अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
ऋषिः - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
0
यो अ॒न्तरि॑क्षेण॒ पत॑ति॒ दिवं॒ यश्चा॑ति॒सर्प॑ति। भूमिं॒ यो मन्य॑ते ना॒थं तं पि॑शा॒चं प्र द॑र्शय ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒न्तरि॑क्षेण । पत॑ति । दिव॑म् । य: । च॒ । अ॒ति॒ऽसर्प॑ति । भूमि॑म् । य: । मन्य॑ते । ना॒थम् । तम् । पि॒शा॒चम् । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥२०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अन्तरिक्षेण पतति दिवं यश्चातिसर्पति। भूमिं यो मन्यते नाथं तं पिशाचं प्र दर्शय ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अन्तरिक्षेण । पतति । दिवम् । य: । च । अतिऽसर्पति । भूमिम् । य: । मन्यते । नाथम् । तम् । पिशाचम् । प्र । दर्शय ॥२०.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [उपद्रवी] (अन्तरिक्षेण) मध्यवर्ती हृदय अवकाश द्वारा (पतति) नीचे गिरता है, (च) और (यः) जो (दिवम्) व्यवहार वा प्रकाश को (अतिसर्पति) लाँघकर रेंगता है, और (यः) जो (भूमिम्) अपनी सत्ता को [अहंकार से] (नाथम्) ईश्वर (मन्यते) मानता है, (तम्) उस (पिशाचम्) मांसभक्षक, दुःखदायक, आत्मा को (प्रदर्शय) तू दिखा दे ॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य मनोविकार से वेद मर्यादा छोड़ कुकर्मी बन जाता है, वह मनुष्य ईश्वरभक्ति से अपने अविद्यादि दोषों को छोड़कर सुखी होवे ॥९॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ इति सप्तमः प्रपाठकः ॥
टिप्पणी
९−(यः) आत्मदोषः। उपद्रवी जनो वा (अन्तरिक्षेण) मध्यवर्त्तिना हृदयावकाशेन, तत्सहायेन (पतति) अधोगच्छति (दिवम्) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारादिषु-क प्रत्ययः। व्यवहारम्। प्रकाशम् (यः) (च) (अतिसर्पति) (अतीत्य, उल्लङ्ध्य गच्छति (भूमिम्) अ० १।११।२। भू सत्तायाम्-मि। सत्ताम् (यः) (मन्यते) अहंकारेण जानाति (नाथम्) नाथ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु-अच्। प्रभुम्। ईश्वरम् (तम्) (पिशाचम्) पिशिताशिनम्। दुःखदायकमात्मानम् (प्रदर्शय) अवगमय ॥
विषय
'अन्तरिक्ष, धुलोक व भूमि' पर आधिपत्यवाला पिशाच
पदार्थ
१. (य:) = जो राक्षसीभाव (अन्तरिक्षेण पतति) = हदयान्तरिक्ष से गतिवाला होता है-जो हृदय में उत्पन्न होता है, (य: च) = और जो (दिवम् अतिसर्पति) = मस्तिष्करूप धुलोक में अतिशयेन गति करता है, (य:) = जो (भूमिम्) = इस शरीररूपी पृथिवीलोक का (नाथम्) = अपने को स्वामी (मन्यते) = मानता है-जो शरीर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है, (तम्) = हमारा मांस ही खा जानेवाले राक्षसीभाव को हे वेदमात: ! तू (प्रदर्शय) = दिखला। २. हृदय में उत्पन्न हुआ-हुआ राक्षसीभाव मस्तिष्क में अतिशयेन गतिवाला होता है, मस्तिष्क में वही भाव चक्कर काटने लगता है। इस शरीर पर उसका आतिपत्य-सा स्थापित हो जाता है। हम वेद के द्वारा इन भावों के स्वरूप को समझें और इनसे बचें।
भावार्थ
