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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
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    उद॑ग्रभं परि॒पाणा॑द्यातु॒धानं॑ किमी॒दिन॑म्। तेना॒हं सर्वं॑ पश्याम्यु॒त शू॒द्रमु॒तार्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒ग्र॒भ॒म् । प॒रि॒ऽपाना॑त् । या॒तु॒ऽधान॑म् । कि॒मी॒दिन॑म् । तेन॑ । अ॒हम् । सर्व॑म् । प॒श्या॒मि॒ । उ॒त । शू॒द्रम् । उ॒त । आर्य॑म् ॥२०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्रभं परिपाणाद्यातुधानं किमीदिनम्। तेनाहं सर्वं पश्याम्युत शूद्रमुतार्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अग्रभम् । परिऽपानात् । यातुऽधानम् । किमीदिनम् । तेन । अहम् । सर्वम् । पश्यामि । उत । शूद्रम् । उत । आर्यम् ॥२०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (परिपाणात्) रक्षास्थान [अपने हृदय देश] से (यातुधानम्) पीड़ा देने हारे (किमीदिनम्) पिशुनरूप अपने दोष को (उत् अग्रभम्) मैंने पकड़ लिया है। (तेन) उसी से (अहम्) मैं (सर्वम्) सबको (पश्यामि) देखता हूँ, (यः च) जो कोई (शूद्रः) शोचनीय शूद्र अर्थात् मूर्ख, (उत) अथवा (आर्यः) प्राप्त करने योग्य आर्य अर्थात् विद्वान् [ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य] हो ॥८॥

    भावार्थ

    जितेन्द्रिय पुरुष आत्मदोष के निवारण और बुरे भले के विवेक से शिवसंकल्पी होकर अविद्या का नाश और विद्या का प्रकाश करके सुखी होता है ॥८॥ इस मन्त्र के उत्तरार्ध के लिये मन्त्र ४ देखो ॥

    टिप्पणी

    ८−(उत् अग्रभम्) उत्कर्षेण अग्रहं गृहीतवानस्मि वशीकृतवानस्मि (परिपाणात्) परिरक्षणस्थानात्। हृदयदेशात् (यातुधानम्) यातनाप्रदम् (किमीदिनम्) म० ५। पिशुनरूपं स्वदोषम् (तेन) तेन कारणेन दोषनिग्रहेण। अन्यद् व्याख्यातं म० ४ ॥

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    विषय

    'यातुधान किमीदि' का उद्ग्रहण [उखाड़ देना]

    पदार्थ

    १. (परिपाणात्) = रक्षण के हेतु से मैंने (किमीदिनम्) = 'अब क्या भोगें, अब क्या भोगूं' श्सप्रकार स्वार्थ भाग के लिए आरा का पाड़ित करनवाल (यातुधानम्) = राक्षसाभाव को (उद् अग्रभम्) = हदयक्षेत्र से उद्ग्रहीत कर लिया है-इन स्वार्थभावों को नष्ट करके ही तो मैं शुद्ध दृष्टिवाला बन पाता हूँ। २. (तेन) = इन राक्षसीभावों के दूरीकरण से शुद्ध दृष्टि होने से (अहम्) = मैं सर्व (पश्यामि) = सबको ठीकरूप में देखता हूँ (उत शूद्रम् उत आर्यम्) = चाहे वह शूद्र है या आर्य। मैं शूद्र व आर्यों को पृथक्-पृथक् देख पाता हूँ और शूद्रभावों का परित्याग करके आर्यभावों को ग्रहण करनेवाल बनता हूँ।

    भावार्थ

    भोगप्रधान परपीड़क भावों को दूर करके हम अपना रक्षण करते हैं। इस रक्षण से शुद्ध दृष्टि बनकर हम शुद्र व आर्यभावों को देखते हुए शूद्रभावों का परित्याग करते हैं और आर्यभावों का ग्रहण करते हैं।

