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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृगु देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त
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    आजा॑मि॒ त्वाज॑न्या॒ परि॑ मा॒तुरथो॑ पि॒तुः। यथा॒ मम॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒जा॒मि॒ । त्वा॒ । आ॒ऽअज॑न्या । परि॑ । मा॒तु: । अथो॒ इति॑ । पि॒तु: । यथा॑ । मम॑ । क्रतौ॑ । अस॑: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आजामि त्वाजन्या परि मातुरथो पितुः। यथा मम क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अजामि । त्वा । आऽअजन्या । परि । मातु: । अथो इति । पितु: । यथा । मम । क्रतौ । अस: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्या !] (त्वा) तुझको (आजन्या) पूरे उपाय से [अपनी] (मातुः) माता से (अथो) और (पितुः) पिता से (परि) सब ओर (आ) यथानियम (अजामि) प्राप्त करता हूँ, (यथा) जिससे (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (असः) तू रहे, (मम चित्तम्) मेरे चित्त में (उपायसि) तू पहुँचती है ॥५॥

    भावार्थ

    सब स्त्री पुरुष माता-पिता आदि से विद्या पाकर परीक्षा द्वारा साक्षात् करके हृदय में दृढ़ करें ॥५॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से अथर्व० १।३४।२ में आया है ॥

    टिप्पणी

    ५−(आ) समन्तात् (अजामि) अज गतिक्षेपणयोः। गच्छामि। प्राप्नोमि (आजन्या) आ+अज गतौ-ल्युट्, ङीप्। समन्ताद् गत्या। पूर्णोपायेन (परि) सर्वतः (मातुः) जनन्याः सकाशात् (अथो) अपि च (पितुः) पालकात्। जनकात् (यथा) येन प्रकारेण। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० १।३४।२ ॥

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    विषय

    प्रेमकशा से पत्नी का आकर्षण

    पदार्थ

    १.हे पत्नि! (त्वा) = तुझे (मातुः परि अथ उ पितुः) [परि] = माता व पिता के पास से (आजन्या) = प्रेम की कशा [चाबुक] के द्वारा (आ अजामि) = अपने अभिमुख प्रेरित करता है। पति पत्नी के प्रति इसप्रकार प्रेमवाला हो कि पत्नी को अपने माता-पिता के वियोग का कष्ट अनुभव न हो। २. मैं तुझे प्रेमकशा से इसप्रकार आहत करता हूँ कि (यथा) = जिससे तू (मम) = मेरे (क्रतौ अस:) = संकल्पों व कर्मों में ही निवास करनेवाली हो और (मम चित्तम) = मेरे चित्त को (उपायसि) = समीपता से प्राप्त हो। तेरा चित्त मेरे चित्त के अनुकूल हो।

    भावार्थ

    पत्नी पति के प्रेम-व्यवहार से आकृष्ट होकर सदा पति-परायणा हो।

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    भाषार्थ

    (परि मातुः) माता के पास से, (अथो) मा (परि पितुः) पिता के पास से, (त्वा) तुझे (अजन्या) निज प्रेरणा द्वारा (आ अजामि) पूर्णतया मैं प्रेरित करता हूँ, (यथा) जिस प्रकार कि (मम क्रतौ असः) मेरे कर्मों में सहयोगिनी तू हो जाए और (मम चित्तम् उप) मेरे चित्त के समीप (अयसि) तू आ जाए।

    टिप्पणी

    [विवाहित पत्नियाँ रुष्ट होकर माता-पिता की शरण में चली जाती हैं, वे ही उनके स्वाभाविक आश्रय होते हैं।]

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    विषय

    काम-शास्त्र और स्वयंवर का उपदेश ।

    भावार्थ

    (अनन्या त्वा) कुमारी स्वरूप तुझ अपनी प्रियतमा के संग मैं (मातुः परि आ) तुम्हारी माता के समक्ष (अथो पितुः अजामि) और पिता के समक्ष विवाहित होने के निमित्त आऊं (यथा) जिससे तू (मम क्रतौ असः) मेरे संकल्प और गृहस्थ कार्य में सहायक हो और मेरे संकल्प के अनुसार रहे और तू (मम चित्तम् उपायसि) मेरे चित्त को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जयकामो भृगुऋषिः। मैत्रावरुणौ कामेषुश्च देवता। १-६ अनुष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love and Passion: Fidelity

    Meaning

    Bound in wedlock with you, O loving maiden, I take you and lead you away from your mother and father so that you may be one with me in the holy performance of our sacred duties and one in heart and soul with me.

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    Translation

    Towards me I urge you, who have not given birth to any baby yet, away from your mother and away from your father, so that you may share my work and please my heart (be nearer to my heart).

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    Translation

    O woman; I attain you from your mother and from your father with desirable method, so that you may remain at my command and make your place in my heart.

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    Translation

    O Knowledge, with full exertion I imbibe thee from my mother and father, that thou mayest be at my command, and yield to every wish of mine!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(आ) समन्तात् (अजामि) अज गतिक्षेपणयोः। गच्छामि। प्राप्नोमि (आजन्या) आ+अज गतौ-ल्युट्, ङीप्। समन्ताद् गत्या। पूर्णोपायेन (परि) सर्वतः (मातुः) जनन्याः सकाशात् (अथो) अपि च (पितुः) पालकात्। जनकात् (यथा) येन प्रकारेण। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० १।३४।२ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (পরি মাতুঃ) মায়ের থেকে, (অথো) এবং (পরি পিতুঃ) পিতার কাছ থেকে, (ত্বা) তোমাকে (অজন্যা) নিজ প্রেরণা দ্বারা (আ অজামি) পূর্ণরূপে আমি প্রেরিত করি, (যথা) যাতে (মম ক্রতৌ অসঃ) আমার কর্মে তুমি সহযোগিনী হও এবং (মম চিত্তম্ উপ) আমার চিত্তের কাছে (অয়সি) তুমি এসো।

    टिप्पणी

    [বিবাহিত স্ত্রীরা রাগান্বিত/রুষ্ট হয়ে পিতা-মাতার আশ্রয়ে যায়, সেটাই তাঁদের স্বাভাবিক আশ্রয় হয়।]

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    मन्त्र विषय

    অবিদ্যানাশেন বিদ্যালাভোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বিদ্যা !] (ত্বা) তোমাকে (আজন্যা) পূর্ণ উপায়ে [নিজের] (মাতুঃ) মাতার সাথে (অথো) এবং (পিতুঃ) পিতার সাথে (পরি) সব দিক থেকে (আ) যথানিয়মে (অজামি) প্রাপ্ত করি, (যথা) যাতে (মম) আমার (ক্রতৌ) কর্ম বা বুদ্ধিতে (অসঃ) তুমি হও/থাকো, (মম চিত্তম্) আমার চিত্তে (উপায়সি) তুমি পৌঁছাও॥৫॥

    भावार्थ

    সকল স্ত্রী, পুরুষ মাতা-পিতা আদি থেকে বিদ্যা প্রাপ্ত করে পরীক্ষা দ্বারা সাক্ষাৎ করে হৃদয়ে দৃঢ় করুক॥৫॥ এই মন্ত্রের উত্তরার্ধ কিছু ভেদে অথর্ব০ ১।৩৪।২ এ রয়েছে ॥

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