अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृगुः
देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामबाण सूक्त
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आ॒धीप॑र्णां॒ काम॑शल्या॒मिषुं॑ संक॒ल्पकु॑ल्मलाम्। तां सुसं॑नतां कृ॒त्वा कामो॑ विध्यतु त्वा हृ॒दि ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒धीऽप॑र्णाम् । काम॑ऽशल्याम् । इषु॑म् । सं॒क॒ल्पऽकु॑ल्मलाम् । ताम् । सुऽसं॑नताम् । कृ॒त्वा । काम॑: । वि॒ध्य॒तु॒ । त्वा॒ । हृ॒दि ॥२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आधीपर्णां कामशल्यामिषुं संकल्पकुल्मलाम्। तां सुसंनतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि ॥
स्वर रहित पद पाठआधीऽपर्णाम् । कामऽशल्याम् । इषुम् । संकल्पऽकुल्मलाम् । ताम् । सुऽसंनताम् । कृत्वा । काम: । विध्यतु । त्वा । हृदि ॥२५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(आधीपर्णाम्) अधिष्ठान वा प्रतिष्ठा के पंखवाले, (कामशल्याम्) वीर्य [तपोबल] की अणिवाले (संकल्पकुल्मलाम्) संकल्प के दंड छिद्रवाले (ताम्) उस [प्रसिद्ध, बुद्धि रूपी] (इषुम्) तीर को (सुसंनताम्) ठीक-२ लक्ष्य पर सीधा (कृत्वा) करके (कामः) सुन्दर मनोरथ (त्वा) तुझ [अविद्या] को (हृदि) हृदय में (विध्यतु) बेधे ॥२॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी योगी बुद्धि बल से अविद्या को हटाकर प्रतिष्ठावान् बलवान्, और सत्यसंकल्पी होता है ॥२॥ मुण्डकोपनिषद् का वचन है−प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ मुण्ड० उ० २।२।४ ॥ (प्रणवः) (धनुः) धनुष् (आत्मा हि) आत्मा ही (शरः) तीर, और (ब्रह्म) ब्रह्म (तल्लक्ष्यम्) उसका लक्ष्य (उच्यते) कहा जाता है, (अप्रमत्तेन) अप्रमत्त, अति सावधान मनुष्य (वेद्धव्यम्) बेधे, और वह (शरवत्) तीर के समान (तन्मयः) उसमें लय (भवेत्) हो जावे ॥
टिप्पणी
२−(आधीपर्णाम्) आ+डुधाञ् धारणपोषणयोः-कि, ङीप्। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः-न। आधी अधिष्ठानं प्रतिष्ठा पर्णं पत्रमिव यस्यास्तां तथाविधाम्। (कामशल्याम्) शल्यः। अ० २।३०।३। कामं वीर्यं तपोबलं शल्यो बाणाप्रभाग इव यस्यास्तां तथोक्तान् (इषुम्) तीरम्। (संकल्पकुल्मलाम्) सम्+कृपू सामर्थ्ये-घञ्, रस्य लः। कुल्मलम्। अ० २।३०।३। संकल्पो दृढविचारः कुल्मलं बाणदण्डछिद्रमिव यस्यास्तां तथोक्ताम्। (ताम्) प्रसिद्धाम्। (सुसंनताम्) सु+सम्+णम नतौ।–क्त। सुष्ठु सम्यङ् नतां लक्ष्यीकृताम्। (कृत्वा) विधाय (कामः) कमु-घञ्। सुमनोरथः, यथा धर्मार्थकाममोक्षः। (विध्यतु) म० १। ताडयतु (त्वा) त्वां विद्याम् (हृदि) हृदये ॥
विषय
काम का बाण