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    भाषार्थ

    (परिपाणात्) सब प्रकार के पेय से (यातुधानम्) यातनाएं धारण करनेवाले, या प्रदान करनेवाले [पिशाच] को (उदग्रभम्) मैंने पकड़ लिया है, (किमीदिनम्) जैसेकि "किम् इदानीम्, किम् इदानीम्" द्वारा प्रश्न-पूर्वक भेद लेनेवाले पकड़ लिया जाता है। (तेनः१) उस पकड़ के कारण (अहम्) मैं (सर्वम् पश्यामि) सबको देखता हूँ, (उत) चाहे (शूद्रम्) शूद्र को, (उत) चाहे (आर्यम्) आर्य को।

    टिप्पणी

    [परिपाणात्= सब प्रकार के पेय तथा खाद्य पदार्थों से। पिशाच अर्थात् रोग-कीटाणु, पेय तथा खाद्य पदार्थों में प्रविष्ट होकर, तद्-द्वारा आक्रमण करते हैं, और नेत्रों में प्रविष्ट होकर दृष्टिविघात कर देते हैं, उनके पकड़ लेने से दृष्टि पूर्ववत् देखने में सक्षम हो जाती है। शूद्र और आर्य (देखो मन्त्र ४ की व्याख्या)। तेन=अथवा उस परमेश्वररूपी औषधि द्वारा।] [१. ये मांसभक्षी पिशाच अर्थात् रोग-कीटाणु [germ] है जो कि पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक में भी विचर रहे हैं। ये तत्रस्थ मनुष्यादि प्राणियों पर भी आक्रमण कर उन्हें रुग्ण करते हैं। ऋषि दयानन्द के अनुसार, लोकलोकान्तरों में भी मनुष्यादि सृष्टि है (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ८) तथा आध्यात्मिकदृष्टि में अंतरिक्ष है वक्ष:स्थल, जिसमें कि फेफड़ों में वायु का तथा हृदय में रक्तरूपी आपः का संचार होता है। दिव् है मस्तिष्क; तथा मस्तिष्क से भी परे है मस्तिष्कावरण जिने कि 'Dura mater' कहते हैं। इन शारीरिक अवयवों में रोग-कीटाणुओं द्वारा जनित रोग तो प्रसिद्ध ही हैं। अथवा अन्तरिक्ष है उदर (अथर्व० १०।७।३२) और भूमि है पाद (टाँगों समेत)।]

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    विषय

    दर्शनशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (किमीदिनं) अब क्या भोग करूं, अब क्या भोग करूं इस प्रकार विषयलोलुप (यातुधानं) परिणाम में विषम फल, कष्ट पीड़ा उत्पन्न करने हारे विषयाभिलाषी चित्त को मैं (परि-पाणाद्) रक्षा के निमित्त (उद्-अग्रभम्) निगृहीत करता हूं, उसको विषयों में जाने से रोकता हूं। तब (तेन) उस संयत, विषयों से निरुद्ध, एकाग्र चित्त द्वारा (आर्यम्) चाहे वह उच्च गुणों से युक्त पुरुष हो (उत) और चाहे (शूद्रम्) सेवा करने वाला गुणहीन पुरुष हो (पश्यामि) समदृष्टि से देखता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Sight

    Meaning

    With the eye of divine vision, I have caught out the damagers of life from their den and restrained the demonic devourers from sucking life blood. Thereby now I see all whether high or low, I see them all in their human reality.

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    Translation

    I have dragged the torturer robber out of his shelter. With him (under my control) now I see through all, whether a sudra (labourer) or an arya (master; employer).

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    Translation

    As I arrest the diseases creating eye-troubles from their sheltering place, therefore, I behold all be it Shudra or be it Arya.

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    Translation

    For the sake of safety I have controlled the libidinous, vexatious mind, with this controlled minds I look alike upon a Sudra or an Arya.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(उत् अग्रभम्) उत्कर्षेण अग्रहं गृहीतवानस्मि वशीकृतवानस्मि (परिपाणात्) परिरक्षणस्थानात्। हृदयदेशात् (यातुधानम्) यातनाप्रदम् (किमीदिनम्) म० ५। पिशुनरूपं स्वदोषम् (तेन) तेन कारणेन दोषनिग्रहेण। अन्यद् व्याख्यातं म० ४ ॥

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