अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
ऋषिः - विश्वामित्रः
देवता - एकवृषः
छन्दः - आसुरी
सूक्तम् - वृषरोगनाशमन सूक्त
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यद्ये॑काद॒शोऽसि॒ सोऽपो॑दकोऽसि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । ए॒का॒द॒श: । असि॑ । स: । अप॑ऽउदक: । अ॒सि॒ ॥१६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्येकादशोऽसि सोऽपोदकोऽसि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । एकादश: । असि । स: । अपऽउदक: । असि ॥१६.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ
(यदि) जो तू (एकादशः) ग्यारहवाँ [पूर्वोक्त दस से भिन्न पुरुषार्थहीन] (असि) है, (सः) वह तू (अपोदकः) वृद्धि सामर्थ्य रहित (असि) है ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य पूर्वोक्त दस मन्त्रों में कहे पुरुषार्थों को नहीं करता, वह पुरुषार्थहीन अपनी और दूसरों की वृद्धि नहीं कर सकता ॥११॥
टिप्पणी
११−(एकादशः) तस्य पूरणे डट्। पा० ५।२।४८। इति एकादशन्−डट्। एकादशानां पूरणः। पूर्वमन्त्रोक्तेभ्यो दशभ्यो भिन्नः पुरुषार्थहीनः (असि) (सः) स त्वम् (अपोदकः) अपगतमुदकं सेचनसामर्थ्यं यस्मात् सः। अरसः। निर्वीर्यः ॥
विषय
अपोदकः
पदार्थ
१. (यदि एकदशः असि) = यदि तू ग्यारहवें मनवाला है, अर्थात् मन को तूने वश में किया है तो तू (अपोदकः असि) = [अपनद्धम् उदकं येन] अपोदक है-रेत:कणरूप जलों का शरीर में ही बाँधनेवाला है और वस्तुत: इन रेत:कणरूप जलों [आपः रेतो भूत्वा०] को शरीर में बाँधने पर ही जीवन रसमय बनता है। मन को वशीभूत कर लेने पर सब इन्द्रियों तो वशीभूत हो ही जाती हैं, ये इन्द्रियाँ विषयों की ओर न जाकर शक्तिशाली बनती हैं।
भावार्थ
मन को वशीभूत करने पर सब इन्द्रियाँ भी सशक्त बनती हैं। वैषयिक वृत्ति न होने पर शरीर में शक्ति की ऊर्ध्व गति होती है और जीवन आनन्दमय बनता है।
विशेष
यह अपोदक ही जीवन को नीरोग व निर्मल बनाकर 'मयोभू' बनता है-कल्याण को उत्पन्न करनेवाला। यही अगले तीन सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
(यदि) यदि (एकादशः) ११वें मनवाला तू है, (सः) वह तू (अपोदकः) जीवनीय-उदक अर्थात् रस से रहित (असि) हो गया है।
टिप्पणी
[मन्त्रों में विषयों की वर्षा का अर्थात् अतिसेवन का निषेध अभिप्रेत है, सेवन का सर्वथा निषेध नहीं किया। सर्वथा निषेध से तो जीवन की सत्ता ही नहीं रहती। ११वें मन्त्र में ११ इन्द्रियों का वर्णन नहीं, अपितु ११वें मन का वर्णन है। ११वें मन में तो सभी इन्द्रियों के विषयों सम्बन्धी संस्कार एकत्रित रहते हैं यदि मन संयमित न हो तो मनोनिष्ठ सभी संस्कार जीवन को अति क्लेशमय कर देते हैं, फिर इनसे छूट ने का कोई उपाय नहीं रहता। इस अभिप्राय को दर्शाने के लिए ११ वें मंत्र में 'सृज' का कथन नहीं हुआ। मन ११वीं इन्द्रिय है (अथर्व० ५।१५।११ की टिप्पणी), देखिए। यथा "एकादशं मनो ज्ञेयमिन्द्रियमुभयात्मकम्" (मनु)।]
विषय
आत्मा की शक्ति वृद्धि करने का उपदेश।
भावार्थ
(यदि दश-वृषः असि०) यदि दश प्राणों से युक्त है तो भी (सृज, अरसः असि) और अपनी शक्ति को बढ़ा क्योंकि निर्बल है। १० यदि (एक दशः असि) तू उन दश प्राणों के अतिरिक्त स्वयं आत्मा ग्यारहवां है तब (सः) वह (अप उदकः असि) तू आत्मा दुःखों में तड़फने से मुक्त हो सकता है। अथवा तब तू स्वयं (अप-उदकः) जल में तूम्बे वा चिकने पदार्थ के समान ‘असङ्ग’ है, तू इन्द्रियों के भोग = रस के सङ्ग से परे हैं। अर्थात् जब तक आत्मा दश इन्द्रियों से कुछ एक को अपना रूप समझता है तब तक भी वह अरस = निर्बल एवं परमानन्दरस से शून्य रहता है और जब दशों इन्द्रियों के संग से रहित होजाता है तब वह तूम्बे वा चिकने पदार्थ के तुल्य इस तृष्णा जल से मुक्त होकर बली, आनन्दी और मुक्त होजाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। एकवृषो देवता। १, ४, ५, ७-१० साम्न्युष्णिक्। २, ३, ६ आसुरी अनुष्टुप्। ११ आसुरी गायत्री। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Spiritual Strength and Creativity
Meaning
If you are the eleventh, none of these ten, you would be either wholly and irredeemably dry, unconsecrated by the holy waters of life. And if you are free from all these ten, pure spirit in Kaivalya state, then you are untouched by all pleasure and pain of the waters of life. Note: The numbers from one to ten are statements of the virtues, assets and values of life. They can be interpreted in different ways: ten principles of Dharma, ten pranas, ten senses of perception and volition and so on. But the emphasis is on creative life. We must create and contribute something to life and leave it richer than we found it when we came. Creativity is the value, selfishness and sterility is no life. Either be in and doing, or out and free.
Translation
If you have eleven powers, then you are out of water.
Translation
If you possess eleven potential powers you are devoid of all succulence.
Translation
O man, if thou art the eleventh, devoid of enterprise, thou art powerless.
Footnote
If a man does not possess any of the qualifications mentioned in the first ten verses, he is verily a powerless man without enterprise.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(एकादशः) तस्य पूरणे डट्। पा० ५।२।४८। इति एकादशन्−डट्। एकादशानां पूरणः। पूर्वमन्त्रोक्तेभ्यो दशभ्यो भिन्नः पुरुषार्थहीनः (असि) (सः) स त्वम् (अपोदकः) अपगतमुदकं सेचनसामर्थ्यं यस्मात् सः। अरसः। निर्वीर्यः ॥
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