প্রাণ ও বর্চস্ সহিত (মা) আমাকে (আ গমেৎ) প্রাপ্ত হোক।

    टिप्पणी

    [আপঃ ঘৃতম্= গাভী জল পান করে তাই তাদের দূধও আপঃ প্রধান হয়, যার মধ্যে ঘৃত প্রচ্ছন্নরূপে বিদ্যমান থাকে-সম্ভবতঃ এই অভিপ্রায়। অগ্নীষোমৌ বিভ্রতি= আপঃ-এর মধ্যে অগ্নি এবং সোম আছে। মেঘের মধ্যে বিদ্যুৎ চমকিত হয়, যা অগ্নিরূপ, বজ্রপাতের ফলে বৃক্ষ আদি ভস্মীভূত হয়ে যায়। কিন্তু মেঘ যখন বর্ষণ করে তখন তার বর্ষা-জল ঠান্ডা হয়, সৌম্যরূপ হয়, ইহা হলো আপঃ-এর মধ্যে সোম-এর সত্তা। মধুপৃচাম্= মধুরদুগ্ধ থেকে সম্পৃক্ত গাভীদের তীব্ররস হলো দুগ্ধ। ইহার পর্যাপ্ত পান করলে প্রাণশক্তি বৃদ্ধি হয় এবং বর্চস অর্থাৎ মুখ ও শরীরে দীপ্তি প্রাপ্ত হয়। যথা "যূয়ং গাবো মেদয়থা কৃশং চিদশ্রীরং চিৎ কৃণুথা সুপ্রতীকম্" (অথর্ব০ ৪।২১।৬)। "আপঃ ঘৃতম্" এ, কারণের মধ্যে কার্যের উপচার রয়েছে। আপঃ হলো কারণ এবং ঘৃতম্ হলো কার্য।]

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    मन्त्र विषय

    অপাং গুণা উপদিশ্যন্তেঃ

    भाषार्थ

    (আপঃ) জল (ভদ্রাঃ) মঙ্গলময় এবং (আপঃ) জল (ইৎ)(ঘৃতম্) ঘৃত (আসন্) ছিল। (তাঃ) সেই (ইৎ)(আপঃ) জল (অগ্নীষোমৌ) অগ্নি ও চন্দ্রকে (বিভ্রতি) পুষ্ট করে। (মধুপৃচাম্) মধুরতাপূর্ণ [জল ধারা] এর (অরংগমঃ) পরিপূর্ণ প্রাপ্তকারী, (তীব্রঃ) তীব্র [তীক্ষ্ণ, শীঘ্র প্রবেশকারী] (রসঃ) রস (মা) আমাকে (প্রাণেন) প্রাণ ও (বর্চসা সহ) কান্তি বা শক্তির সাথে (আ গমেৎ) অগ্রগামী করুক॥৫॥

    भावार्थ

    জল থেকে ঘৃত সারময় পদার্থ উৎপন্ন হয়, জল অগ্নি অর্থাৎ জাঠরাগ্নি, বিদুৎ, বড়বানল/সমুদ্রের অভ্যন্তরস্থ অগ্ন্যাদি এবং চন্দ্রলোকের সাথে মিলিত হয়ে আমাদের পুষ্টি দেয় এবং কৃষ্যাদিতে প্রযুক্ত হয়ে অন্নাদি উৎপন্ন করে প্রাণীদের শক্তি ও তেজ বৃদ্ধি করে ॥৫॥

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