अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृगुः
देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामबाण सूक्त
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व्य॑स्यै मित्रावरुणौ हृ॒दश्चि॒त्तान्य॑स्यतम्। अथै॑नामक्र॒तुं कृ॒त्वा ममै॒व कृ॑णुतं॒ वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि । अ॒स्यै॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । हृ॒द: । चि॒त्तानि॑ । अ॒स्य॒त॒म् । अथ॑ । ए॒ना॒म् । अ॒क्र॒तुम् । कृ॒त्वा । मम॑ । ए॒व । कृ॒णु॒त॒म् । वशे॑ ॥२५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यस्यै मित्रावरुणौ हृदश्चित्तान्यस्यतम्। अथैनामक्रतुं कृत्वा ममैव कृणुतं वशे ॥
स्वर रहित पद पाठवि । अस्यै । मित्रावरुणौ । हृद: । चित्तानि । अस्यतम् । अथ । एनाम् । अक्रतुम् । कृत्वा । मम । एव । कृणुतम् । वशे ॥२५.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(मित्रावरुणौ) हे प्राण और अपान (अस्यै) इस [विद्या] के लिए [मेरे] (हृदः) हृदय के (चित्तानि) विचारों को (वि अस्यतम्) फैलाओ। (अथ) और (एनाम्) इसको (अक्रतुम्) अहिंसिका [हितकारिणी] (कृत्वा) करके (मम एव) मेरे ही (वशे) वश में (कृणुतम्) करो ॥६॥
भावार्थ
सब ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी प्राण और अपान अर्थात् इन्द्रियों को जीतकर अपने विचारों को बढ़ाकर महाहितकारिणी विद्या को उपयोगी बनावें ॥६॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
६−अस्यै। अस्या विद्यायाः प्राप्तये (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ (हृदः) मम हृदयस्य (चित्तानि) ज्ञानानि। विचारान् (वि+अस्यतम्) असु क्षेपणे। विस्तारयतम् (अथ) अनन्तरम् (एनाम्) निर्दिष्टाम् (अक्रतुम्) कृञः कतुः उ० १।७६। इति कृञ् हिंसायाम्-कतु। अहिंसाशीलाम्। सुखप्रदाम् (कृत्वा) विधाय (कृणुतम्) कुरुतम् (वशे) आयत्तत्वे। प्रभुत्वे ॥
विषय
पितृगृह-विस्मृति
पदार्थ
१. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्द्वषता के भावो! (अस्यै) = इस स्त्री के लिए (हृदः) = हृदय से अन्त:करण से (चित्तानि) = चेतनाओं को–पितृगृह की स्मृतियों को (वि-अस्यतम्) = दूर क्षित कर दो। इसे यहाँ पतिगृह में इसप्रकार स्नेह व निषता का वातावरण प्राप्त हो कि यह पितगृह के सुखों को याद न कर पाये। २. (अथ) = अब (एनाम्) = इसे (अ-क्रतुं कृत्वा) = पितृगृह में जाने के सब प्रकार के संकल्पों से रहित करके (मम एव) = मेरे ही (वशे कृणुतम्) = वश में करो। मेरे स्नेह व निद्वेषता के भाव इसे पूर्णतया मेरे वश में कर दें।
भावार्थ
पत्नी को पतिगृह में प्रेम व नितेषता के भाव इसप्रकार प्राप्त हों कि वह पितगह को याद ही न करे।
विशेष
गत सूक्त के अनुसार काम का स्वरूप यह है कि यह 'उत्तुद' है। काम का बाण आधीपर्णा है। यह काम वह है जो कि प्लीहानं शोषयति । इसका 'इषु व्योषा' है। इस स्वरूप को स्मरण करता हुआ व्यक्ति उचित प्रेम रखता हुआ कामासक्त नहीं होता। सदा आत्मनिरीक्षण करनेवाला यह अथर्वा बनता है-अथ अर्वाङ् [now within]। यह प्रार्थना करता है कि -
भाषार्थ
(मित्रावरुणौ) हे स्नेही तथा वरणीय परमेश्वर ! (अस्यै) इसके (हृदः) हृदय से (चितानि) संकल्पों या विचारों को (व्यस्यतम्) फैंक दे, निकाल दे। (अथ) तदनन्तर (एनाम) इसे (अक्रतुम कृत्वा) कर्म तथा प्रज्ञा से रहित कर, (मम एव) मेरे ही (वशे) वश में (कृणुतम्) कर दे।
टिप्पणी
[मित्रावरुणौ=एक ही परमेश्वर के गुण-कर्म के भेद से दो नाम हैं। मित्रपद द्वारा परमेश्वर के स्नेह का कथन किया है और वरुणपद द्वारा परमेश्वर की वरणीयता का। निरुक्तकार की दृष्टि में केवल तीन देव हैं, अग्नि, इन्द्र, [वायु] और आदित्य। प्रत्येक के गुण कर्म के भेद से प्रत्येक के नाना दैवत नाम हैं। यथा-"तासां महाभाग्यादेकैकस्या अपि बहूनि नामधेयानि भवन्ति अपि वा कर्म-पृथक्त्वाद यथा होताध्वर्युर्ब्रह्मोद्गातेत्यप्येकस्य सतः" (निरुक्त ७।२।५)। "तथा तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः। अग्निः पृथिवीस्थानो, वायुर्वा इन्द्रो वा अन्तरिक्षस्थानः, सूर्यो द्युस्थानः।" (निरुक्त ७।२।५)।]
विषय
काम-शास्त्र और स्वयंवर का उपदेश ।
भावार्थ
कन्या के माता पिता से वर की प्रार्थना । हे (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण ! शोडष वर्ष तक संतान के प्राप्त हो जाने पर पुत्र के प्रति मित्र भाव से रहने वाले कन्या के पिता ! और हे सब में श्रेष्ठ रूप माता ! (अस्यै) इस कन्या के (हृदः) हृदय में से (चित्तानि) अन्य सम्बन्धी चित्तों के (वि अस्यतम्) विशेष रूप से दूर कर दो। अर्थात् अन्य सब प्रस्तुत वरों के प्रति उठे इसके विविध विचारों को दूर कर दो। और (एनाम्) इसको (अक्रतुम्) अन्य सब संकल्पों से रहित, निश्चिन्त (कृत्वा) करके (मम एव वशे) मेरे ही वश में (कृणुतम्) कर दो । इति पञ्चमोऽनुवाकः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Love and Passion: Fidelity
Meaning
O Mitra and Varuna, lord of love and judgement, divinities of loyalty and sound discretion, for her sake, cast off all other interests from her heart and mind, and having freed her from all other interests, let her accept only my love and home.
