अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - वसिष्ठः, अथर्वा वा
देवता - इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमित्रक्षयण सूक्त
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इ॒ममि॑न्द्र वर्धय क्ष॒त्रियं॑ म इ॒मं वि॒शामे॑कवृ॒षं कृ॑णु॒ त्वम्। निर॒मित्रा॑नक्ष्णुह्यस्य॒ सर्वां॒स्तान्र॑न्धयास्मा अहमुत्त॒रेषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । व॒र्ध॒य॒ । क्ष॒त्रिय॑म् । मे॒ । इ॒मम् । वि॒शाम् । ए॒क॒ऽवृ॒षम् । कृ॒णु॒ । त्वम् । नि: । अ॒मित्रा॑न् । अ॒क्ष्णु॒हि॒ । अ॒स्य॒ । सर्वा॑न् । तान् । र॒न्ध॒य॒ । अ॒स्मै॒ । अ॒ह॒म्ऽउ॒त्त॒रेषु॑ ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इममिन्द्र वर्धय क्षत्रियं म इमं विशामेकवृषं कृणु त्वम्। निरमित्रानक्ष्णुह्यस्य सर्वांस्तान्रन्धयास्मा अहमुत्तरेषु ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । इन्द्र । वर्धय । क्षत्रियम् । मे । इमम् । विशाम् । एकऽवृषम् । कृणु । त्वम् । नि: । अमित्रान् । अक्ष्णुहि । अस्य । सर्वान् । तान् । रन्धय । अस्मै । अहम्ऽउत्तरेषु ॥२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू (इमम्) इस (क्षत्रियम्) राज्य करने में चतुर राजा को (मे) मेरे लिये (वर्धय) बढ़ा, और (इमम्) इसको (विशाम्) मनुष्यों का (एकवृषम्) अद्वितीय प्रधान अर्थात् सार्वभौम शासक (कृणु) बना। (अस्य) इसके (सर्वान्) सब (अमित्रान्) वैरियों को (निरक्ष्णुहि) निर्बल करदे, और (तान्) उन्हें (अस्मै) इसके लिये (अहमुत्तरेषु) मैं ऊँचा होता हूँ, मैं ऊँचा होता हूँ, ऐसे कथनस्थान रणक्षेत्रों में (रन्धय) नाश कर वा वश में कर ॥१॥
भावार्थ
प्रजागण सर्वश्रेष्ठ पुरुष को राजा बनावें जो परमेश्वर में विश्वास करके युद्ध भूमि में शत्रुओं को मारकर प्रजा को सुखी रक्खे ॥१॥ सायणाचार्य ने (अहमुत्तरेषु) पद को पदपाठ के विरुद्ध [अहम् उत्तरेषु] ऐसे दो पद मानकर व्याख्या की है ॥
टिप्पणी
१−(इमम्) अस्माकं मध्ये वर्त्तमानम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (क्षत्रियम्) क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र-घ। क्षत्रे राष्ट्रे साधुम्। राजानम् (मे) मह्यम् (विशाम्) विश प्रवेशने-क्विप्। विशः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्याणाम्। प्रजानाम् (एकवृषम्) वृषु सेचने, प्रजननैश्ययोः-क। अद्वितीयप्रधानम्। एकवीरम्। सार्वभौमम् (कृणु) कुरु (त्वम्) (अमित्रान्) अ० १।१९।२। पीडकान् शत्रून् (निः अक्ष्णुहि) अक्षू व्याप्तौ। निर्गतव्याप्तिकान् निर्बलान् कुरु (अस्य) राज्ञः (सर्वान्) तान् तथाविधान् शत्रून् (रन्धय) रध हिंसापाकयोः। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुमागमः। रध्यतिर्वशगमने-निरु० १०।४०। नाशय। वशीकुरु (अस्मै) राज्ञे (अहमुत्तरेषु) अहम्+उत्तरेषु। अहमुत्तरो भवामि अहमुत्तरो भवामि इति कथनं यत्र। परस्परोत्कर्षाय योधानाम्। धावनकर्मसु। महासंग्रामेषु ॥
विषय
एकवृष राजा
पदार्थ
१. राजपुरोहित प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र) = प्रभो! (मे) = मेरे (इमम्) = इस (क्षत्रियम्) = प्रजाओं का क्षतों से त्राण करनेवाले राजा को (वर्धय) = बढ़ाइए। यह कोश-दण्ड आदि से खूब समृद्ध बने। (त्वम्) = आप (इमम्) = इसे (विशाम्) = सब प्रजाओं में (एकवृषम्) = अद्वितीय शक्तिशाली व प्रजाओं पर सुखों का वर्षक (कृणु) = कीजिए। २. (अस्य) = इस राजा के (सर्वान्) = सब (अमित्रान्) = शत्रुओं को (नि: अक्ष्णुहि) = निर्गतव्यातिवाला-संकुचित प्रभाववाला (कृणुहि) = कीजिए। (तान्) = उन शत्रुओं को (अहम् उत्तरेषु) = 'मैं उत्कृष्ट होऊँ, मैं उत्कृष्ट होऊँ' इसप्रकार के भावोंवाले संग्ग्रामों में (अस्मै) = इस राजा के लिए (रन्धय) = वशीभूत कीजिए।
भावार्थ
अद्वितीय शक्तिशाली राजा संग्रामों में सब शत्रुओं को पराजित करके प्रजा पर सुखों का सेचन करनेवाला बने।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे सम्राट!१ (इमम् क्षत्रियम्) क्षतों से त्राण करनेवाले इस क्षत्रिय को (वर्धय) तू बढ़ा, (त्वम्) तू (मे इमम्) मेरे इस प्रत्याशी अर्थात् उम्मीदवार को (विशाम्) प्रजाओं में से (एकवृषम्) एकमात्र या मुख्य सुखों की वर्षा करनेवाला (कृणु) कर। (अस्य अमित्रान्) और इसके विरोधियों का तू (निर् अक्ष्णुहि) निरास करके साम्राज्य में व्याप्त हो, (तान् सर्वान्) उन सब विरोधियों को (अस्मै) इसके लिए (रन्धय) निज वश में कर, (अहमुत्तरेषु) गुणों में मैं तुझ से उत्कृष्ट हूँ या तू, इस प्रकार के कथनों में, पारस्परिक स्पर्धाओं में।