अशुभवासना हदय में उत्पन्न होकर मस्तिक में घर कर लेती है और शरीर पर आधि पत्य स्थापित कर लेती है। इसके स्वरूप को समझकर हम इससे बचने के लिए यत्नशील हों।
विशेष
पैशाचिकभावों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि हम आहार को सात्त्विक करें। सर्वाधिक सात्विक आहार 'गोदुग्ध' है, अत: अगले सूक्त में 'गाव:'ही देवता [वय॑विषय] है और गोदुग्ध-सेवन से पवित्र बुद्धिवाला ज्ञानी 'ब्रह्मा ऋषि है (अथाष्टमः प्रपाठकः )|
भाषार्थ
(यः) जो (अन्तरिक्षेण) अन्तरिक्ष द्वारा (पतति) उड़ता या संचार करता है, (च यः) और जो (दिवम्, अति, सर्पति) द्युलोक और उसको लाँघकर भी (सर्पति) सर्पण करता है। (यः) जो (भूमिम्) भूमि को (नाथम्, मन्यते) अपना स्वामी या आश्रय मानता है, (तम् पिशाचम्) उस मांसभक्षक को [है औषधि !] (प्रदर्शय) तू मुझे दर्शा।
टिप्पणी
[औषधि=ताप सन्ताप-नाशक-परमेश्वर-औषधि।] [विशेष वक्तव्य-- (१) कौशिकसूत्रानुसार तथा सायणाचार्य की व्याख्यानुसार सूक्त मैं "सदंपुष्पा" नामक औषधि का वर्णन है, परन्तु सूक्त में इस ओषधि का नाम नहीं है। (२) सूक्त में वस्तु पत्र-पुष्पवाली औषधि का वर्णन प्रतीत नहीं होता, अपितु यह 'आध्यात्म-औषधि है। यथा— (३) प्रतिभाद्वा सर्वम् (२।३३) "प्रातिभं नाम तारकं, तेन वा सर्वमेव जानाति योगी" (व्यासभाष्य)। (४) तथा "प्रातिभ-आदर्श (योग विभूतिपाद, सूत्र ३६) अर्थात् प्रतिभोत्पन्न-दृष्टि द्वारा, योगी सूक्ष्म, व्यवहित, तथा विप्रकृष्ट पदार्थों का परिज्ञान प्राप्त करता है (योग विभूतिपाद सूत्र २५, और व्यासभाष्य।) इन्हें मन्त्र १ में "आ पश्यति प्रति पश्यति तथा पश्यति" आदि द्वारा निर्दिष्ट किया है। (४) यह आध्यात्मिक-औषधि है जिसे सहस्राक्ष (मन्त्र ४) परमेश्वर ने प्रयोक्ता के दक्षिण हाथ में स्थापित कर दिया है। सहस्राक्ष को (मन्त्र ५) में सहस्रचक्षुः भी कहा है। परमेश्वर सहस्राक्ष है। यथा "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्" (यजुः० ३१।१)। (५) २०वें सूक्त के भाष्य में सायणाचार्य ने 'सदंपुष्पा' का कथन किया है, जिसेकि सूक्त में देवी औषधि, अर्थात् दिव्य गुणोंवाली ओषधि कहा है। योगदर्शन में भी "जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः" (योग० ४।१) द्वारा ओषधियों को भी सिद्धिजनक कहा है। इस सम्बन्ध में योगभाष्यकार व्यासमुनि ने कहा है कि "ओषधिभिः असुर१-भवनेषु रसायनेनेत्येवमादि"। ये असुर-भवन कौन से हैं, तथा रसायन कौन से हैं जिन द्वारा सिद्धि प्राप्त हो जाती है, यह गवेषणीय२ है। सम्भवतः किसी औषधि के सेवन से दृष्टिशक्ति में तीव्रता आ जाती हो जिस द्वारा कि व्यक्ति सूक्ष्म, दूर, व्यवहित पदार्थों को भी देख सकता है, जैसेकि योगशक्ति द्वारा योगी इनका दर्शन कर सकता है। वर्तमान समय में भी तो ऐनक आदि के प्रयोग द्वारा दृष्टि शक्ति में तीव्रता हो जाती है। दूरबीन रूपी कृत्रिम यन्त्र द्वारा भी दूर-दूर की वस्तुओं का दर्शन होता है। तथा खुर्दबीन द्वारा सूक्ष्म वस्तुओं भी दर्शन जाता है। [१. सम्भवतः यह अभिप्राय है कि आर्यजाति में दो प्रकार के विचारक रहे हैं, देव