अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनिवारण सूक्त
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मध्वा॑ पृञ्चे न॒द्यः पर्व॑ता गि॒रयो॒ मधु॑। मधु॒ परु॑ष्णी॒ शीपा॑ला॒ शमा॒स्ने अ॑स्तु॒ शं हृ॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठमध्वा॑ । पृ॒ञ्चे॒ । न॒द्य᳡: । पर्व॑ता: । गि॒रय॑: । मधु॑ । मधु॑ । परु॑ष्णी । शीपा॑ला । शम् । आ॒स्ने । अ॒स्तु॒ । शम् । हृ॒दे ॥१२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मध्वा पृञ्चे नद्यः पर्वता गिरयो मधु। मधु परुष्णी शीपाला शमास्ने अस्तु शं हृदे ॥
स्वर रहित पद पाठमध्वा । पृञ्चे । नद्य: । पर्वता: । गिरय: । मधु । मधु । परुष्णी । शीपाला । शम् । आस्ने । अस्तु । शम् । हृदे ॥१२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप नाश करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(मध्वा) अमृत से [तुझ को] (पृञ्चे) मैं संयुक्त करता हूँ। (नद्यः) नदियाँ, (पर्वताः) पर्वत और (गिरयः) छोटे पहाड़ (मधु) अमृत [होवें]। (परुष्णी) पालन सामर्थ्यवाली, (शीपाला) निद्रा लानेवाली ओषधि (मधु) अमृत [आस्ने] तेरे मुख के लिये (शम्) शान्ति और (हृदे) हृदय के लिये (शम्) शान्ति (अस्तु) होवे ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य सब पदार्थों से विवेकपूर्वक उपकार लेकर आनन्द भोगें ॥३॥
टिप्पणी
३−(मध्वा) अमृतेन (पृञ्चे) पृची सम्पर्के। संयोजयामि त्वाम् (नद्यः) (पर्वताः) (गिरयः) क्षुद्रशैलाः (मधु) अमृतम् (परुष्णी) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। इति पॄ पालनपूरणयोः−उसि। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति परुष्−न मत्वर्थे। गौरादित्वाद् ङीष्। परुष्णी पर्ववती भास्वती कुटिलगामिनी−निरु० ९।२६। परुष्णीम् पालिकां नीतिम्−दयानन्दभाष्ये ऋ० ७।१८।९। पालनवती (शीपाला) शीङो धुक्लक्०। उ० ४।३८। इति शीङ् शयने−वालन्, स च कित् वस्य पः, टाप्। शेते अनया। सुखदायिका यवाद्योषधिः (शम्) शान्तिः (आस्ने) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति आस्यस्य आसन्। आस्याय मुखाय (अस्तु) (हृदे) हृदयाय ॥
विषय
परुष्णी, शीपाला
पदार्थ
१. वैद्य सर्प-दष्ट पुरुष से कहता है कि मैं तुझे (मध्वा पृञ्चे) = मधु से-औषधियों के सार से संपृक्त करता हूँ। (नद्यः पर्वताः गिरयः) = नदियाँ, पर्वत व मेघ [गिरयः मेघ-नि० १.१०] ये सब (मधु) = मधु हैं। इनमें सर्पविषों को दूर करने की ओषधियाँ हैं। २. (परुष्णी) = यह पालन और पूरण करनेवाली (शीपाला) = नींद से बचानेवाली ओषधि (मधु) = तेरे लिए मधु हो। तेरे (आस्ने) = मुख के लिए (शम् अस्तु) = शान्ति हो, (शम् हृदे) = हदय के लिए शान्ति हो।
भावार्थ
सर्पविष-निवारण के लिए नदियों के किनारे, पर्वतों व मेघवृष्टिवाले स्थलों पर ओषधियाँ उपलभ्य हैं। इन ओषधियों का सार सर्पविर्षों को दूर करता है। विशेषतः 'परुष्णी' नामक ओषधि निद्रा में न जाने देती हुई सर्पदष्ट को विष-प्रभाव से मुक्त करती है।
विशेष
जैसे सर्पविष से मृत्यु की आशंका है, इसीप्रकार अन्य भी जितनी मृत्युएँ हैं, उनसे बचने की कामनावाला [स्वस्त्ययनकामः] 'अथर्वा' आत्म-निरीक्षण करता हुआ [अथ अर्वा] दोषों को दूर करके मृत्यु को दूर करता हुआ व्यक्ति अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(मध्वा) उदक द्वारा (पृञ्चे) मैं तेरा सम्पर्क करता हूं, (नद्यः) नदियां (पर्वताः) पर्वतसदृश अन्तरिक्ष में अत्युच्च प्रदेशस्थ मेघ, (गिरय:) छोटे पर्वतों के सदृश अन्तरिक्ष में अल्पोच्च प्रदेश में स्थित मेघ ( मधु) उदक रूप हैं। (परुष्णी) बहुतों को स्नान कराने वाली नदी (मधु) उदकरूपा है, (शीपाला) और शयनावस्था से पालनेवाली अर्थात् सुरक्षा करनेवाली है। [जल समूह तेरे ] (आस्ने) मुख के लिये (शम् ) सुखरूप और (हृदे) हृदय के लिये (शम्) सुखरूप (अस्तु) हो ।
टिप्पणी
[मन्त्र में सर्प विषाक्त रोगी को सम्बोधित कर कहा है कि तेरे विष की चिकित्सा के लिये मैं विषवेद्य तेरे साथ उदक का सम्पर्क करता हूँ, और विषवैद्य ने भिन्न भिन्न प्रकार के उदकों का वर्णन मन्त्र द्वारा दर्शाया है। भिन्न-भिन्न प्रकार के उदकों में विष के निवारण की शक्ति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की है । नदी के प्रवाहशील उदक में बैठ कर चिकित्सा करने से शरीरगत विष प्रवाह के साथ प्रवाहित हो जाता है। अन्तरिक्ष के उच्च तथा निचले प्रदेशों के मेघों में भी विष निवारण शक्ति भिन्न-भिन्न होती है। अतः इन द्विविध प्रकार के मेघों का कथन किया है। परुष्णी है "पुरुष्णी" बहुतों को युगपत् स्नान करा सकने वाली, इरावती [बहूदका] नदी (निरुक्त ९।३।२५)। यह परुष्णी शीपाला है, विष का निवारण करके विषाक्त को शयन करने से बचा देती है। सर्प विषाक्त रोगी में शयन करने को प्रवृत्ति हो जाती है, जो कि उस के लिये घातक होती है। जैसे कि कहा है कि "सर्पकटा सोए और बिच्छू कटा रोए" । मन्त्र में जलचिकित्सा का वर्णन हुआ है जल-चिकित्सा के विशेषज्ञ के परामर्श द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के जलों द्वारा जल चिकित्सा करनी चाहिये। जलचिकित्सा से मुख के तथा हृदय के रोग शान्त होकर सुखप्रदान करते हैं। पवतः मेघनाम (निघं० १।१०)। गिरिः मेघनाम (निघं० १।१०)। मधु उदकनाम (निघं० १।१२)। शर्म् सुखनाम (निघं० ३।६)। शीपाला=शीङ् स्वप्ने [शयने] (अदादिः)+ पाल रक्षणे (चुरादिः)]।
