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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - दिशः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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    स॒मुत्प॑तन्तु प्र॒दिशो॒ नभ॑स्वतीः॒ सम॒भ्राणि॒ वात॑जूतानि यन्तु। म॑हऋष॒भस्य॒ नद॑तो॒ नभ॑स्वतो वा॒श्रा आपः॑ पृथि॒वीं त॑र्पयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽउत्प॑तन्तु । प्र॒ऽदिश॑: । नभ॑स्वती: । सम् । अ॒भ्राणि॑ । वात॑ऽजूतानि । य॒न्तु॒ । म॒हा॒ऽऋ॒ष॒भस्य॑ । नद॑त: । नभ॑स्वत: । वा॒श्रा: । आप॑: । पृ॒थि॒वीम् । त॒र्प॒य॒न्तु॒ ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुत्पतन्तु प्रदिशो नभस्वतीः समभ्राणि वातजूतानि यन्तु। महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽउत्पतन्तु । प्रऽदिश: । नभस्वती: । सम् । अभ्राणि । वातऽजूतानि । यन्तु । महाऽऋषभस्य । नदत: । नभस्वत: । वाश्रा: । आप: । पृथिवीम् । तर्पयन्तु ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (नभस्वतीः=०−त्यः) बादल से छायी हुई (प्रदिशः) दिशाएँ (समुत्पतन्तु) भले प्रकार उदय हों, (वातजूतानि) पवन से चलाये गये (अभ्राणि) जल भरे बादल (संयन्तु) छा जावें। (महऋषभस्य) बड़े गमनशील (नदतः) गरजते हुए (नभस्वतः) आकाश में छाये [बादल] की (वाश्राः) धड़ धड़ाती (आपः) जलधाराएँ (पृथिवीम्) पृथिवी को (तर्पयन्तु) तृप्त करें ॥१॥

    भावार्थ

    पवन द्वारा वर्षा होने से दिशाएँ निर्मल और पृथिवी अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करने योग्य हो जाती है, इसी प्रकार मनुष्य उपकारी बनें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(समुत्पतन्तु) सम्यग् उद्गच्छन्तु। उद्यन्तु (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (नभस्वतीः) नभः-म० ३। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्ण दीर्घः। नभस्वत्यः। मेघवत्यः (अभ्राणि) अभ्र गतौ=पचाद्यच्। पा० ६।१।१३४। यद्वा, अप-भृञ्-क। अपो जलानि बिभ्रति धारयन्तीति। मेघाः (वातजूतानि) जु वेगे-क्त, दीर्घत्वम्। वायुना प्रेरितानि (संयन्तु) संगच्छन्ताम् (महऋषभस्य) ऋषिवृषिभ्यां कित्। उ० ३।१२३। इति ऋष गतौ-अभच् स च कित्। महागतिशीलस्य (नदतः) गर्जतः (नभस्वतः) आकाशस्थस्य मेघस्य (वाश्राः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वाशृ शब्दे-रक्। शब्दायमानाः (आपः) जलधाराः (पृथिवीम्) भूमिम् (तर्पयन्तु) तृप्ताम् ओषधिप्ररोहणसमर्थां कुर्वन्तु ॥

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    विषय

    गर्जते हुए बादलों का वर्षण

    पदार्थ

    १. (प्रदिश:) = ये विस्तृत प्राची आदि दिशाएँ (नभस्वती:) = [नभस्वता वायुना युक्ता:-सा०] वायु से युक्त हुई-हुई (समुत्पतन्तु) = मेषयुक्त होकर उद्गत हों। (अभ्राणि) = उदकपूर्ण मेघ (वातजूतानि) = वायु से प्रेरित हुए-हुए (संयन्तु) = संगत हों। २. (महऋषभस्य) = महान् ऋषभ के आकारवाले नदत: गर्जन करते हुए (नभस्वतः) = वायु-प्रेरित मेष से (आपः) = जल (वाश्रा:) = शब्दायमान होते हुए (पृथिवीम्) = इस भूमि को (तर्पयन्तु) = तृप्त, अर्थात् ओषधि-प्ररोहण-समर्थ करें।

    भावार्थ

    दिशाएँ बादलों से घिर जाएँ। वायु-प्रेरित बादल आकाश को आवृत कर लें। इन गर्जते हुए मेघों के जल भूमि को तृप्त करके इसे ओषधि-प्ररोहण-समर्थ करें।