और असुर। इन के विचारों और कर्तव्यों में भेद रहा है। देवकोटि के विचारक तो मन्त्र, तपश्चर्या तथा समाधि द्वारा सिद्धियों की प्राप्ति के पक्षपाती रहे हैं, और असुरकोटि के विचारक वैज्ञानिक है, जोकि प्राकृतिक औषधियों और रसायनों द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त करने में यत्नवान् रहे हैं। वे इस निमित्त रसायनों और भस्मों का निर्माण करते हैं, और इनकी प्रयोगशालाओं को संभवतः 'असुरभवनं" कहा है। उदाहरणार्थ योगी तो योगप्रक्रियानुसार सशरीर आकाश-गमन के लिए यत्न करते हैं, और वर्तमान में वैज्ञानिक, विज्ञान साधनों द्वारा, वायुयानों द्वारा आकाशगमन कर रहे हैं तथा चन्द्रमा तक भी सशरीर यात्रा हो चुकी है।
विषय
दर्शनशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो पिचाश भाव (अन्तरिक्षेण पतति) हृदयाकाश में विचरता है, (यश्च दिवं अति सर्पति) और जो मस्तिष्क अर्थात् विचार में, गति करता है (भूमिं यः मन्यते नाथम्) और जो पिशाच कर्म शरीर भूमि में आश्रय पाए हुए है (तं पिशाचं प्रदर्शय) उस पिशाचभाव या पिशाचकर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रदर्शन करा। अथवा ‘पिश’ अर्थात् रूप अवयववान् पदार्थों में भी व्यापक सूक्ष्म आत्मा है उसका दृक्शक्ति दर्शन करावे। इति चतुर्थोऽनुवाकः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Sight
Meaning
Who flies through the middle regions, who rises to the regions of light and feels he would cross, who thinks he has mastered the earth, such devilish blood suckers, O vision divine, pray expose.
Translation
May you enable me to see clearly the blood-sucker, whoever flies about in the mid-space, and whoever goes beyond the sky and whoever thinks the earth as his refuge.
Translation
Let this plant make visible that germ which flies in the air, which glides in the light of the Sun, and which deems the earth its help.
Translation
O mental vision, make visible to me the soul, that flies in the heart, or roams in the reflective brain, or considers itself the lord of the body!
Footnote
‘Pishach’ means soul, that pervades all living physical objects; or that eats our flesh and torments us.(पिशाचम) पिशिताशिनम्
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(यः) आत्मदोषः। उपद्रवी जनो वा (अन्तरिक्षेण) मध्यवर्त्तिना हृदयावकाशेन, तत्सहायेन (पतति) अधोगच्छति (दिवम्) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारादिषु-क प्रत्ययः। व्यवहारम्। प्रकाशम् (यः) (च) (अतिसर्पति) (अतीत्य, उल्लङ्ध्य गच्छति (भूमिम्) अ० १।११।२। भू सत्तायाम्-मि। सत्ताम् (यः) (मन्यते) अहंकारेण जानाति (नाथम्) नाथ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु-अच्। प्रभुम्। ईश्वरम् (तम्) (पिशाचम्) पिशिताशिनम्। दुःखदायकमात्मानम् (प्रदर्शय) अवगमय ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal