अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 121/ मन्त्र 2
ऋषिः - कौशिक
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
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यद्दारु॑णि ब॒ध्यसे॒ यच्च॒ रज्ज्वां॒ यद्भूम्यां॑ ब॒ध्यसे॒ यच्च॑ वा॒चा। अ॒यं तस्मा॒द्गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दारु॑णि । ब॒ध्यसे॑ । यत् । च॒ । रज्ज्वा॑म् । यत् । भूम्या॑म् । ब॒ध्यसे॑ । यत् । च॒ । वा॒चा । अ॒यम् । तस्मा॑त् । गार्ह॑ऽपत्य: । न॒: । अ॒ग्नि: । उत् । इत् । न॒या॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥१२१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्दारुणि बध्यसे यच्च रज्ज्वां यद्भूम्यां बध्यसे यच्च वाचा। अयं तस्माद्गार्हपत्यो नो अग्निरुदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । दारुणि । बध्यसे । यत् । च । रज्ज्वाम् । यत् । भूम्याम् । बध्यसे । यत् । च । वाचा । अयम् । तस्मात् । गार्हऽपत्य: । न: । अग्नि: । उत् । इत् । नयाति । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥१२१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मोक्ष पाने का उपदेश।
पदार्थ
[हे जीव !] (यत्) यदि तू (दारुणि) काष्ठ में, (च) और (यत्) यदि तू (भूम्याम्) भूमि में (च) और (यत्) यदि (वाचा) वचन के साथ (बध्यसे) बँधा है। (अयम्) यह (गार्हपत्यः) घर के स्वामियों का सयोगी (अग्निः) अग्नि, सर्वज्ञ परमेश्वर (तस्मात्) उस [कष्ट] से पृथक् करके (नः) हमें (सुकृतस्य) धर्म के (लोकम्) समाज में (इत्) अवश्य (उन्नयाति) ऊँचा चढ़ावे ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य बड़ी विपत्तियों में पड़ कर परमात्मा की शरण लेता और पुरुषार्थ करता है, वह कष्ट से छूट कर उन्नति पाता है ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध ऊपर आ चुका है−अ० ६।१२०।१ ॥
टिप्पणी
२−(यत्) यदि (दारुणि) दॄसनिजनि०। उ० १।३। दॄ विदारणे−ञुण्। काष्ठे (बध्यसे) बद्धो भवसि (रज्ज्वाम्) दाम्नि (भूम्याम्) भूमिगर्ते (वाचा) राजाज्ञाप्रकाशकेन वचनेन। अन्यद् गतम्−अ० ६।१२०।१ ॥
विषय
गार्हपत्य अग्नि द्वारा सुकत के लोक में
पदार्थ
१. (यत्) = जो तू (दारुणि) = [ore] इन सोना-चाँदी आदि धातुओं में (बध्यसे) = बद्ध हो जाता है-सोने व चाँदी के मोह में फंस जाता है (च) = और (यत्) = जो (रज्ज्वाम्) = बालों के गुम्फनविशेषों में [alock of braided hair] आसक्त हो जाता है। एक युवति नाना प्रकार से बालों का गुम्फन करती हुई अपने को सुन्दर बनाने में आसक्त हो जाती है। (यत् भूम्यां बध्यसे) = जो तु भूमि में बाँधा जाता है, अधिकाधिक भूमि के स्वामित्व के लिए लालायित हो जाता है, (च) = और (यत्) = जो (वाचा) = वाणी से तू बद्ध होता है-बोलने का व्यसन लग जाता है-मौन रहना कठिन हो जाता है, (अयम्) = यह (गार्हपत्यः अग्नि:) = गृहों का रक्षण करनेवाला यज्ञिय-अग्नि (तस्मात्) = उस सब बन्धन से (न:) = हमें (इत्) = निश्चय से (उन्नयाति) = बाहर प्राप्त कराता है और (सुकृतस्य लोकम्) = हमें पुण्य के लोक में ले-चलता है।
भावार्थ
यज्ञिय वृत्ति होने पर हमारे 'सोने-चाँदी, बालों का सौन्दर्य, भूमि-संग्रह व बहुत बोलने' आदि के बन्धन विनष्ट हो जाते हैं।
भाषार्थ