पदार्थ
१. (आधीपर्णाम्) = मानस पीड़ाएँ ही जिसके पत्ते हैं, (कामशल्याम्) = अभिलाषा [रिरंसा] ही जिसका शल्य है [बाणाग्ने प्रोतं आयसं अंगम्], (संकल्पकुल्मलाम्) = भोगविषयक संकल्प ही जिसका कुल्मल है-दारु और शल्य को जोड़नेवाला द्रव्य है-ऐसा यह काम का बाण है। २. (ताम्, इषुम्) = उस काम के बाण को (सुसनताम्) = लक्ष्य की ओर ठीक झुका हुआ (कृत्वा) = करके (काम:) = यह कामदेव (त्वा) = तुझे (हृदि विध्यतु) = हृदय में विध्य करे।
भावार्थ
काम का बाण अति तीक्ष्ण है। उससे विद्ध होकर पत्नी पति की ओर झुकाववाली हो।
भाषार्थ
(आधीपर्णाम्) मानसिक चिन्तारूमी पंखोंवाली, (कामशल्याम्) अभिलाक्षारूपी लोहाग्रवाली, (संकल्पकुल्मलाम्) संकल्परूपी फूलती हुई कलीवाली, (ताम्) उस कामेषु को (सुसंनतां कृत्वा) उत्तम प्रकार से तेरी ओर नत करके, झुकाकर (काम:) काम (त्वा) तुझे (हृदि विध्यतु) हृदय में वीधें।
टिप्पणी
[पर्ण को पुंख भी कहते हैं अर्थात् खिलती हुई कली (उणा० ४।१८८; दयानन्द)। खिले फूल, मेघगर्जना, वसन्त ऋतु आदि कामोत्तेजक हैं-ऐसा कामविज्ञ कहते हैं।]
विषय
काम-शास्त्र और स्वयंवर का उपदेश ।
भावार्थ
काम बाण से होने वाली पीड़ा का वर्णन करते हैं। इस दशा में स्त्री-पुरुष की मानसिक दशा को अलंकार से दर्शाते हैं। हे मेरे प्रियतम ! और हे मेरी प्रियतमे ! (कामः) कामदेव (तां इषुम्) उस कामना रूप बाण को (आधीपर्णां) व्यथा रूप पखों से सजाकर, (कामशल्याम्) काम = परस्पर अभिलाषा या दृढ़ रूप से एक दूसरे के प्रति चाह का शल्य=फला लगा कर, उनको (संकल्पकुल्मलाम्) नाना संकल्प विकल्पों की लेस से चिपका कर और (तां सुसन्नतां कृत्वा) उसको खूब उत्तम रीति से झुकाकर (कामः) स्मर देव (त्वा हृदि) तुझे हृदय में (विध्यत्) ताड़े ता कि तू मुझे ही एकमात्र चाहे ।
टिप्पणी
(तृ०) ‘ ता सुप्र०’ इति क्वचित् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Love and Passion: Fidelity
Meaning
Having put on the bow the arrow sharpened with desire, winged with shooting pain, fatally aimed and pointed, the bow string stretched to the optimum, let love tear through your heart.
Translation
With his arrow, which is winged with mental pains, has sexual desire as into point, and desperate determination as a joint of the shaft and the point, may the sexual passion, aiming it well, pierce you in the heart.
Translation
O my dear; let the carnal desire aiming at correctly pierce you in the heart with shaft winged with longing, leaved with troubles, equipped with the steam of resolves.
