अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 121/ मन्त्र 3
ऋषिः - कौशिक
देवता - तारके
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
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उद॑गातां॒ भग॑वती वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के। प्रेहामृत॑स्य यच्छतां॒ प्रैतु॑ बद्धक॒मोच॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒गा॒ता॒म् । भग॑वती॒ इति॒ भग॑ऽवती । वि॒ऽचृतौ॑ । नाम॑ । तार॑के॒ इति॑ । प्र । इ॒ह । अ॒मृत॑स्य । य॒च्छ॒ता॒म् । प्र । ए॒तु॒ । ब॒ध्द॒क॒ऽमोच॑नम् ॥१२१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदगातां भगवती विचृतौ नाम तारके। प्रेहामृतस्य यच्छतां प्रैतु बद्धकमोचनम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अगाताम् । भगवती इति भगऽवती । विऽचृतौ । नाम । तारके इति । प्र । इह । अमृतस्य । यच्छताम् । प्र । एतु । बध्दकऽमोचनम् ॥१२१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मोक्ष पाने का उपदेश।
पदार्थ
(भगवती=०−त्यौ) दो ऐश्वर्यवाले (विचृतौ) [अन्धकार से] छुड़ानेहारे (नाम) प्रसिद्ध (तारके) तारे [सूर्य और चन्द्रमा] (उदगाताम्) उदय हुए हैं। वे दोनों (इह) यहाँ पर (अमृतस्य) मरण से बचाव [पुरुषार्थ] का (प्रयच्छताम्) दान करें, [तब] (बद्धकमोचनम्) बँधुवे [आत्मा] की मुक्ति (प्र एतु) हो जावे ॥३॥
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा नियम पर चलकर जगत् का उपकार करते हैं, इसी प्रकार पुरुषार्थी मनुष्य ईश्वर आज्ञा पालन करके आप दुःख से छूटते और औरों को छुड़ाते हैं ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध पहिले आ चुका है−अ० २।८।१ ॥
टिप्पणी
३−(उदगाताम्) उदितेऽभूताम् (भगवती) भगवत्यौ। ऐश्वर्यवत्यौ (विचृतौ) अन्धकाराद् विमोचयित्र्यौ (नाम) प्रसिद्धे (तारके) ज्योतिषी। सूर्यचन्द्रौ (इह) अस्मिन् पुरुषे (अमृतस्य) मरणराहित्यस्य। पुरुषार्थस्य (प्रयच्छताम्)। उभे दानं कुरुताम् (प्र एतु) प्रकर्षेण गच्छतु (बद्धकमोचनम्) कुत्सायां कन्। कुत्सितबन्धं प्राप्तस्य मोक्षः। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० २।८।१ ॥
विषय
विचूतौ नाम तारके
पदार्थ
१. हमारे जीवनों में (भगवती) = उत्तम सौजन्य को प्राप्त करानेवाली (विचूतौ नाम) = पाप-बन्धन को विच्छिन्न करनेवाली (तारके) = पराविद्या व अपराविद्यारूप ताराएँ उदगाताम् उदित हों। ये तारे (इह) = इस जीवन में हमें (अमृतस्य प्रयच्छताम्) = अमृत प्रदान करें। अपारविद्या से हम अभ्युदय को प्राप्त करते हुए दरिद्रता व रोगादिरूप मृत्युओं से बचें तथा पराविद्या से हम निष्काम कर्म करते हुए जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ पाएँ-नि:श्रेयस को प्राप्त करनेवाले हों। हमें (बद्धकमोचनं प्र एतु) = कुत्सित बन्धनों से मोक्ष प्राप्त हो। हम विषय-वासनाओं के बन्धन से ऊपर उठें।
भावार्थ
हम पराविद्या व अपराविद्या के नक्षत्रों को अपने मस्तिष्क-गगन में उदित करते हुए बन्धनों से मुक्त हों और अमृतत्व को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(भगवती) सौभाग्य वाले (विचृतौ) दो विचृत (नाम) नाम (तारके) तारे (उदगाताम्) उदित हुए हैं, वे (इह) इस जीवन में (अमृतस्य) न मरने का [सौभाग्य] (प्रयच्छताम्) प्रदान करें, (बद्धक) बन्धे हुए [जीवात्मा१ को] (मोचनम्) मुक्ति (प्रैतु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
[भगवती= भगवत्यौ; यतः "तारके" द्विवचन में है। विचृतौ दो तारे वृश्चिक राशि में हैं, इन्हें मूल नक्षत्र कहते हैं। यथा "मूलनक्षत्रस्य विचृत् इति संज्ञा (सायण); (अथर्व० १९।७१।