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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
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    अ॒पाम॒ग्निस्त॒नूभिः॑ संविदा॒नो य ओष॑धीनामधि॒पा ब॒भूव॑। स नो॑ व॒र्षं व॑नुतां जा॒तवे॑दाः प्रा॒णं प्र॒जाभ्यो॑ अ॒मृतं॑ दि॒वस्परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम् । अ॒ग्नि: । त॒नूभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । य: । ओष॑धीनाम् । अ॒धि॒ऽपा । ब॒भूव॑ । स: । न॒: । व॒र्षम् । व॒नु॒ता॒म् । जा॒तऽवे॑दा: । प्रा॒णम् । प्र॒ऽजाभ्य॑: । अ॒मृत॑म् । दि॒व: । परि॑॥१५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामग्निस्तनूभिः संविदानो य ओषधीनामधिपा बभूव। स नो वर्षं वनुतां जातवेदाः प्राणं प्रजाभ्यो अमृतं दिवस्परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम् । अग्नि: । तनूभि: । सम्ऽविदान: । य: । ओषधीनाम् । अधिऽपा । बभूव । स: । न: । वर्षम् । वनुताम् । जातऽवेदा: । प्राणम् । प्रऽजाभ्य: । अमृतम् । दिव: । परि॥१५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना और गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अग्निः) अग्नि [सूर्य ताप] (अपाम्) जलों के (तनूभिः) विस्तारों से (संविदानः) मिलता हुआ (ओषधीनाम्) चावल, यवादियों का (अधिपाः) विशेष पालनकर्ता (बभूव) हुआ है। (सः) वह (जातवेदाः) धनों का उत्पन्न करनेवाला, वा उत्पन्न पदार्थों में सत्तावाला अग्नि (नः प्रजाभ्यः) हम प्रजाओं के लिये (दिवः) अन्तरिक्ष से (परि) सब ओर (वर्षम्) बरसा, (प्राणम्) प्राण और (अमृतम्) अमृत [मरण से बचाव का साधन] (वनुताम्) देवे ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य जल को खैंच लेकर फिर बरसा कर सब प्राणियों का जीवन आधार होता है, वैसे ही मनुष्य विद्या और धन प्राप्त करके संसार का उपकार करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    ९−(आपः) जलधाराः (विद्युत्) तडित् (अभ्रम्) उदकपूर्णो मेघः (वर्षम्) वृष्टिजलम् (प्र) प्रकर्षेण। अन्यद् यथा म० ७ ॥

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    विषय

    'अमृत व प्राणस्वरूप' वृष्टिजल

    पदार्थ

    १. (अपां तनूभिः संविदान:) = मेघस्थ जलों के शरीरों से ऐक्य को प्राप्त हुआ-हुआ-एक हुआ-हुआ (यः अग्निः) = जो विधुद्रूप अग्नि है, वह (ओषधीनाम्) = ओषधियों का (अधिपाः बभूव) = अधिपति होता है। २. (स:) = वह (जातवेदाः) = प्रत्येक उत्पन्न मेष में विद्यमान विद्युद्प अग्नि (दिवः परि) = आकाश से (अमृतं वर्षम्) = अमृततुल्य वृष्टिजल जो (प्रजाभ्यः प्राणम्) = प्रजाओं के लिए प्राणरूप है, उसे (न:) = हमारे लिए (वनुताम्) = प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    विद्युत् मेघ-जलों में संचरित होता हुआ उन मेघ-जलों को अमृत बना देता है। ये मेघजल प्रजाओं के लिए प्राण ही होते हैं।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (अपाम्, अग्निः) जलों की अग्निः, अर्थात् मेघीया विद्युत् (तनूभिः) मेघ रूपी तनुओं के साथ (संविधान) ऐकमत्य को प्राप्त हुई, (ओषधीनाम्) ओषधियों की (अधिपाः) अधिष्ठातृरूप में रक्षक हुई है, (सः) वह (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान अग्नि (नः) हमें (वर्षम्) वर्षाजल, (प्रजाभ्यः) उत्पन्न ओषधियों या प्रजाजनों के लिए, (प्राणम्) प्राण तथा (दिवः परि) द्युलोक से (अमृतम्) मृत्यु से रक्षक जल (बनुताम्) प्रदान करें।

