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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मण्डूकसमूहः, पितरगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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    सं॑वत्स॒रं श॑शया॒ना ब्रा॑ह्म॒णा व्र॑तचा॒रिणः॑। वाचं॑ प॒र्जन्य॑जिन्वितां॒ प्र म॒ण्डूका॑ अवादिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । श॒श॒या॒ना: । ब्रा॒ह्म॒णा: । व्र॒त॒ऽचा॒रिण॑: । वाच॑म् । प॒र्जन्य॑ऽजिन्विताम् । प्र । म॒ण्डूका॑: । अ॒वा॒दि॒षु॒: ॥१५.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः। वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्डूका अवादिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽवत्सरम् । शशयाना: । ब्राह्मणा: । व्रतऽचारिण: । वाचम् । पर्जन्यऽजिन्विताम् । प्र । मण्डूका: । अवादिषु: ॥१५.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (संवत्सरम्) बोलने के समय तक (शशयानाः) शयन करनेवाले (मण्डूकाः) शोभा बढ़ानेवाले वा डुबकी लगानेवाले मेंडुके, (व्रतचारिणः) व्रतधारी (ब्राह्मणाः) ब्राह्मणों के समान, (पर्जन्यजिन्विताम्) मेह से तृप्त की हुई (वाचम्) वाणी को (प्र) अच्छे प्रकार (अवादिषुः) बोलें ॥१३॥

    भावार्थ

    जैसे वेदज्ञानी पुरुष वेदों में मौन [मनन] व्रत साधकर सत्य ज्ञान से तृप्त होकर संसार में उपदेश करते हैं, इसी प्रकार मेंडुके वृष्टि होने से संतुष्ट होकर बोलते हैं ॥१३॥ यह मन्त्र ऋ० ७।१०३।१। में है और निरुक्त ९।६। में भी व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    १३−(संवत्सरम्) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति बाहुलकात् सम्+वद कथने-सरन् प्रत्ययः, स च चित्। चित्वादन्तोदात्तः। सम्यग् वदनपर्यन्तम्। वर्षारम्भपर्यन्तम् इत्यर्थः (शशयानः) शिश्यानाः शयानाः. शयनशीलाः। निद्रालवः (ब्राह्मणाः) अ० २।६।३। वेदपाठिनः। ब्रह्मज्ञानिनो यथा (व्रतचारिणः) व्रत+चर-णिनि। कृतसंयमाः (वाचम्) वाणीम् (पर्जन्यजिन्विताम्) जिवि प्रीणने-क्त। पर्जन्येन प्रीतां तर्पिताम् (प्र) प्रकर्षेण (मण्डूकाः) म० १२। मज्जूकाः। भेकाः (अवादिषुः) वद-लुङ्। अवोचन् ॥

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    विषय

    व्रतचारी ब्राह्मणों के समान

    पदार्थ

    १. (मण्डूका:) = मेंढक (पर्जन्यजिन्विताम्) = मेष [बादल] से प्रेरित (वाचम्) = वाणी को (प्र अवादिषुः) = इसप्रकार खूब ही उच्चरित करते हैं, जैसेकि (संवत्सरम्) = वर्षभर (शशयाना:) = एक स्थान पर निवास करनेवाले (व्रतचारिणः) = मौनव्रत का पालन करेनवाले (ब्राह्मणा:) = ब्राह्मण व्रत समासि पर वाणी को उच्चरित करते हैं।

    भावार्थ

    वर्षा होने पर मेंढकों की आवाज़ ऐसी प्रतीत होती है, जैसे वार्षिक मौनव्रत की समासि पर ज्ञानी ब्राह्मणों की वाणी ही उच्चरित हुई हो।