३) में भी "मूल" नक्षत्र कहा है। यथा "अरिष्टमूलम्"। अरिष्ट का अर्थ है अहिंसक। इसलिये मूल-तारा को भगवती कहा है, सौभाग्य वाली। यह "बद्धकमोचन" है, अतः जीवात्मा के लिये सौभाग्यप्रदा है। बद्धक में स्वार्थ में "कन्" है। परन्तु "विचृतौ" का पूर्वदिशा में उदय तो प्रतिवर्ष होता है, तब तो भूमिष्ठ सब जीवित प्राणियों की मुक्ति हो जानी चाहिये, परन्तु ऐसा हो नहीं रहा। अतः "विचृतौ" तारों का कुछ और ही अभिप्राय है। योगदर्शन में "तारक" का वर्णन है। यथा "तारक सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रम चेति" (विभूतिपाद ४४)। "तारक" ज्ञान भवसागर से तेरा देता है । मन्त्र पठित "तारके२" भी तैराने वाले हैं; "तारके" दो तारा। योगदर्शन कथित "तारक" ज्ञान भी द्विविधरूप वाला है, एक है "विवेकज ज्ञान", और दूसरा है "योग प्रदीप" जो कि विवेकज ज्ञान का अंशरूप है जिसे कि मधुमती भूमिक कहते हैं। यह है "ऋतम्भरा प्रज्ञा" (योगदर्शन समाधिपाद, ४८)। तारकज्ञान की विशेष व्याख्या के लिये देखो व्यासभाष्य। "तारके" को विचृतौ कहा है। विचृतौ = वि (विशेषेण)= चृतौ (हिंसाग्रन्थनयो:), हिंसार्थ अभिप्रेत है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की हिंसा अर्थात् नष्ट हो जाना, और जीवात्मा का कैवल्य हो जाना उस अकेले का बचा रहना। "विचृतौ तारके" के सम्बन्ध में निम्नलिखित दो मन्त्र भी विशेष प्रकाश डालते हैं। यथा– उदगातां भगवती विचृतौ नाम तारके। विक्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥ (अथर्व० २।८।१)। अमू ये दिवि सुभगे विचृतौ नाम तारके। वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम्।। (अथर्व० ३।७।४)। इन दो मन्त्रों से दो पाशों से मुक्ति का कथन हुआ है। अधम पाश है स्थूलशरीर, और उत्तमपाश है कारण शरीर इन दोनों के मध्य में है सूक्ष्म शरीर। अधम और उत्तम शरीर रूपी दो पाशों से मुक्ति की याचना द्वारा, मध्यशरीर रूपी पाश से मुक्ति स्वतः सम्पादित सिद्ध है।] [१. बद्ध है जीवात्मा, तीन शरीरों में स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर में। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर से तो कालिक मोचन हो जाता है। परन्तु शेष दो शरीरों में जीवात्मा बन्धा रहता है, इनसे भी मोचन है मुक्ति अर्थात् मोक्ष २. तारक भी द्विविध है, और तारके भी दो हैं, दोनों का अर्थ है "तैराने वाले।]
विषय
त्रिविध बन्धन से मुक्ति।
भावार्थ
(भगवती) ऐश्वर्य, बल से सम्पन्न (विचृतौ) विशेष रूप से परस्पर सम्बद्ध प्राण और अपान नामक (तारके) जीव को शरीर से तराने वाले (उद् अगाताम्) जब ऊर्ध्व गति करते हैं तब वे दोनों (अमृतस्य) अमृत, आत्मा का अमृत स्वरूप (प्र यच्छताम्) प्रदान करें तब (बद्धक-मोचनम्) वह आत्मा बद्ध अवस्था से मुक्त अवस्था को (तु) प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्तदैवत्यम्। १-२ त्रिष्टुभौ। ३, ४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Bondage
Meaning
Let the two divine stars of knowledge and action like sun and moon, both for sure redeemers and givers of freedom, arise and give us the gift of immortality here on earth and, thus, let the release of bonded humanity go on forward.
Translation
Two stars, releasers (vicrtau) be their name, glorious and prosperous ones, have risen up. May they bestow immortality here; may the releasen of the bound ones come quickly.
Translation
O soul! let there rise in you the sun and moon of knowledge as they are named and which are full of brilliance and are the dispeller of ignorance and let them give you the nector of immortality. Let it come there the freeing of captive from his bond.
Translation
When two auspicious, releasing forces named Prana and Apana are in full play and grant immortality to the soul, then the soul imprisoned in the body attains to emancipation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(उदगाताम्) उदितेऽभूताम् (भगवती) भगवत्यौ। ऐश्वर्यवत्यौ (विचृतौ) अन्धकाराद् विमोचयित्र्यौ (नाम) प्रसिद्धे (तारके) ज्योतिषी। सूर्यचन्द्रौ (इह) अस्मिन् पुरुषे (अमृतस्य) मरणराहित्यस्य। पुरुषार्थस्य (प्रयच्छताम्)। उभे दानं कुरुताम् (प्र एतु) प्रकर्षेण गच्छतु (बद्धकमोचनम्) कुत्सायां कन्। कुत्सितबन्धं प्राप्तस्य मोक्षः। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० २।८।१ ॥
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