    टिप्पणी

    [जल और अग्नि परस्पर में प्रतिद्वन्द्वी हैं, विरोधी हैं, परन्तु मेघस्थ अग्नि अर्थात् विद्युत मेघ के जलों के साथ ऐकमत्य को प्राप्त है, अतः वह मेघीय जल प्रदान कर, ओषधियों की 'अधिपा:' हुई है। विद्युत-अग्नि सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान है, और उनके साथ भी ऐकमत्य को प्राप्त है। वह हमें वर्षाजल देती, उत्पन्न ओषधियों तथा प्रजाजनों के लिए प्राणभूत तथा द्युलोक से जल प्रदान करती है जोकि अमृतरूप है, अत्यन्त शुद्ध होने से शीघ्र मृत्यु का कारण नहीं बनता। द्युलोक से अमृत-जल देनेवाली अग्नि है सूर्य। अमृतम् उदकनाम (निघंटु १।१२) पार्थिव जल भारी होने से कम अमृत है।]

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    विषय

    वृष्टि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (अपाम्) मेघ में स्थित जलों की (अग्निः) प्रकाशस्वरूप विद्युत् (तनूभिः) जलों के शरीरभूत मेघों से (सं विदानः) मिल कर रहती है। (यः) जो कि (ओषधीनां) वनस्पतियों का (अधिपाः) स्वामी, पालक (बभूव) है। (स जातवेदाः) वह समस्त पदार्थों में व्यापक अग्नि (नः) हमारे लिये (वर्षं) वृष्टि को और (दिवः परि) आकाश से (अमृतं) बरसते अमृत रूप जल को और (प्रजाभ्यः प्राणं) प्रजानों के लिये प्राण (वनुतां) दे। वायु के संघर्ष से मेघों में बिजली उत्पन्न होती है वह ऋण और धन या पोज़िटिव और नेगिटिव रूप में प्रकट होकर पुनः परस्पर मिलती है और कड़कती है। उससे जलों में विशेष प्राणशक्ति और मेघ के जलों की वृद्धि भी होती है। ओषधियां अधिक जल पातीं और प्रजाएं सुखी होती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मरुतः पर्जन्यश्च देवताः। १, २, ५ विराड् जगत्याः। ४ विराट् पुरस्ताद् वृहती । ७, ८, १३, १४ अनुष्टुभः। ९ पथ्या पंक्तिः। १० भुरिजः। १२ पञ्चपदा अनुष्टुप् गर्भा भुरिक्। १५ शङ्कुमती अनुष्टुप्। ३, ६, ११, १६ त्रिष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Song of Showers

    Meaning

    May Agni, Jataveda, all pervasive vitality of life, one with the form and spirit of waters and life forms, which is over all protector and promoter of the life and efficacy of herbs, bless us with nectar showers of water from over the heavens and the firmament as the very breath and energy of life for all people and other forms of life.

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    Subject

    Agni

    Translation

    The celestial fire, who in unison with the bodies of waters, has become the over-lord of plants, may he, the knower of all beings, bring heaven for us the rain, that would sustain the life of our off-springs.

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    Translation

    Let that apamagnih, the fire of the Waters the electricity q which is the Protector of the herbaceous plants and is present in the created objects of the world of the waters—the clouds, rain water for us from the heaven and give life to the creatures.

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    Translation

    Warmth of the Sun, mingled with the particles of water is the protector of plants. May that heat bring us rain, which is life to earthly creatures, and a boon from heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(आपः) जलधाराः (विद्युत्) तडित् (अभ्रम्) उदकपूर्णो मेघः (वर्षम्) वृष्टिजलम् (प्र) प्रकर्षेण। अन्यद् यथा म० ७ ॥

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