Translation
That arrow of knowledge, is winged with longing thought, its stem Desire, its neck, Resolve. Let desire for knowledge, having truly aimed, shoot forth and pierce thee, ignorance, in the heart.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(आधीपर्णाम्) आ+डुधाञ् धारणपोषणयोः-कि, ङीप्। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः-न। आधी अधिष्ठानं प्रतिष्ठा पर्णं पत्रमिव यस्यास्तां तथाविधाम्। (कामशल्याम्) शल्यः। अ० २।३०।३। कामं वीर्यं तपोबलं शल्यो बाणाप्रभाग इव यस्यास्तां तथोक्तान् (इषुम्) तीरम्। (संकल्पकुल्मलाम्) सम्+कृपू सामर्थ्ये-घञ्, रस्य लः। कुल्मलम्। अ० २।३०।३। संकल्पो दृढविचारः कुल्मलं बाणदण्डछिद्रमिव यस्यास्तां तथोक्ताम्। (ताम्) प्रसिद्धाम्। (सुसंनताम्) सु+सम्+णम नतौ।–क्त। सुष्ठु सम्यङ् नतां लक्ष्यीकृताम्। (कृत्वा) विधाय (कामः) कमु-घञ्। सुमनोरथः, यथा धर्मार्थकाममोक्षः। (विध्यतु) म० १। ताडयतु (त्वा) त्वां विद्याम् (हृदि) हृदये ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(আধীপর্ণাম্) মানসিক চিন্তারূপী ডানাযুক্ত, (কামশল্যাম্) অভিলাষারূপী লোহাগ্রবিশিষ্ট, (সংকল্পকুল্মলাম্) সংকল্পরূপী প্রকাশমান কলীযুক্ত, (তাম্) সেই কাম তীরকে (সুসংনতাং কৃত্বা) উত্তমরূপে তোমার দিকে নত করে, ঝুঁকিয়ে, (কামঃ) কাম (ত্বা) তোমাকে (হৃদি বিধ্যতু) হৃদয়ে বিদ্ধ করুক।
टिप्पणी
[পর্ণ-কে পাপড়িও বলা হয় অর্থাৎ প্রকাশমান কুঁড়ি (উণা০ ৪।১৮৮; দয়ানন্দ)। প্রস্ফুটিত ফুল, মেঘে গর্জন, বসন্ত ঋতু ইত্যাদি কামোত্তেজক--এটি কামবিজ্ঞরা বলে।]
मन्त्र विषय
অবিদ্যানাশেন বিদ্যালাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(আধীপর্ণাম্) অধিষ্ঠান বা প্রতিষ্ঠার পর্ণ/ডানাযুক্ত, (কামশল্যাম্) বীর্য [তপোবল] এর ধারযুক্ত (সংকল্পকুল্মলাম্) সংকল্পের দণ্ড ছিদ্রযুক্ত (তাম্) সেই [প্রসিদ্ধ, বুদ্ধি রূপী] (ইষুম্) তীরকে (সুসংনতাম্) সঠিক-সঠিক লক্ষ্যে সোজা (কৃত্বা) করে (কামঃ) সুন্দর মনোরথ (ত্বা) তোমার [অবিদ্যা] এর (হৃদি) হৃদয়ে (বিধ্যতু) বিদ্ধ করুক ॥২॥
भावार्थ
ব্রহ্মচারী, যোগী বুদ্ধি বল দ্বারা অবিদ্যা দূর করে প্রতিষ্ঠাবান্ বলবান্, ও সত্যসংকল্পী হয় ॥২॥ মুণ্ডকোপনিষদ্ এর বচন- প্রণবো ধনুঃ শরো হ্যাত্মা ব্রহ্ম তল্লক্ষ্যমুচ্যতে। অপ্রমত্তেন বেদ্ধব্যং শরবত্তন্ময়ো ভবৈৎ ॥ মুণ্ড০ উ০ ২।২।৪ ॥ (প্রণবঃ) ও৩ম্ (ধনুঃ) ধনুক (আত্মা হি) আত্মাই (শরঃ) তীর, এবং (ব্রহ্ম) ব্রহ্ম (তল্লক্ষ্যম্) তার লক্ষ্য (উচ্যতে) বলা হয়, (অপ্রমত্তেন) অপ্রমত্ত, অতি সাবধান মনুষ্য (বেদ্ধব্যম্) অনুপ্রবিষ্ট হোক, এবং (শরবৎ) তীরের সমান (তন্ময়ঃ) তার মধ্যে লয় (ভবেৎ) হয়ে যাক ॥
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