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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगु देवता - विश्वकर्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त
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    त॒तं तन्तु॒मन्वेके॑ तरन्ति॒ येषां॑ द॒त्तं पित्र्य॒माय॑नेन। अ॑ब॒न्ध्वेके॒ दद॑तः प्र॒यच्छ॑न्तो॒ दातुं॒ चेच्छिक्षा॒न्त्स स्व॒र्ग ए॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒तम् । तन्तु॑म् । अनु॑ । एके॑ । त॒र॒न्ति॒ । येषा॑म् । द॒त्तम् । पित्र्य॑म् । आ॒ऽअय॑नेन । अ॒ब॒न्धु । एके॑ । दद॑त: । प्र॒ऽयच्छ॑न्त: । दातु॑म् । च॒ । इत् । शिक्षा॑न् । स: । स्व॒:ऽग: । ए॒व ॥१२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततं तन्तुमन्वेके तरन्ति येषां दत्तं पित्र्यमायनेन। अबन्ध्वेके ददतः प्रयच्छन्तो दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ततम् । तन्तुम् । अनु । एके । तरन्ति । येषाम् । दत्तम् । पित्र्यम् । आऽअयनेन । अबन्धु । एके । ददत: । प्रऽयच्छन्त: । दातुम् । च । इत् । शिक्षान् । स: । स्व:ऽग: । एव ॥१२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आनन्द की प्राप्ति करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (येषाम्) जिन लोगों का (पित्र्यम्) पितरों, माननीयों का प्रिय (दत्तम्) दान (आयनेन) यथाशास्त्र होता है, (एके) वे कोई (ततम्) फैले हुए (तन्तुम् अनु) वस्त्र में सूत के समान सर्वव्यापक ब्रह्म के पीछे-पीछे (तरन्ति) तरते हैं। (एके) कोई-कोई (अबन्धु) बन्धुरहितों [अनाथों] को (ददतः) देते हुए और (प्रयच्छन्तः) सौंपते हुए रहते हैं, [जो] (दातुम्) दान करने को (च इत्) अवश्य ही (शिक्षान्) समर्थ हों, (स एव) वही [उनको] (स्वर्गः) स्वर्ग है ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सुपात्रों का सत्कार करके परमात्मा की आज्ञा पालन करते हैं, वे ही विशेष सुख के भागी होते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ततम्) विस्तृतम् (तन्तुम्)−म० १। पटे सूत्रवत्सर्वव्यापकं ब्रह्म (अनु) अनुलक्ष्य (एके) केचन धीराः (तरन्ति) पारं गच्छन्ति (येषाम्) धीराणाम् (दत्तम्) दानम् (पित्र्यम्) अ० ६।१२०।२। पितॄणां प्रियम् (आयनेन) आ+अय गतौ−ल्युट्। आगमेन। यथाशास्त्रम् (अबन्धु) सुपां सुलुक्०। इति चतुर्थ्या लुक्। अबन्धुभ्यः। बन्धुरहितेभ्यः। अनाथेभ्यः (एके) सुजनाः (ददतः) दानं कुर्वन्तः (प्रयच्छन्तः) समर्पयन्तः सन्ति (दातुम्) (च इत्) अवश्यमेव (शिक्षान्) शक्लृ शक्तौ सनि। सनि मीमा०। पा० ७।४।५४। इत्यचः स्थाने इस्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इत्यभ्यासलोपः। लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। संयोगान्तलोपे तस्य असिद्धत्वान्नलोपाभावः। शत्रुमिच्छेयुः। समर्था भवेयुः ॥

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    विषय

    भूतयज्ञ

    पदार्थ

    १. (येषाम्) = जिनका (पित्र्यम्) = पिता से प्राप्त धन (आयनेन) = [आ+अय गती] आगम-वेदशास्त्र के अनुसार यज्ञों में (दत्तम्) = दिया गया है, ऐसे (एके) = विलक्षण (पुरुषं ततं तन्तुम् अनु) = विस्तृत पुत्र-पौत्रादिलक्षण सन्तान-तन्तु में प्रविष्ट होकर (तरन्ति) = इन ऋणों से अनुण हो ही जाते हैं। पिता से प्राप्त धन को विलास में खर्च न करके जो वेदोपदिष्ट यज्ञादि में विनियुक्त करते हैं, वे सन्तानों में अनुप्रविष्ट होकर भी इन ऋणों से तरने का ध्यान रखते हैं। २. (एके) = कई (अबन्धु) = [अबन्धवे] अनाथों के लिए (ददत:) = देते हुए और (प्रयच्छन्तः) = खूब ही देनेवाले होते हैं और इसप्रकार (चेत्) = यदि वे (दातं शिक्षान्) = देने के लिए समर्थ होने की इच्छा करते हैं, अर्थात् यदि उनकी इन अनाथों के पालने की वृत्ति बनी रहती है तो उनका (सः स्वर्ग: एव) = वह भूतयज्ञ स्वर्ग ही है, अर्थात् इस भूतयज्ञ को करने से उनका जीवन स्वर्ग का जीवन बना रहा है-न व्यसन आते हैं, न रोग। वे जीवन में अमर [नीरोग बने रहते है]।

    भावार्थ

    हम पिता से प्राप्त धनों को यज्ञों में ही विनियुक्त करें। यदि उसे विलास में व्यय करेंगे तो सन्तानों की वृत्ति भी विलासी ही बनेगी और यज्ञ विच्छन्न हो जाएंगे। अनाथों के हित के लिए देते हुए और इस दान के लिए सदा सशक्त होने की इच्छा करते हुए हम स्वर्गापम सुख को अनुभव करते हैं। ऐसे जीवन में न व्यसन होते हैं, न रोग। यही भूतयज्ञ है।

