अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृगुः
देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपो देवता सूक्त
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आदित्प॑श्याम्यु॒त वा॑ शृणो॒म्या मा॒ घोषो॑ गच्छति॒ वाङ्मा॑साम्। मन्ये॑ भेजा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ तर्हि॒ हिर॑ण्यवर्णा॒ अतृ॑पं य॒दा वः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । प॒श्या॒मि॒ । उ॒त । वा॒ । शृ॒णो॒मि॒ । आ । मा॒ । घोष॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । वाक् । मा॒ । आ॒सा॒म् । मन्ये॑ । भे॒जा॒न: । अ॒मृत॑स्य । तर्हि॑ । हिर॑ण्यऽवर्णा: ।अतृ॑पन् । य॒दा । व॒: ॥१३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाङ्मासाम्। मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । इत् । पश्यामि । उत । वा । शृणोमि । आ । मा । घोष: । गच्छति । वाक् । मा । आसाम् । मन्ये । भेजान: । अमृतस्य । तर्हि । हिरण्यऽवर्णा: ।अतृपन् । यदा । व: ॥१३.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जल के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(आत्) तब (इत्) ही (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत) और (वा) अथवा (शृणोमि) मैं सुनता हूँ, (आसाम्) इसकी [जल के रस की] (घोषः) ध्वनि (मा) मुझे (आ गच्छति) आती है और (वाक्) वाक्शक्ति (मा) मुझे [आती है]। (हिरण्यवर्णाः) हे कमनीय पदार्थ वा सुवर्ण का विस्तार करनेवाले [जल]। (तर्हि) तभी (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) भोग करता हुआ मैं (मन्ये) अपने को मानूँ, (यदा) जब (वः) तुम्हारी (अतृपम्) तृप्ति मैंने पाई है ॥६॥
भावार्थ
जल के यथावत् प्रयोग से प्राणी में दर्शनशक्ति और श्रवणशक्ति और ‘घोष’ ध्वन्यात्मक शब्द और ‘वाक्’ वर्णात्मक शब्द बोलने की शक्ति होती है और तभी वह इष्ट सुवर्णादि धन की प्राप्ति से भूख आदि से मृत्युदुःख का त्याग करके अमृत अर्थात् आनन्द भोगता है ॥६॥
टिप्पणी
६−(आत् इत्)। अनन्तरमेव। (पश्यामि)। ईक्षे। (उत वा)। अपि वा। (शृणोमि)। आकर्णयामि। (मा)। माम्। (घोषः)। घुष स्तुतिविशब्दयोः-घञ्। ध्वन्यात्मकशब्दः। ध्वनिः। (आ गच्छति)। प्राप्नोति। (वाक्)। वर्णात्मकशब्दः। वाणी। (आसाम्)। अपाम्। जलस्य। (मन्ये)। जाने। तर्कयामि। (भेजानः)। भज सेवायां लिटः कानच्। तॄफलभजत्रपश्च। पा० ६।४।१२२। इति लिटि अकारस्य एत्वम् अभ्यासलोपश्च। भजमानाः सेवमानाः। (अमृतस्य)। मरणनाशकस्य। (सुखस्य)। (तर्हि)। तदा। (हिरण्यवर्णाः)। अ० १।३३।१। वर्ण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु-घञ्। हिरण्यस्य कमनीयपदार्थस्य सुवर्णस्य वा वर्णं विस्तारो याभिस्तास्तथाभूताः। तत्सम्बुद्धौ। (अतृपम्)। तृप तृप्तौ लङ्। तृप्तिं प्राप्तवानस्मि। (यदा)। (वः)। युष्माकम् ॥
विषय
पश्यामि शृणोमि
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब जलों का तीव्र रस प्राण व वर्चस के साथ मुझे प्राप्त होता है, तब (आत् इत्) = इसके पश्चात् शीघ्र ही (पश्यामि) = मैं आँखों से ठीक देखने लगता है. (उत वा) = और निश्चय से (शृणोमि) = कानों से सुनने लगता हूँ। उस समय (आसाम्) = इन जलों के रसगमन से (मा) = मुझे (घोषः) = उच्चार्यमाण शब्द (आगच्छति) = प्राप्त होता है और (वाक्) = वागिन्द्रिय इत्यादि कर्मेन्द्रियाँ भी (मा) = मुझे प्राप्त होती हैं। जलों के ठीक प्रयोग से सब ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ ठीक हो जाती हैं। २. हे (हिरण्यवर्णा:) = हितरमणीय वणों से युक्त जलो! (यदा) = जब (वः, अतृपम्) = तुम्हारे रस के सेवन से तृप्त होता हूँ (तर्हि) = तब (अमृतस्य भेजान:) = 'अमृत का ही सेवन कर रहा हूँ' इसप्रकार (मन्ये) = मानता हूँ [तर्कयामि]।