Translation
O Lord friendly and venerable, may you bless her with fine qualities of head and heart. Then suggesting her not to act independently, may you make her subject only to me (may you put her under my sole control).
Translation
O girl’s father and mother; you both remove idea of suspense from the heart of the girlie and making her deprived of other choices hand over her to my own control.
Translation
O Prana and Apana, enhance my heart's cravings for the acquisition of this knowledge. Make it my well-wisher, and put it under my control
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−अस्यै। अस्या विद्यायाः प्राप्तये (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ (हृदः) मम हृदयस्य (चित्तानि) ज्ञानानि। विचारान् (वि+अस्यतम्) असु क्षेपणे। विस्तारयतम् (अथ) अनन्तरम् (एनाम्) निर्दिष्टाम् (अक्रतुम्) कृञः कतुः उ० १।७६। इति कृञ् हिंसायाम्-कतु। अहिंसाशीलाम्। सुखप्रदाम् (कृत्वा) विधाय (कृणुतम्) कुरुतम् (वशे) आयत्तत्वे। प्रभुत्वे ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(মিত্রাবরুণৌ) হে স্নেহময় ও বরণীয় পরমেশ্বর! (অস্যৈ) এর[রুষ্ট পত্নীর] (হৃদঃ) হৃদয় থেকে (চিত্তানি) সংকল্প বা বিচার-সমূহকে (ব্যস্যতম) নিক্ষেপ করুন, নিষ্কাশিত করুন। (অথ) তদনন্তর (এনাম্) একে[রুষ্ট পত্নীকে] (আক্রতুম্ কৃত্বা) কর্ম ও প্রজ্ঞাবিহীন করুন, (মম এব) আমার (বশে) বশবর্তী (কৃণুতম্) করুন।
टिप्पणी
[মিত্রবরুণৌ= একই পরমেশ্বরের গুণ-কর্মের ভিত্তিতে দুটি নাম রয়েছে। মিত্রপদ দ্বারা পরমেশ্বরের স্নেহের এবং বরুণপদ দ্বারা পরমেশ্বরের বরণীয় হওয়ার বর্ণনা হয়েছে। নিরুক্তকারের দৃষ্টিতে অগ্নি, ইন্দ্র, [বায়ু] এবং আদিত্য মাত্র তিনটি দেবতা রয়েছে। প্রত্যেকের গুণ কর্মের পার্থক্যে প্রত্যেকের নানা নাম হয়েছে নান রকমের। যথা- "তাসাং মহাভাগ্যাদেকৈকস্যা অপি বহূনি নামধেয়ানি ভবন্তি। অপি বা কর্ম- পৃথক্ত্বাদ্ যথা হোতাধ্বর্যুব্রহ্মোদ্গাতেত্যপ্যেকস্য সতঃ" (নিরুক্ত ৭।২।৫)। " তথা তিস্র এব দেবতা ইতি নৈরুক্তাঃ। অগ্নিঃ পৃথিবীস্থানো, বায়ুর্বা ইন্দ্রো বা অন্তরিক্ষস্থানঃ, সূর্যো দ্যুস্থানঃ "(নিরুক্ত ৭।২।৫)]
मन्त्र विषय
অবিদ্যানাশেন বিদ্যালাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(মিত্রাবরুণৌ) হে প্রাণ ও অপান (অস্যৈ) এই [বিদ্যা] এর জন্য [আমার] (হৃদঃ) হৃদয়ের (চিত্তানি) বিচারসমূহকে (বি অস্যতম্) বিস্তৃত করো। (অথ) এবং (এনাম্) ইহাকে (অক্রতুম্) অহিংসিকা [হিতকারিণী] (কৃত্বা) করে (মম এব) আমার (বশে) বশবর্তী/নিয়ন্ত্রণাধীন (কৃণুতম্) করো ॥৬॥
भावार्थ
সকল ব্রহ্মচারী ও ব্রহ্মচারিণী প্রাণ এবং অপান অর্থাৎ ইন্দ্রিয়সমূহ জয় করে নিজের বিচার বর্ধন/বৃদ্ধি করে মহাহিতকারিণী বিদ্যাকে উপযোগী করুক ॥৬॥
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