अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनिवारण सूक्त
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परि॒ द्यामि॑व॒ सूर्योऽही॑नां॒ जनि॑मागमम्। रात्री॒ जग॑दिवा॒न्यद्धं॒सात्तेना॑ ते वारये वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । द्याम्ऽइ॑व । सूर्य॑: । अही॑नाम् । जनि॑म । अ॒ग॒म॒म्। रात्री॑ । जग॑त्ऽइव । अ॒न्यत् । हं॒सात् । तेन॑ । ते॒ । वा॒र॒ये॒ । वि॒षम्॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परि द्यामिव सूर्योऽहीनां जनिमागमम्। रात्री जगदिवान्यद्धंसात्तेना ते वारये विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । द्याम्ऽइव । सूर्य: । अहीनाम् । जनिम । अगमम्। रात्री । जगत्ऽइव । अन्यत् । हंसात् । तेन । ते । वारये । विषम्॥१२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप नाश करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(सूर्यः) सूर्य (इव) जैसे (द्याम्) आकाश को, [वैसे ही] (अहीनाम्) सर्पों [सर्पसमान दोषों] के (जनिम) जन्म को (परि) सब ओर से (अगमम्) मैंने जान लिया है। (रात्री इव) जैसे रात्री (हंसात्) सूर्य से (अन्यत्) अन्य (जगत्) जगत् को [ढक लेती है], (तेन) उसी प्रकार से ही [हे मनुष्य] (ते) तेरे (विषम्) विष को [वारये] मैं हटाता हूँ ॥१॥
भावार्थ
योगी मनुष्य दोषों के कारणों को ऐसे जान लेता है, जैसे सूर्य आकाशस्थ पदार्थों को, और जैसे रात्री में सब पदार्थ सूर्य को छोड़ कर अदृष्ट हो जाते हैं, वैसे ही उस योगी के पाप नष्ट हो जाते हैं, और वह पूर्ण ज्ञान से सूर्यसमान प्रकाशमान हो जाता है ॥१॥
टिप्पणी
१−(परि) परितः (द्याम्) अन्तरिक्षम् (इव) यथा (सूर्यः) भास्करः (अहीनाम्) अ० २।५।५। आहननशीलानां सर्पाणां दोषाणां वा (जनिम) अ० १।८।४। जन्म (अगमम्) गतवान् ज्ञातवानस्मि (रात्री) निशा (जगत्) प्राणिजातम् (इव) यथा (अन्यत्) इतरत् (हंसात्) वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति हन हिंसागत्योः−स। हंसासः, अश्वाः−निघ० १।१४। हंसा हन्तेर्घ्नन्त्यध्वानम्−निरु० ४।१३। हंसाः सूर्यरश्मयः−निरु० १४।२९। गमनशीलात् सूर्यात् (तेन) प्रसिद्धप्रकारेण (ते) तव। आत्मनः (वारये) निवारयामि (विषम्) विषरूपं पापम् ॥
विषय
अहीनां जनि पर्यागमन्
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (द्याम्) = घुलोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मैं (अहीनाम्) = सपों के (जनिम्) = जन्मवृत्त को (परिआगमम्) = सम्यक् जानता हूँ। २. (इव) = जैसे (रात्री) = प्रलयकाल की रात्रि (जगत) = सम्पूर्ण जगत् को व्यास कर लेती है, परन्तु (हंसात् अन्यत) = उस परब्रह्म से भिन्न जगत् को ही व्याप्त करती है, इसीप्रकार यह विष भी सारे शरीर को व्याप्त कर ले तो कर ले, परन्तु आत्मतत्त्व पर उसका प्रभाव नहीं होता, अर्थात् चेतना को यह समाप्त नहीं कर सकता। (तेन) = उस चेतना को स्थिर रखने के द्वारा ही मैं (ते विषं वारये) = तेरे विष को दूर करता है, अर्थात् इस सर्पदष्ट पुरुष को मैं निद्राभिभूत न होने देकर इस विषप्रभाव को समाप्त करने के लिए यत्नशील होता है।
भावार्थ
वैद्य को सपों के प्रादुर्भाव का सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। वह सर्पदष्ट की चेतना को स्थिर रखता हुआ सर्पविष को दूर करने के लिए यत्नशील हो।
भाषार्थ
(सूर्यः) सूर्य (इव) जैसे (द्याम् परि) द्युलोक के समीप, वैसे (अहीनाम् जनिम्) सांपों की जाति के समीप (आगमम्) मैं [विषवैद्य] आ गया हूं। (रात्री) तथा रात्रि (इव) जैसे (अन्यत् हंसात्) सूर्य से भिन्न (जगत्) जगत् को [व्याप लेती है वैसे मैंने उसे घेर लिया है] (तेन) उस [हंस] द्वारा (ते) तेरे (विषम्) विष को (वारये) मैं निवारित करता हूं।
टिप्पणी