विषय
सर्पविष चिकित्सा।
भावार्थ
(मध्वा) मधु से मैं (पृञ्चे) रोगी को जोड़ता हूं। (नद्यः) नदियां (पर्वताः) पर्वत और (गिरयः) छोटे छोटे टीले ये सब (मधु) मधु हैं। इनमें सर्प-विषों को दूर करने की औषधियां प्राप्त होती हैं। और (शीपाला) शैवालवाली, शान्त, गम्भीर और (परुष्णी) झुकाव झुकाव पर बहती हुई जलधारा भी (मधु) उत्तम मधु = अमृत है। इन उपायों से (आस्ने) मुख के लिए (शम्) शान्ति हो और (हृदे शम्) हृदय में भी कल्याण और शान्ति उत्पन्न (अस्तु) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Poison Cure
Meaning
I join you with madhu, nectar of the herbs. The rivers, mountains, clouds, all yield the nectar of life. The sparkling stream, the sheepala herbs, all is madhu, nectar sweet of life. May there be peace and comfort in your mouth. Let there be peace in the heart. (There is no word in this sukta which specifically and exclusively means ‘the snake’. The word ‘ahi’ means snake as well as darkness which implies ignorance also. ‘Visha’ means anything perniciously active which can be poison as well as ignorance. The sukta therefore has been interpreted in the physical sense of ‘recovery from poison’, as well as in the psychic and spiritual sense of ‘recovery from ignorance and illusion’. The suggestion of darkness is clear in the first verse itself with the reference to night covering the world with darkness in the absence of the sun. The remedy suggested in the third verse is ‘madhu’, which Swami Dayananda explains as knowledge, karma and meditation in his commentary on Yajurveda 37, 13 and 19,91 where knowledge is explained as the essence of existence like honey being the essence of herbs collected by the bee.)
Translation
I fill it with honey. Rivers, mountains and hills are sweet. Sweet are the parusni and the sipala. May it be soothing to mouth and soothing to heart. (Rivers (nadhya) as Gangs or Parusni; mountains as Himalaya; sipala as saivala, a water grass; giri as the foot-hills of the mountains). (Cf. The nadhya hymn of the Rgveda X.75.5)
Translation
O man! treat you with the water-mixed with honey; let the rivers mountains, hills be sweet ; let the sweet curative medicine be pleasant for your mouth and the medicine bringing sleep be well for your heart.
Translation
With efficacious medicine do I rub the body of the patient. Streams, mountains, hillocks contain useful medicines. May the nourishing, sleep inducing medicine be effective. May it bring peace to thy mouth, peace to thy heart.
Footnote
Griffith explains Purushni as one of the rivers of the Punjab, now called Ravi. Sipala, is described by Griffith as a stream full of the aquatic plant Sipala. This explanation is irrational, as there is no history in the Vedas. The words are the names of medicines.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(मध्वा) अमृतेन (पृञ्चे) पृची सम्पर्के। संयोजयामि त्वाम् (नद्यः) (पर्वताः) (गिरयः) क्षुद्रशैलाः (मधु) अमृतम् (परुष्णी) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। इति पॄ पालनपूरणयोः−उसि। लोमादिपामादि०। पा० ५।२।१००। इति परुष्−न मत्वर्थे। गौरादित्वाद् ङीष्। परुष्णी पर्ववती भास्वती कुटिलगामिनी−निरु० ९।२६। परुष्णीम् पालिकां नीतिम्−दयानन्दभाष्ये ऋ० ७।१८।९। पालनवती (शीपाला) शीङो धुक्लक्०। उ० ४।३८। इति शीङ् शयने−वालन्, स च कित् वस्य पः, टाप्। शेते अनया। सुखदायिका यवाद्योषधिः (शम्) शान्तिः (आस्ने) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति आस्यस्य आसन्। आस्याय मुखाय (अस्तु) (हृदे) हृदयाय ॥
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