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    भाषार्थ

    (एके) कई, दान के (ततम्) विस्तृत [न करें, अच्छिन्न मन्त्र १] (तन्तुम्) तान्ते के (अनु) अनुसार (तरन्ति) तैर जाते हैं, (येषाम्) जिन्होंने कि (अयनेन) उत्तराधिकार मार्ग से प्राप्त (पित्र्यम्) पैतृक धन को (दत्तम्) दान में दे दिया है। (एके) और कई (अवन्धु) जो कि बन्धुरहित हैं वे (ददतः) पैतृक धन को देते हुए (प्रयच्छन्तः) सत्कार पूर्वक देते हुए, तैर जाते हैं, (चेत्) यदि (दातुम् शिक्षान्) इच्छापूर्वक देने में शक्ति रखते हों। यह द्विविध (सः) वह प्रसिद्ध (स्वर्ग एव) स्वर्ग ही है, अर्थात् ऐसे सात्विक सर्वस्वदानी व्यक्ति जिस गृहस्थ में रहते हैं वह गृहस्थ स्वर्ग ही है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के पूर्वार्ध में बन्धुओं वाले दानियों का, और उत्तरार्ध में बन्धुरहित दानियों का वर्णन हुआ है। ये यतः बन्धुरहित हैं, अकेले हैं, स्वयं धनोपार्जन में समर्थ है, या नहीं, इसलिये इनके सम्बन्ध में "दातु चेत् शिक्षान्" इन पदों का प्रयोग हुआ है। शिक्षान् = शक्लृ शक्तौ इत्यस्मात् सनि, 'सनि मोमा' (अष्टा० ७।४।५४) इत्यादिना अचः स्थाने इस् आदेशः। 'अत्र लोपोऽभ्यासस्य' (अष्टा० ७।४।५८) इति अभ्यासलोपः। "इतश्च लोपः परस्मैपदेषु" (अष्टा० ३।४।९७) इति इकारलोपः लेट्लकार, 'आट' आगम (सायण)।]

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    विषय

    देवयान, पितृयाण और मोक्ष प्राप्ति।

    भावार्थ

    (येषाम्) जिन्होंने (आयनेन) शरीर में पुनः आगमन द्वारा अथवा (आयनेन) सन्तान की प्राप्ति द्वारा (पित्र्यं) पितृऋण को (दत्तम्) दे दिया, या चुका दिया है, (एके) वे लोग (ततं तन्तुम् अनु) इस अविच्छिन्न तन्तु, प्रजासन्तति को उत्पन्न करके ही (तरन्ति) इस संसार के कर्तव्य मार्ग को पार कर जाते हैं। और (एके) दूसरे लोग (अबन्धु) बन्धु अर्थात् सन्तान रहित होकर भी (ददतः) अपने प्रदान करने वाले महाजन को (दातुं शिक्षान्) ऋण देने में समर्थ व्यक्तियों के समान ही (प्रयच्छन्तः) अपनी विद्या-धन आदि का प्रदान करते हुए, (चेत्) यदि (ददतः दातुं) सबके प्रदाता महादानी ईश्वर के ही निमित्त सब कुछ अर्पण करने में समर्थ हो जायँ तो उनके लिये (सः एव स्वर्गः) वही परम त्यागमय निःसंगता ही परम सुखप्रद दशा है।

    टिप्पणी

    (प्र०) अनुसंचरन्ति (द्वि०) ‘आयन्वत’ (तृ०) ‘प्रयच्छात’ (च०)‘शक्नुवांसः स्वर्ग एषाम्’ इति तै० आ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Holy Matrimony

    Meaning

    Some people complete their life’s journey by their Dharmic performance linked to Divinity, their performance consecrated to ancestors by obligation. Others, deprived of kith and kin, do their part of service as obligation to the deprived. For them too, giving for the sake of giving, life is heaven on earth itself.

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    Translation

    Some person, whose ancestral debt is repaid by coming - generation, go across following the extended line. Some others, having no kins, repay the debt to the creditors, if they are able do so. That is verily the heaven.

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    Translation

    The some ones who have paid the debt of Parent or have discharged all obligations towards their parents by giving Progeny to the family, follow the long drawn ordered project of yajna. Some others having no progeny, offering and giving if they can do so, find their heaven herein.

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    Translation

    Those, why have discharged their debt to the parents through begetting progeny, fulfill their duty through producing children. Others, who are child-less, attain to a happy state of mind, if, like their elders competent to give, they dedicate their wealth and knowledge to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ततम्) विस्तृतम् (तन्तुम्)−म० १। पटे सूत्रवत्सर्वव्यापकं ब्रह्म (अनु) अनुलक्ष्य (एके) केचन धीराः (तरन्ति) पारं गच्छन्ति (येषाम्) धीराणाम् (दत्तम्) दानम् (पित्र्यम्) अ० ६।१२०।२। पितॄणां प्रियम् (आयनेन) आ+अय गतौ−ल्युट्। आगमेन। यथाशास्त्रम् (अबन्धु) सुपां सुलुक्०। इति चतुर्थ्या लुक्। अबन्धुभ्यः। बन्धुरहितेभ्यः। अनाथेभ्यः (एके) सुजनाः (ददतः) दानं कुर्वन्तः (प्रयच्छन्तः) समर्पयन्तः सन्ति (दातुम्) (च इत्) अवश्यमेव (शिक्षान्) शक्लृ शक्तौ सनि। सनि मीमा०। पा० ७।४।५४। इत्यचः स्थाने इस्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इत्यभ्यासलोपः। लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। संयोगान्तलोपे तस्य असिद्धत्वान्नलोपाभावः। शत्रुमिच्छेयुः। समर्था भवेयुः ॥

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