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    भाषार्थ

    (नभस्वती:) मेघवाली (प्रदिशः) विस्तृत दिशाएँ (सम् उत्पतन्ति) मिलकर उत्पात करें [मेघध्वनियों द्वारा शोर करें] (वातजूतानि) वायु द्वारा प्रेरित (अभ्राणि) जलभरे मेघ (सम् यन्तु) इकट्ठे होकर गतियां करें। (नदतः) गर्जते (महः ऋषभस्य) महाकाय वृषभ के सदृश [उपमावाचक लुप्त] (नभस्वतः) मेघवाले अर्थात् मेघाच्छादित वायुमंडल के (वाश्राः) शब्दायमान (आप:) जल (पृथिवीम्) पृथिवी को (तर्पयन्तु) तृप्त करें।

    टिप्पणी

    [वाश्राः=वाशृ शब्दे (दिवादिः)। समुत्पातन्तु= अथवा, मानसून वायुएं मिलकर ऊर्ध्व अन्तरिक्ष की ओर उड़ें, ताकि विस्तृत दिशाएँ, नभस्वती: अर्थात् मेघवाली हों, मेघाच्छादित हों।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    वर्षा के रहस्य का उपदेश करते हैं। (नभस्वतीः) मेघों से घिरीं (प्रदिशः) महादिशाएं (सम् उत्-पतन्तु) उमड़ आवे, चारों दिशाओं में मेघ ही मेघ घिर जावें और (वातजूतानि) वायु से प्रेरित (अभ्राणि) जल भरे बादल (सं यन्तु) खूब आवें, तब (महा ऋषभस्य) महान् जल-वर्षक (नदतः) गर्जना करते हुए (नभस्वतः) वायु से प्रेरित मेघ की (वाश्राः) छम छम करती हुई (आपः) जलधाराएँ (पृथिवीम् तर्पयन्तु) इस पृथिवी को परितृप्त करें। अध्यात्मवादी लोग इस वर्षण सुख को तब लेते हैं जब अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा के उदय हो जाने पर धर्ममेघ समाधि में अपने हृदयकाश में अन्तरात्मा की चमकती हुई ज्योतियों की विद्युत् लताओं से घिरे महान् आत्मारूप पर्जन्य से बरसती आनन्द-धाराओं को चित्त भूमि में बरसता पाते हैं। इति दिक्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    Let clusters of dense vapour in the quarters of the firmament rush in together. Let clouds driven by winds fly on together. Let overladen showers dense with vapour of the thundering clouds of bursting sky rain down and fill the earth to the full.

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    Subject

    Dik - regions

    Translation

    May the regions full of clouds fly up together. May the wind driven clouds gather (in the sky). May the waters, the lowing cows of the huge roaring bull; the storm-cloud, gratify the earth.

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    Translation

    Let all the misty regions of the heaven be overcast with clouds, let the rain-clouds accompanied by gusts of wind overwhelm the sky. Let the rattling waters of the thundering tremendous clouds moved by wind satisfy the earth.

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    Translation

    Let all the misty regions fly together, let all the rain-clouds, sped by wind, assemble. Let the fast streams of water flowing from the thundering and highly roaring cloud in the sky, satisfy the earth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(समुत्पतन्तु) सम्यग् उद्गच्छन्तु। उद्यन्तु (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (नभस्वतीः) नभः-म० ३। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्ण दीर्घः। नभस्वत्यः। मेघवत्यः (अभ्राणि) अभ्र गतौ=पचाद्यच्। पा० ६।१।१३४। यद्वा, अप-भृञ्-क। अपो जलानि बिभ्रति धारयन्तीति। मेघाः (वातजूतानि) जु वेगे-क्त, दीर्घत्वम्। वायुना प्रेरितानि (संयन्तु) संगच्छन्ताम् (महऋषभस्य) ऋषिवृषिभ्यां कित्। उ० ३।१२३। इति ऋष गतौ-अभच् स च कित्। महागतिशीलस्य (नदतः) गर्जतः (नभस्वतः) आकाशस्थस्य मेघस्य (वाश्राः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वाशृ शब्दे-रक्। शब्दायमानाः (आपः) जलधाराः (पृथिवीम्) भूमिम् (तर्पयन्तु) तृप्ताम् ओषधिप्ररोहणसमर्थां कुर्वन्तु ॥

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