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    भाषार्थ

    (संवत्सरम्) वर्षभर (शशयानाः) सोये रहते (मण्डूका:) मण्डूकों ने (पर्जन्यजिन्विताम्) मेघ द्वारा प्रसारित (वाचम्, प्र अवादिषु:) वाणी का उच्चारण किया, जैसेकि वर्षर्तु में, (ब्राह्मणाः) वेदाध्यायी, (व्रतचारिणः) ब्रह्मचर्यव्रत का आचरण करनेवाले ब्रह्मचारी, वेदोच्चारण करते हैं।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मणा:=ब्रह्म वेदः, तदध्ययनशीलाः। वेदाध्ययन१ वर्षर्तु में होना चाहिए ऐसी विधि मन्त्र द्वारा सूचित होती है, तथा तदितर काल में वेदाङ्गों का अध्ययन करना चाहिए।] [१. यथा "श्रवणेन स्वाध्यायानुपाकरोति आचार्योऽन्तेवासिनां योगमिच्छन्" (वाराह गृह्यसूत्र ३)। श्रवण=श्रवणनक्षत्र, श्रावणमास। यह वर्षतु का मास है।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    वर्षाकाल का वर्णन करते हुए विद्वान् ब्राह्मणों की उपमा से मण्डूकों का भी वर्णन करते हैं—(व्रतचारिणः) व्रत का आचरण करने वाले (ब्राह्मणाः) विद्वान्, वेदज्ञ ब्राह्मण लोग जिस प्रकार वेद का पाठ करते और ऋतु को मनोहर बनाते हैं उसी प्रकार (संवत्सरं) एक वर्ष तक (शशयानाः) बिलों में सोते हुए (मण्डूकाः) मेंढक (पर्जन्यजिन्वितां) मानों मेघ की स्तुति करने वाली (वाचं) वाणी को (प्र अवादिषुः) उत्तम रीति से बोलते हैं। दादुरध्वनि चंहु ओर सुहाई। वेद पढ़त जिभि बहु समुदाई॥ तुलसी०। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के पक्ष में—(मण्डूका) ब्रह्मानन्द रस में मग्न होने वाले (व्रतचारिणः) ब्रह्मचर्य के पालक (ब्राह्मणाः) वेद के विद्वान् या ब्रह्म के ज्ञाता (संवत्सरं) एक वर्ष को (शशयानाः) बिता कर (पर्जन्यजिन्वितां) उस आनन्द-रस-प्रदाता प्रभु को प्रसन्न करने वाली (वाचं) वेदवाणी का (प्र अवादिषुः) उच्चारण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    Frogs are celebrants of divinity: observing the cycle of nature’s seasons, lying in hybernation for a year, they sing and celebrate life, singing in their natural language inspired by the cloud and showers of rain.

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    Subject

    Frogs (Manduka)

    Translation

    The frogs, who had been lying asleep for a full year, like intellectual persons observing a vow, have started croaking in a voice, which is pleasing to the Lord of rain (cloud). (Also Rg. VII.103.1)

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    Translation

    The men of Vedic learning who fulfilling their vows lay quiet for the year recite and repeat the Vedic hymns as the frog which lay quite for the year in their places, repeat the voice inspired by the cloud (of rainy season).

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    Translation

    Like the Brahmans, who fulfill their vows residing in one place for a year; the frogs, have lifted up their voice, the voice inspired by the rainy cloud.

    Footnote

    The frogs after waiting for the rainy season for a year, begin to shout. See Rigveda, 7-103-1.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(संवत्सरम्) संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति बाहुलकात् सम्+वद कथने-सरन् प्रत्ययः, स च चित्। चित्वादन्तोदात्तः। सम्यग् वदनपर्यन्तम्। वर्षारम्भपर्यन्तम् इत्यर्थः (शशयानः) शिश्यानाः शयानाः. शयनशीलाः। निद्रालवः (ब्राह्मणाः) अ० २।६।३। वेदपाठिनः। ब्रह्मज्ञानिनो यथा (व्रतचारिणः) व्रत+चर-णिनि। कृतसंयमाः (वाचम्) वाणीम् (पर्जन्यजिन्विताम्) जिवि प्रीणने-क्त। पर्जन्येन प्रीतां तर्पिताम् (प्र) प्रकर्षेण (मण्डूकाः) म० १२। मज्जूकाः। भेकाः (अवादिषुः) वद-लुङ्। अवोचन् ॥

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