भावार्थ
जलों के रस के सेवन से मैं देखता हूँ, सुनता हूँ, बोलता हूँ और ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं अमृत का ही सेवन कर रहा हूँ-नीरोगता का अनुभव करता हूँ।
भाषार्थ
(आत् इत्) तदनन्तर (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत वा) तथा (शृणोमि) सुनता हूँ (मा) मुझे (घोषः) शब्द (आ गच्छति) प्राप्त होता है, (मा वाक्) तथा मुझे वाणी (आ गच्छति) प्राप्त होती है (आसाम्) इन आप: के [रसागमन से, मन्त्र ५]। (तहि) तब (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) सेवन करता हुआ (मन्ये) मैं अपने को मानता हूँ (यदा) जबकि (हिरण्यवर्णाः) हितरमणीयवर्ण वाले हे आपः! (व:) तुम्हारे सेवन से (अतृपम्) मैं तृप्त हो जाता हूँ।
टिप्पणी
[आत् इत्=मन्त्र ५ के अनुसार "तीव्र रस" के सेवन पश्चात् श्रवण आदि में शक्ति संचार हो जाने पर। भेजन:= भज सेवायाम् (भ्वादिः)।]
विषय
जलों के नामों के निर्वाचन ।
भावार्थ
(आत्) इसके अनन्तर (आसाम्) इनके बीच में से मैं (पश्यामि) आरपार भी देख लेता हूं (उत वा) और (आसाम) इनके बीच में से (शृणोमि) श्रवण भी कर सकता हूं । (घोषः) शब्द भी (आसाम्) इन जलों के बीच में से (मा) मुझ तक (आगच्छति) आ जाता है और (आसाम्) इन में से (वाक्) वाणी भी (मा) मुझ तक गुजर आती है। हे जलो ! हे (हिरण्यवर्णाः) अमृत-स्वरूप या शब्द और प्रकाश को हरण करने वाले परमाणुओं के बने जलो ! (यदा) जब (वः) तुम को (अतृपम्) प्राप्त करता हूं (तर्हि) तब वे अपने को (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) सेवन करता हुआ (मन्ये) मानता हूं । जल के तीन गुण दर्शाये हैं (१) ये पारदर्शक हैं अर्थात् किरणें इन में प्रवेश कर सकती हैं। चक्षु इनके भीतर देख सकती हैं । (२) ये शब्दवाही हैं अर्थात् शब्द को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देते हैं, (३) आरोग्यदायक होने से तृप्तिकारक और पुष्टिकारक हैं ।
टिप्पणी
‘वाग्मासाम्’ इति सायणसम्मतः पाठः । (द्वि०) ‘वाङ् न आसां’ इति तै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः । वरुणः सिन्धुर्वा देवता । १ निचृत् । ५ विराड् जगती । ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४, ७ अनुष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Water
Meaning
I see through the waters. I hear through them. Their sound comes to me. Voice goes through them. O waters of golden beauty, born of fire, air and akasha, when I drink your sweets to my pleasure and satisfaction, I feel I have had a feast of nectar.
Translation
I see them here and there, and I hear them. Their sound comes to me, as if it is their speech. O bright coloured waters, when I take you to my full satisfaction, I feel, as if I have tasted the nectar.
Translation
I see through the waters from one side to other, I hear, the sound through them, the sound comes to us by the medium of them and voice passes through them. I using these waters possessing the immortal transparency, realize that I am drinking nector.