हे जीवात्मन् ! (यद्) जो (दारुणि) दारुवत् ज्वलनीय स्थूल शरीर में (बध्यसे) तू बन्धा हुआ है, (यत् च) और जो (रज्ज्वाम्) स्थूल शरीर की नस-नाड़ीरूप रस्सी में बन्धा हुआ है, (यद्) जो (भूम्याम्) भूमि में अर्थात् पार्थिव भोगों में (बध्यसे) तू बन्धा हुआ है, (यत् च) और जो (वाचा) वाक् आदि इन्द्रियों द्वारा तू बन्धा हुआ है, (तस्मात्) उस प्रत्येक बन्धन से (अयम्) यह (गार्हपत्यः अग्निः) ब्रह्माण्डगृह के पति द्वारा प्रदत्त ज्ञानाग्नि (नः) हमें या हमारे सम्बन्धी तुझ को, (उद्) उत्कृष्ट करके, (सुकृतस्य लोकम्) सुकृत के लोक की ओर (नयाति) ले चलं, या ले जाती है। अथवा ब्रह्माण्ड गृह का स्वामी अग्निनामक परमेश्वर नयाति।
टिप्पणी
[समग्र सूक्त में "प्रतीयमान आध्यात्मिक भावनानुसार" मन्त्रार्थ किया गया है। मन्त्र (३) में "अमृतस्य" पद, सूक्त की आध्यात्मिकता का सूचक है। अमृत है मोक्ष, जन्म-मरण से मुक्त हो जाना, छूट जाना।]
विषय
त्रिविध बन्धन से मुक्ति।
भावार्थ
हे जीव ! (यत् च) जो तू (दारुणि) काष्ठ में (यत् च रज्ज्वां) और जो तू रस्सी में और (यद् भूम्यां) जो तू भूमि में (बध्यसे) बांधा जाता है और (यत् च वाचा) जो तू वाणी से बांधा जाता है (तस्मात्) उस बंधन से (नः गार्हपत्यः) हमारे गृहों का स्वामी (अग्निः) परमेश्वर राजा (अयम्) यह साक्षात् (इत्) ही (सुकृतस्य) पुण्य, शुभ कर्म से प्राप्त होनेवाले (लोकम्) प्रकाशमय लोक को (उत् नयाति) ले जाता है। दारु = काष्ट = शरीर, रज्जू = रस्सी, गुणमयी प्रकृति; भूमि= योनि, मनुष्यादिजन्म, वाक्, वाणी, वेदाभ्यास, शिक्षा, उपनयनादि द्वारा वेदादिकृत धर्माधर्म की व्यवस्था, इन सब बन्धनों से जीव को उन्नत लोकों में प्राप्त कराता है। इसी प्रकार राजा के सब दण्ड अपराधी की उन्नति के लिये होने चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्तदैवत्यम्। १-२ त्रिष्टुभौ। ३, ४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Bondage
Meaning
O man, if you are tied in chain to the stake on earth with your own words of promise in human affairs, then know, from all that bondage, this homely familial fire of yajna would raise you from this low status to the higher state of virtuous action.
Translation
If you are bound to a log, or with a rope; if you are bound under-ground, or with the speech-freeing us from that, may this house-hold fire lead us up to the land of the Virtuous.
Translation
O soul! if you are bound in wood, if you are bound with string, if you are bound in the earth and if you are fettered by organ of speech (according to your desert) let this yajna fire of ours lit in the house-hold life raise you to the status of virtues.
Translation
O soul, if thou art bound by body, matter, birth or Vedic word, may God, the Lord of the universe absolve us from this bondage and lift us up into the world of virtue.
Footnote
Vedic word: The laws laid down in the Vedas about virtue and vice. We should try to be free from evil and accept virtue.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यत्) यदि (दारुणि) दॄसनिजनि०। उ० १।३। दॄ विदारणे−ञुण्। काष्ठे (बध्यसे) बद्धो भवसि (रज्ज्वाम्) दाम्नि (भूम्याम्) भूमिगर्ते (वाचा) राजाज्ञाप्रकाशकेन वचनेन। अन्यद् गतम्−अ० ६।१२०।१ ॥
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