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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः, अथर्वा वा देवता - इन्द्रः, क्षत्रियो राजा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमित्रक्षयण सूक्त
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    एमं भ॑ज॒ ग्रामे॒ अश्वे॑षु॒ गोषु॒ निष्टं भ॑ज॒ यो अ॒मित्रो॑ अ॒स्य। वर्ष्म॑ क्ष॒त्राणा॑म॒यम॑स्तु॒ राजेन्द्र॒ शत्रुं॑ रन्धय॒ सर्व॑म॒स्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒मम् । भ॒ज॒ । ग्रामे॑ । अश्वे॑षु । गोषु॑ । नि: । तम् । भ॒ज॒ । य: । अ॒मित्र॑: । अ॒स्य । वर्ष्म॑ । क्ष॒त्राणा॑म् । अ॒यम् । अ॒स्तु॒ । राजा॑ । इन्द्र॑ । शत्रु॑म् । र॒न्ध॒य॒ । सर्व॑म् । अ॒स्मै ॥२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमं भज ग्रामे अश्वेषु गोषु निष्टं भज यो अमित्रो अस्य। वर्ष्म क्षत्राणामयमस्तु राजेन्द्र शत्रुं रन्धय सर्वमस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इमम् । भज । ग्रामे । अश्वेषु । गोषु । नि: । तम् । भज । य: । अमित्र: । अस्य । वर्ष्म । क्षत्राणाम् । अयम् । अस्तु । राजा । इन्द्र । शत्रुम् । रन्धय । सर्वम् । अस्मै ॥२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (इमम्) इसको (ग्रामे) ग्राम में, (अश्वेषु) घोड़ों में, और (गोषु) गौ आदिकों में (आभज) भाग्यवान् कर, और (यः) जो (अस्य) इसका (अमित्रः) वैरी है, (तम्) उस को (निर्भज) अलग कर दे। (अयम्) यह (राजा) राजा (क्षत्राणाम्) क्षत्रियों का (वर्ष्म) मस्तक [समान ऊँचा] (अस्तु) होवे। (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले इन्द्र भगवान् ! (अस्मै) इसके लिये (सर्वम्) सब (शत्रुम्) शत्रु को (रन्धय) वश में कर ॥२॥

    भावार्थ

    राजा परमेश्वर में श्रद्धा रखता हुआ अपनी प्रजा, सेना, और गौ आदि पशुओं की रक्षा करता हुआ अपने सब शत्रुओं का नाश करके क्षत्रियों का शिरोमणि बने ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(इमम्) राजानम् (आ भज) भज सेवाविश्राणनयोः। समन्तात् सेवस्व। भागं देहि (ग्रामे) अ० ४।७।५। वसतौ। (अश्वेषु) तुरङ्गेषु (गोषु) धेन्वादिपशुषु (तम्) शत्रुम् (निर्भज) निर्भक्तं वियुक्तं कुरु (यः) (अमित्रः) पीडकः शत्रुः (अस्य) राज्ञः (वर्ष्म) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम्। शिरोवदुन्नतः (क्षणात्राम्) अ० २।१५।४। क्षतस्त्रायकाणां क्षत्रियाणां मध्ये (अस्तु) (राजा) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (शत्रुम्) रिपुम् (रन्धय) म० १। वशीकुरु (सर्वम्) (अस्मै) राजहिताय ॥

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    विषय

    क्षत्रियों में मूर्धन्य

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो! (इमम्) = इस राजा को (ग्राम) = जनसमूह में (अश्वेषु गोषु) = घोड़ों में और गौओं में (आभज) = समन्तात् भागी कर। (य:) = जो (अस्य) = इस राजा का (अमित्रः) = शत्रु है (तं निर्भज) = उसे 'ग्राम, अश्व व गौओं' से पृथक्क र । २. (अयं राजा) = यह राजा (क्षत्राणाम) = क्षत से त्राण करनेवाले कार्यों में (वर्ष्म अस्तु) = शरीर के मुख्य अंग सिर के समान हो। हे (राजेन्द्र) =  परमात्मन्! आप (अस्मै) = इसके लिए (सर्व शत्रुम्) = सब शत्रुओं को (रन्धय) = वशीभूत कीजिए