Translation
Then verily, I see, yea, also bear them: their sound approaches me, their voice comes hither. O glittering waters, when I drink my fill of you I realize as if I am enjoying the elixir of life!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(आत् इत्)। अनन्तरमेव। (पश्यामि)। ईक्षे। (उत वा)। अपि वा। (शृणोमि)। आकर्णयामि। (मा)। माम्। (घोषः)। घुष स्तुतिविशब्दयोः-घञ्। ध्वन्यात्मकशब्दः। ध्वनिः। (आ गच्छति)। प्राप्नोति। (वाक्)। वर्णात्मकशब्दः। वाणी। (आसाम्)। अपाम्। जलस्य। (मन्ये)। जाने। तर्कयामि। (भेजानः)। भज सेवायां लिटः कानच्। तॄफलभजत्रपश्च। पा० ६।४।१२२। इति लिटि अकारस्य एत्वम् अभ्यासलोपश्च। भजमानाः सेवमानाः। (अमृतस्य)। मरणनाशकस्य। (सुखस्य)। (तर्हि)। तदा। (हिरण्यवर्णाः)। अ० १।३३।१। वर्ण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु-घञ्। हिरण्यस्य कमनीयपदार्थस्य सुवर्णस्य वा वर्णं विस्तारो याभिस्तास्तथाभूताः। तत्सम्बुद्धौ। (अतृपम्)। तृप तृप्तौ लङ्। तृप्तिं प्राप्तवानस्मि। (यदा)। (वः)। युष्माकम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(আৎ ইৎ) তদনন্তর (পশ্যামি) আমি দেখি, (উত বা) এবং (শৃণোমি) শ্রবণ করি/শুনি, (মা) আমাকে (ঘোষঃ) শব্দ (আ গচ্ছতি) প্রাপ্ত হয়, (মা বাক্) এবং আমাকে বাণী (আ গচ্ছতি) প্রাপ্ত হয় (আসাম্) এই আপঃ-এর [রসাগমন দ্বারা, মন্ত্র ৫]। (তর্হি) তখন (অমৃতস্য) অমৃতের (ভেজানঃ) সেবনকারী (মন্যে) আমি নিজেকে মান্য করি, (যদা) যেহেতু (হিরণ্যবর্ণাঃ) হিতরমণীয় বর্ণযুক্ত আপঃ ! (বঃ) তোমাদের সেবনে (অতৃপম্) তৃপ্ত হয়ে যাই।
टिप्पणी
[আৎ ইতি=মন্ত্র ৫-এর অনুসারে "তীব্র রস" সেবনের পরে শ্রবণ আদিতে শক্তি সঞ্চার হওয়ার পর। ভেজানঃ=ভজ সেবায়াম (ভ্বাদিঃ)।]
मन्त्र विषय
অপাং গুণা উপদিশ্যন্তেঃ
भाषार्थ
(আৎ) তখন (ইৎ) ই (পশ্যামি) আমি দেখি, (উত) এবং (বা) অথবা (শৃণোমি) আমি শুনি/শ্রবণ করি, (আসাম্) এর [জলের রসের] (ঘোষঃ) ধ্বনি (মা) আমার কাছে (আ গচ্ছতি) আসে এবং (বাক্) বাক্শক্তি (মা) আমার কাছে [আসে]। (হিরণ্যবর্ণাঃ) হে কমনীয় পদার্থ বা সুবর্ণ বিস্তারকারী [জল]। (তর্হি) তখনই (অমৃতস্য) অমৃতের (ভেজানঃ) ভোজনকারী/সেবনকারী আমি (মন্যে) নিজেকে মানবো/মান্য করবো, (যদা) যখন (বঃ) তোমাদের (অতৃপম্) তৃপ্তি আমি প্রাপ্ত হব॥৬॥
भावार्थ
জলের যথাবৎ প্রয়োগে প্রাণীদের মধ্যে দর্শনশক্তি ও শ্রবণশক্তি এবং ‘ঘোষ’ ধ্বন্যাত্মক শব্দ ও ‘বাক্’ বর্ণাত্মক শব্দ বলার শক্তি হয় এবং তখনই সে ইষ্ট সুবর্ণাদি ধন-সম্পদের প্রাপ্তির মাধ্যমে ক্ষুধা, তৃষ্ণার মতো মৃত্যুদুঃখ ত্যাগ করে অমৃত অর্থাৎ আনন্দ ভোগ করে॥৬॥
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