टिप्पणी
[मन्त्र में "मे" द्वारा, दल के मुखिया ने अपने उम्मीदवार को चुनाव के लिए प्रस्तुत किया है, जैसे कि वर्तमान में राजनैतिक चुनावों में प्रथा चालू है। क्षत्रिय पद द्वारा उम्मीदवार के गुणों का कथन किया है कि यह प्रजा का त्राण कर सकता है, उनके क्षतों से। यथा "क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः" (कालिदास)। चुनाव सम्राट् ने करना है निज साम्राज्य के एक राष्ट्र के अधिपति 'वरुण-राजा' का। यथा "इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। "अहमुत्तरेषु" द्वारा चुनाव में प्रतिस्पर्धाओं का कथन हुआ है। निरीक्ष्णुहि=निर् + अक्षू व्याप्तौ+ श्नुः (स्वादिः)।] [१. सूक्त २२ के मन्त्रों में प्रजा के किसी नेता द्वारा सम्राट् के प्रति कथन हुआ है।]
विषय
राजा का स्थापन।
भावार्थ
राजधर्मों का उपदेश करते हैं। हे (इन्द्र) सेनापते ! (मे) मेरे (इमम्) इस (क्षत्रियम्) क्षात्र-धर्म से युक्त पुरुष को (वर्धय) और अधिक बढ़ा, पुष्ट कर, और (इमं) इसको (विशाम्) प्रजाओं में (एकवृषं) एकमात्र सब से श्रेष्ठ, सभापति रूप में (त्वं) तू (कृणु) बना। और (अस्य) इसके (सर्वान्) समस्त (अमित्रान्) शत्रुओं को (निर् अक्ष्णुहि) सर्वथा प्रभाव रहित कर दे। और (तान् सर्वान्) उन सब को (अहम्-उत्तरेषु अस्मै रन्धय) “मैं बड़ा २” इस प्रकार के परस्पर के संघर्षो में इसके अधीन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठोऽथर्वा वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Social Order
Meaning
O lord of majesty and power, Indra, exalt this ruler for our sake, make him unique, brave and generous among the people. Weaken all his adversaries disposed to enmity. Subject those to the ruling order who boast and proclaim: ‘I am the greatest of the great’. Exalt the one ruling order.
Subject
Indra - Ksatriya King
Translation
O resplendent Lord, may you exalt this ruling prince of mine, make him the unrivalled strong man among people; disintegrate his adversaries, and put all of them under his control in the struggles for superiority.
Translation
O Indra, Almighty Divinity! exalt and strengthen this my prince, make him the sole King of {he people, drive away his foes and make all his rivals under his Control in the struggle of precedence.
Translation
Exalt and strengthen this my prince, O God, Make him sole lord and leader of the people. Scatter his foes, deliver all his rivals into his hand in struggles for precedence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इमम्) अस्माकं मध्ये वर्त्तमानम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (क्षत्रियम्) क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र-घ। क्षत्रे राष्ट्रे साधुम्। राजानम् (मे) मह्यम् (विशाम्) विश प्रवेशने-क्विप्। विशः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्याणाम्। प्रजानाम् (एकवृषम्) वृषु सेचने, प्रजननैश्ययोः-क। अद्वितीयप्रधानम्। एकवीरम्। सार्वभौमम् (कृणु) कुरु (त्वम्) (अमित्रान्) अ० १।१९।२। पीडकान् शत्रून् (निः अक्ष्णुहि) अक्षू व्याप्तौ। निर्गतव्याप्तिकान् निर्बलान् कुरु (अस्य) राज्ञः (सर्वान्) तान् तथाविधान् शत्रून् (रन्धय) रध हिंसापाकयोः। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुमागमः। रध्यतिर्वशगमने-निरु० १०।४०। नाशय। वशीकुरु (अस्मै) राज्ञे (अहमुत्तरेषु) अहम्+उत्तरेषु। अहमुत्तरो भवामि अहमुत्तरो भवामि इति कथनं यत्र। परस्परोत्कर्षाय योधानाम्। धावनकर्मसु। महासंग्रामेषु ॥
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