    भावार्थ

    हमारा राजा ग्रामों, घोड़ों व गौओं का अधिपति हो। यह क्षत्रियों में मूर्धन्य हो। सब शत्रुओं को वश में करनेवाला हो।

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    भाषार्थ

    [हे सम्राट्] (इसम्) इस निर्वाचित क्षत्रिय (मन्त्र १) को (ग्रामे) ग्राम में, (अश्वेषु, गोषु) अश्वों और गौओं में (आ भज) सर्वत्र सेवक रूप में नियुक्त कर, और (तम्) उसे (निर् भज) सेवक रूप से पृथक् कर, (य:) जोकि [चुनाव में] (अस्य) इसका (अमित्र:) प्रतिद्वन्द्वी था, (अयम्) यह (क्षत्राणाम्) क्षतों से त्राण करनेवालों में (वर्ष्म) श्रेष्ठ या अतिसुखवर्षी है (राजा अस्तु) राजा हो, (इन्द्र:) हे सम्राट्। (अस्मै) इसके लिए (सर्वम्) सब (शत्रुम्) प्रतिद्वंद्वियों को (रन्धय) अपने वश में कर।

    टिप्पणी

    [ग्राम= राष्ट्र में प्रत्येक ग्राम में इसे सेवकरूप में नियुक्त कर। यह केवल नगरवासियों की ही सेवा करनेवाला न हो, अपितु राष्ट्र के प्रत्येक ग्राम में प्रजाओं की सेवा करने वाला हो। आभज= आ + भज सेवायाम् (भ्वादिः)।]

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    विषय

    राजा का स्थापन।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! (इमं) इस राजा होने योग्य क्षत्रिय को (ग्रामे) ग्रामों में, जनसमूहों में (आ भज) सब का प्रिय बना दे और (अश्वेषु गोषु) अश्वों में और गौओं में अर्थात् घुड़सवारों और गोपालकों में भी प्रिय बना, (यः अस्य अमित्रः) जो इसका शत्रु है (तं निर्भज) उसको ग्राम आदि पदार्थों से पृथक् कर दे। (क्षत्राणाम्) क्षत्रियों के (वर्ष्म) साम्राज्य देह में (अयम्) यह (राजा अस्तु) सब का राजा, सब के चित्त का अनुरंजन करने वाला हो। और (अस्मै) इसके (सर्व) सब (शत्रुं) शत्रुओं को (रन्धय) इसके अधीन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठोऽथर्वा वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Social Order

    Meaning

    Indra, ruling spirit of the nation, support him among the citizens, among the warriors and among the farmers. Do not support him who is his enemy, without all support from him. Let him be the highest embodiment of the ruling orders. Subject all opposition, adversaries and enemies to the order of governance.

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    Translation

    Bestow on this prince the possession of village (gráma), of horses and of cows. Dispossess him who is enemy of this prince, O resplendent Lord, may this prince become the embodiment of ruling powers. May you put all his enemies under his subjugation.

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    Translation

    O Almighty Lord! make this prince beloved in village, make him beloved in them who possess horses and cows, and give not share to him who has hostility with him. By the grace may he as King be the chief of princes and let all his foes-be under his control.

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    Translation

    Give him a share in villages, kine and horses, and leave his enemy without a portion. Let him as king be head and chief of princes. O God, let every foeman surrender to him.

    Footnote

    ‘Him’ refers to a king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(इमम्) राजानम् (आ भज) भज सेवाविश्राणनयोः। समन्तात् सेवस्व। भागं देहि (ग्रामे) अ० ४।७।५। वसतौ। (अश्वेषु) तुरङ्गेषु (गोषु) धेन्वादिपशुषु (तम्) शत्रुम् (निर्भज) निर्भक्तं वियुक्तं कुरु (यः) (अमित्रः) पीडकः शत्रुः (अस्य) राज्ञः (वर्ष्म) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम्। शिरोवदुन्नतः (क्षणात्राम्) अ० २।१५।४। क्षतस्त्रायकाणां क्षत्रियाणां मध्ये (अस्तु) (राजा) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (शत्रुम्) रिपुम् (रन्धय) म० १। वशीकुरु (सर्वम्) (अस्मै) राजहिताय ॥

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