[विषवैद्य, विषाविष्ट व्यक्ति से कहता है कि मैंने सांपों की सब जातियों को घेरा हुआ है, तो भी इनके विष से रहित हूं, मुझ पर विश्वास कर, मैं तुझे विष के प्रभाव से मुक्त कर दूंगा। जैसे सूर्य द्युलोक के अन्धकार को दूर करता है, वैसे तेरे निराशान्धकार को मैं दूर कर दूंगा। जैसे रात्री जगत् को व्याप लेतो है और हंस अर्थात् सूर्य की नहीं, वैसे विष तुझे व्याप्त नहीं करेगा। उस हंस के द्वारा मैं तेरे विष को निवारित करूंगा। हंस है सूर्य । "हन्ति" अन्धकारम्, "सनोति" प्रकाशम्; षणु दाने (तनादिः)। सूर्य की प्रातःकाल और सायंकाल की लाल-रश्मियों में रोग कीटाणुओं के हनन का सामर्थ्य है। यथा "उद्यन् आदित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्लोचन् हुन्तु रश्मिभिः। ये अन्तः क्रिमयो गवि" (अथर्व० २।३२।१)। आदित्य की सप्तरश्मियों में पृथक्-पृथक् क्रिमियों, तथा उनके विषों के हनन करने की शक्ति विद्यमान है। उन रश्मियों के प्रयोग द्वारा भी तेरे विष का मैं निवारण कर दूंगा। हंसः सूर्यः (अथर्व० १०।८।११)। तेना=तेन, सूर्येण। सप्तरश्मि:= एकोऽश्वो वहति "सप्तनामा" आदित्यः, सप्तास्मैं रश्मयो रसानभि सन्नामयन्ति" (निरुक्त ४।४।२७, ऋक् १।१६४।२)। वर्षतु में इन्द्रधनुष् में सात रश्मियां प्रकट होती हैं। एक:अश्वः एक शुक्ल रश्मि:। वह ही है सप्तनामा सात रश्मियों में परिणत, रश्मि-सप्तक। मन्त्र में सूर्यरश्मिचिकित्सा का कथन हुआ है]
विषय
सर्पविष चिकित्सा।
भावार्थ
(रात्रि) प्रलय-कालमय रात्रि जिस प्रकार (जगत् इव) जगत् को व्याप्त कर लेती है परन्तु (अन्यत् हंसात्) उससे भी परे विद्यमान हंस = परब्रह्म को वह व्याप्त नहीं करती, उसी प्रकार विष से उत्पन्न होने वाली रात्रि, तमोमय निद्रा या मूर्छा भी (हंसात् अन्यत्) हंस = आत्मा से अतिरिक्त शरीर को व्याप्त कर लेती है। (तेन) उसी विषनिवारक बल से मैं (ते विषम्) तेरे विष को (वारये) दूर करता हूं। और (द्याम् सूर्यः इव) द्यौलोक आकाश को जिस प्रकार सूर्य व्यापता है और (अहीनाम्) मेघों की (जनिम्) उत्पत्ति करता है उसी प्रकार मैं भी (अहींनां जनिम्) सर्पों की उत्पत्ति और उनके सब स्वरूपों को (आ गमम्) खूब अच्छी प्रकार जानता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Poison Cure
Meaning
Just as the sun pervades the heavenly region with light, so do I know the snakes from their very origin till the end. And just as darkness of the night covers the world other than where the sun shines, so by that knowledge I dispel the cover of your poison.
Subject
Cure for Poison
Translation
As the sun reaches the sky and as the night reaches all the world other than the sun, so I reach the race of snakes. With that (knowledge), I ward off your poison.
Translation
Like the sun encompassing the heavenly region I am fully aware of the race of the serpents and like the night which covers whole things but except the sun, I ward your poison off, O man!
Translation
Just as the sun knows the Heaven, so have I know the birth of sins deadly like serpents. Just as Night separates the world from the light of the sun, so do I separate thee from sin.
Footnote
I refers to a yogi. Just as the sun knows all the objects in the atmosphere, so does a yogi know the birth of sins in men. Just as night removes the world from the sun, so does a yogi remove the moral weaknesses of a sinner. Thee: a degraded, morally low sinful person.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(परि) परितः (द्याम्) अन्तरिक्षम् (इव) यथा (सूर्यः) भास्करः (अहीनाम्) अ० २।५।५। आहननशीलानां सर्पाणां दोषाणां वा (जनिम) अ० १।८।४। जन्म (अगमम्) गतवान् ज्ञातवानस्मि (रात्री) निशा (जगत्) प्राणिजातम् (इव) यथा (अन्यत्) इतरत् (हंसात्) वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति हन हिंसागत्योः−स। हंसासः, अश्वाः−निघ० १।१४। हंसा हन्तेर्घ्नन्त्यध्वानम्−निरु० ४।१३। हंसाः सूर्यरश्मयः−निरु० १४।२९। गमनशीलात् सूर्यात् (तेन) प्रसिद्धप्रकारेण (ते) तव। आत्मनः (वारये) निवारयामि (विषम्) विषरूपं पापम् ॥
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